ज्ञान जी! दिमाग में भी एक जठराग्नि होती है
ज्ञान जी ने कल ही अभय के स्वाभाविक स्नेह में आकर एक ‘स्माइलीय’ पोस्ट ठेल दी तो आंखें तरेरती और हंसी-ठिठोली करती तमाम टिप्पणियां ठिठक कर खड़ी हो गईं। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह पोस्ट मजाक-मजाक में लिखी गई है। लेकिन आप सभी से, खासकर ज्ञान जी से मैं कुछ नितांत आध्यात्मिक किस्म के सवाल पूछना चाहता हूं। क्या आपने सुबह उठते वक्त या दिन-रात कभी भी, कुछ पल के लिए ही सही, ऐसा महसूस किया है कि आपके दिमाग के अंदर का करकट किट-किट कर जल रहा है, जैसे अलाव में पुआल जलता है, जैसे होलिका में बबूल की लकड़ियां जलती हैं, जैसे हाथ में पुआल लेकर उस पर थोड़ी-सी आग रखो या धूप में उसे मोटे कॉन्वेक्स लेंस को फोकस करके सुलगाओ और फिर फूंक मारकर उससे लपट निकालो?
क्या आपको कभी अनुभूति हुई है कि ज्ञान चक्र से सहस्रार चक्र के बीच कहीं अचानक कोई अखंड दीप जल उठा है जिसकी लौ पर पड़ते ही तमाम कीट-पतंगे जलकर स्वाहा हो जा रहे हैं, आपकी आंखों की ज्योति और उनका दायरा अचानक बढ़ गया है और बिना गर्दन घुमाए आप आगे-पीछे, ऊपर नीचे, दाएं-बाएं, हर दिशा में एक साथ देख सकते हैं? क्या आपने अपने अंदर गले के पास मेरुदंड से उठती नीचे से उत्तरोत्तर ऊपर जाती तीव्रगामी भंवर या तेज़ बवंडर जैसी किसी चीज़ को महसूस किया है जिसमें नीचे का सारा खर-पतवार गोल-गोल घूमता हुआ ऊपर उठता है और फिर चारों तरफ दूर-दूर तक छिटक जाता है? क्या आप कभी कबीर की तरह कह सकते हैं कि संतों आई ग्यान की आंधी, भरम की टाटी सबै उड़ानीं, माया रहै न बांधी रे।
अगर नहीं तो आप में से किसी को भी यह कहने का हक नहीं है कि पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढय सो पंडित होय। तीन बार किताब, किताब, किताब बोलकर आप किताबों को तलाक नहीं दे सकते। मजाक-मजाक में भी आप यह स्थापना नहीं दे सकते कि, “ज्यादा पढ़ने पर जिन्दगी चौपट होना जरूर है - शर्तिया! जो जिन्दगी ठग्गू के लड्डू या कामधेनु मिष्ठान्न भण्डार की बरफी पर चिन्तन में मजे में जा सकती है, वह मोटी मोटी किताबों की चाट चाटने में बरबाद हो - यह कौन सा दर्शन है? कौन सी जीवन प्रणाली?”
अनुभव को किताब के खिलाफ खड़ा करने का यह अंदाज सरासर गलत है। आज की दुनिया में आदमी का 90 फीसदी ज्ञान अप्रत्यक्ष होता है। ज्यादा से ज्यादा 10 फीसदी ज्ञान ही होता है जिसे हम अपने अनुभव से हासिल करते हैं। बाकी ज्ञान तो हमें बड़े-बूढ़ों, परंपराओं, दृश्य-श्रव्य माध्यमों और किताबों से ही मिलता है। आखिर दुनिया भर की किताबों में भी तो मानवजाति का अभी तक का अनुभवजन्य ज्ञान ही लिखा हुआ है। अगर इसे नहीं अपनाएंगे तो क्या पाषाण युग के निएंडरथाल मानव से दोबारा शुरुआत करेंगे?
शब्दों की कठोरता पर मत जाइएगा। लेकिन अगर हम किताबों की महत्ता को ठुकरा देंगे तो हमारी हालत कुएं के उस मेढ़क जैसी हो जाएगी जो दरिया से आए मेढ़क से बहस करता है कि दरिया तो कुएं से बड़ा हो ही नहीं सकता। वैसे गांव-गिरांव ही नहीं, अपनी सभ्यता पर लहूलोट निवासी-अनिवासी संघी बराबर कहते ही रहते हैं कि एयरोप्लेन की खोज तो हमने त्रेतायुग में ही कर ली थी। आखिरकार राम पुष्पक विमान से ही तो लंका से अयोध्या लौटे थे।
ज्ञान जी, यकीनन आदमी ज़मीन पर ही चलेगा और उसमें ऊबड़-खाबड़ ज़मीन की समझ उन हाई-फाई किताबों और सिद्धांतों से ही पैदा होगी, जिनके ‘सलीबों पर आप उसे टें’ बुलवा रहे हैं। अनुभव की अपनी अहमियत है और किताबों की अपनी। लेकिन यह कहना कि बड़े-बड़े लेखकों या भारी-भरकम हस्ताक्षरों की बजाय भरतलाल दुनिया का सबसे बढ़िया अनुभव वाला और सबसे सशक्त भाषा वाला जीव है, भरतलाल के अल्पज्ञान को महिमामंडित करके उसे कूपमंडूक बनाए रखने की घनघोर पंडिताई है।
पेट में जठराग्नि जल रही हो तो कांकर-पाथर भी पचकर खून बन जाता है। उसी तरह दिमाग की जठराग्नि अगर प्रज्ज्वलित है तो सारी किताबों का सार हमारे अनुभवों से मिलकर सक्रिय व जीवंत ज्ञान बन जाता है। लेकिन अगर कोई अपच का शिकार है तो उसका मन लज़ीज़ पकवानों की तरफ भी झांकने का नहीं होता। मेरे, आप और हम जैसे ज्यादातर लोगों के साथ दिक्कत यही है कि हमने अपने अंदर तरह-तरह के इतने आलू-समोसे व पकौड़े भर रखे हैं, भांति-भांति का ऐसा कचरा भर रखा है कि सुंदर पकवान देखते ही हमें मितली आने लगती है। किताबें जी का जंजाल लगती हैं। देखा-देखी और सुनी-सुनाई में आकर उन्हें खरीद तो लाते हैं, लेकिन कभी उनमें डूबने का मन ही नहीं करता।
अंत मैं ज्ञान जी की पोस्ट पर नितिन बागला की टिप्पणी के एक अंश से करना चाहूंगा कि...
किताबों से कभी गुजरो तो यूं किरदार मिलते हैं,
गए वक्तों की ड्योढी पर खड़े कुछ यार मिलते हैं।
क्या आपको कभी अनुभूति हुई है कि ज्ञान चक्र से सहस्रार चक्र के बीच कहीं अचानक कोई अखंड दीप जल उठा है जिसकी लौ पर पड़ते ही तमाम कीट-पतंगे जलकर स्वाहा हो जा रहे हैं, आपकी आंखों की ज्योति और उनका दायरा अचानक बढ़ गया है और बिना गर्दन घुमाए आप आगे-पीछे, ऊपर नीचे, दाएं-बाएं, हर दिशा में एक साथ देख सकते हैं? क्या आपने अपने अंदर गले के पास मेरुदंड से उठती नीचे से उत्तरोत्तर ऊपर जाती तीव्रगामी भंवर या तेज़ बवंडर जैसी किसी चीज़ को महसूस किया है जिसमें नीचे का सारा खर-पतवार गोल-गोल घूमता हुआ ऊपर उठता है और फिर चारों तरफ दूर-दूर तक छिटक जाता है? क्या आप कभी कबीर की तरह कह सकते हैं कि संतों आई ग्यान की आंधी, भरम की टाटी सबै उड़ानीं, माया रहै न बांधी रे।
अगर नहीं तो आप में से किसी को भी यह कहने का हक नहीं है कि पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढय सो पंडित होय। तीन बार किताब, किताब, किताब बोलकर आप किताबों को तलाक नहीं दे सकते। मजाक-मजाक में भी आप यह स्थापना नहीं दे सकते कि, “ज्यादा पढ़ने पर जिन्दगी चौपट होना जरूर है - शर्तिया! जो जिन्दगी ठग्गू के लड्डू या कामधेनु मिष्ठान्न भण्डार की बरफी पर चिन्तन में मजे में जा सकती है, वह मोटी मोटी किताबों की चाट चाटने में बरबाद हो - यह कौन सा दर्शन है? कौन सी जीवन प्रणाली?”
अनुभव को किताब के खिलाफ खड़ा करने का यह अंदाज सरासर गलत है। आज की दुनिया में आदमी का 90 फीसदी ज्ञान अप्रत्यक्ष होता है। ज्यादा से ज्यादा 10 फीसदी ज्ञान ही होता है जिसे हम अपने अनुभव से हासिल करते हैं। बाकी ज्ञान तो हमें बड़े-बूढ़ों, परंपराओं, दृश्य-श्रव्य माध्यमों और किताबों से ही मिलता है। आखिर दुनिया भर की किताबों में भी तो मानवजाति का अभी तक का अनुभवजन्य ज्ञान ही लिखा हुआ है। अगर इसे नहीं अपनाएंगे तो क्या पाषाण युग के निएंडरथाल मानव से दोबारा शुरुआत करेंगे?
शब्दों की कठोरता पर मत जाइएगा। लेकिन अगर हम किताबों की महत्ता को ठुकरा देंगे तो हमारी हालत कुएं के उस मेढ़क जैसी हो जाएगी जो दरिया से आए मेढ़क से बहस करता है कि दरिया तो कुएं से बड़ा हो ही नहीं सकता। वैसे गांव-गिरांव ही नहीं, अपनी सभ्यता पर लहूलोट निवासी-अनिवासी संघी बराबर कहते ही रहते हैं कि एयरोप्लेन की खोज तो हमने त्रेतायुग में ही कर ली थी। आखिरकार राम पुष्पक विमान से ही तो लंका से अयोध्या लौटे थे।
ज्ञान जी, यकीनन आदमी ज़मीन पर ही चलेगा और उसमें ऊबड़-खाबड़ ज़मीन की समझ उन हाई-फाई किताबों और सिद्धांतों से ही पैदा होगी, जिनके ‘सलीबों पर आप उसे टें’ बुलवा रहे हैं। अनुभव की अपनी अहमियत है और किताबों की अपनी। लेकिन यह कहना कि बड़े-बड़े लेखकों या भारी-भरकम हस्ताक्षरों की बजाय भरतलाल दुनिया का सबसे बढ़िया अनुभव वाला और सबसे सशक्त भाषा वाला जीव है, भरतलाल के अल्पज्ञान को महिमामंडित करके उसे कूपमंडूक बनाए रखने की घनघोर पंडिताई है।
पेट में जठराग्नि जल रही हो तो कांकर-पाथर भी पचकर खून बन जाता है। उसी तरह दिमाग की जठराग्नि अगर प्रज्ज्वलित है तो सारी किताबों का सार हमारे अनुभवों से मिलकर सक्रिय व जीवंत ज्ञान बन जाता है। लेकिन अगर कोई अपच का शिकार है तो उसका मन लज़ीज़ पकवानों की तरफ भी झांकने का नहीं होता। मेरे, आप और हम जैसे ज्यादातर लोगों के साथ दिक्कत यही है कि हमने अपने अंदर तरह-तरह के इतने आलू-समोसे व पकौड़े भर रखे हैं, भांति-भांति का ऐसा कचरा भर रखा है कि सुंदर पकवान देखते ही हमें मितली आने लगती है। किताबें जी का जंजाल लगती हैं। देखा-देखी और सुनी-सुनाई में आकर उन्हें खरीद तो लाते हैं, लेकिन कभी उनमें डूबने का मन ही नहीं करता।
अंत मैं ज्ञान जी की पोस्ट पर नितिन बागला की टिप्पणी के एक अंश से करना चाहूंगा कि...
किताबों से कभी गुजरो तो यूं किरदार मिलते हैं,
गए वक्तों की ड्योढी पर खड़े कुछ यार मिलते हैं।
Comments
when i read you i feel i have "read" something. only reading and reading on as many subjects possible can help an individual to grow .
regds
rachna
..सही पंक्तियां हैं.
2. बाकी; भरत लाल को बड़ी सीरियसली लिया जा रहा है। अभी गली में क्रिकेट खेल रहा है। सुनेगा तो इतराने लगेगा। :-)
3. कूपमण्डूप तो भरतलाल हर्गिज नहीं है।
विद्वान और अनुभवी दोनों को का सामंजस्य ही
पूर्ण व्यक्तित्व निखारता है । आपसे सहमत हूँ, मित्र ! लेकिन एक बात और एक काल्पनिक चरित्र
की अवधारणा साहित्य को एकरसता से उबारता है । तो,इस विन्दु पर मैं भरतलाल के साथ हूँ । अब यह चरित्र गढ़ने वाले पर दारोमदार है कि वह उसे किस रूप में पेश करना चाहता है , सुपरमैन, ज़ेम्स बांड या डब्बूजी ।
किताबों की महत्ता को नकारना .....नो कमेन्ट !
Ek rochak kissa yaad Aaya. baat1996 ki hai. mai KNI se BSc kar raha tha. Weekend par gaon jata tha. Ek din jaise hi gaon ke bus stand par utra to bagal gaon ke Ek baba ji cycle paidal hi lekar jate hue mil gaye. in baba ji ka elake me bahut samman tha.bataya jata tha ki purane jamane ke intermediate hai. Unko dekhte hi swatah aadar bhav jhalak jata tha.pailgi ke uprant maine puncha kya hua baba?kaie paidal? kya bataun bachha.gaya tha goshaiganj. jaise hi goshaiganj se nikla, madha pul danka cycle bujri puncture ho gayi. maine sawaal daga phir banwaya nahi.arre bachha. banwaata kya? pul se utar kar punchur banane wale ke paas gya.pucha kitne paise loge. bataya 75 paise ek punchure ke? mol tol karke 65 paise par mamla pat gaya. Ek hi punchur tha. banakar chakka kas diya.maine usko saath paise diye.usne mana kar diya kaha waah baba bahut chalaal ho.ek to dus paise chudwa liye uske baad 5 paise kam bhi de rahe ho. humhon thaan lehen ki bachha ab deb tau sathay paisa deb. phir bachha u sasur manbai na karai. hum kahen yes aahay mistry tu aapan punchure khol leyya hum aapne ghare khuday banay leb.hum votne se jyada na deb.sasur bada jiddi raha ho.paanch paisa kam nay lihis saar punchur kholai laag. laag tau bada bura lakin hum kahen kholay deyya bachha ka.punchur khole lihis chakka bandh dihis vokre baab bhaiyya tata aawat rahi laden ab ehay aai kai pahuchat hayee. maine puncha baba tata par to aapke saath cycle ka alag se kiraya laga hoga. bahut hi swabhimanta se baba se sina chauda karke jabab diya. haan bachha paanch rupya aapan dehen teen rupya cykiliya kai magat raha lekin dehen duiyay. ab ghare pahunch gai hayee.sab saman haiyay ba.khuch khareeday ka thoday ba. hum kahen theek hai baba apke der hoti hoye. jaany ab ghare. baba ne han me han bhari.
maine kaha palagi baba
ashirbad bachha ashirbad... kahte hue nikal chuke the main bachat ke nayi paribhasaon se jugh raha tha.
Arvind chaturvedi
सहमत हूं . पर जब जीवन को सीधे देखने के अवसर उपलब्ध हों और आदमी उसे किताब के चश्मे से ही देखता रहे तो अलग किस्म के खतरे पैदा होते हैं . प्रेम कविताएं प्रेम का उदात्त रूप हमारे सामने रखतीं हैं पर सुहागरात को प्रेमकविता वास्तविक प्रेम का स्थानापन्न नहीं हो सकती . खेल पर किताब पढना मैदान में खेलने का विकल्प नहीं हो सकता . हां! यदि आप अच्छा खेलते हों तो खेल पर प्रामाणिक किताब लिखने की संभावना बढ जाती है .
जिसे एच.जी. वेल्स 'जॉली कोअर्सनेस ऑव लाइफ़' कहते हैं,उसके लिए कुछ जगह बची रहने दीजिए . 'आर्मचेयर इन्टेलेक्चुअल' उसे खत्म कर देने पर आमादा हैं . इसे मुंबई में रहने वाले अवध के खांटी बेटे अनिल से ज्यादा भला और कौन समझेगा .अच्छी चीज़ें 'कंडीशनिंग' से नहीं मुक्त मन से पैदा होती हैं .
आम जिंदगी में ज़रूरत के समय अनुभव-सम्पन्न मिस्त्री ज्यादा सफल होते देखे गए हैं,बजाय पोथी पढे इंजीनियरों के . इसे इंजीनियरिंग कॉलेज बंद करने की सलाह के रूप में न लिया जाए बल्कि उन्हें अधिक प्रत्यक्ष ज्ञान उपलब्ध कराने की अपील के रूप में देखा जाए . शास्त्रीय पोथियां बांचकर कविता लिखने वाले केशवदास जैसे कवियों से करखे पर बैठे कबीर की कविता इसी लिए दमदार है कि वह प्रत्यक्ष अनुभव की उपज है . तमाम इड़ा-पिंगला और मूलाधार-सहस्रार चक्र के बावजूद कबीर हमेशा 'कागद की लेखी' से 'आंखिन की देखी' को इसीलिए महत्वपूर्ण मानते रहे . किताबें बहुआयामी जीवन का एक मोटा-मोटी प्रारूप भर हैं -- एक रूढ प्रारूप -- जिसे पुनः कोई आंखिन देखी वाला दुरुस्त करता है,आगे पुनः दुरुस्त होने के लिए .
पुस्तकें अनुभवजन्य ज्ञान के विस्तार और विकीर्णन के लिए हैं,उनका विकल्प नहीं . कूपमंडूक की वीरगाथा के अलावा पुरानी बोधकथाओं में पुस्तकों के भार से लदे-फंदे एक भारवाही गधे का भी ज़िक्र है .