सारे इंसानों का एक इंसान होता तो पागल होता

महाभारत में कृष्ण ने अपना विराट स्वरूप दिखाया तो अर्जुन के सारे मोह और भ्रम दूर हो गए। ईश्वर के उस रूप में सारी सृष्टि समाहित थी, सारी मानवजाति समाहित थी। लेकिन मान लीजिए कि यह कल्पना नहीं, हकीकत होती और पूरी मानवजाति किसी एक व्यक्ति में समाहित होती तो क्या होगा? मुझे तो लगता है कि उस व्यक्ति को पागल करार देने में एक सेकेंड भी नहीं लगेंगे। इसलिए नहीं कि उसके दिमाग में कहीं गुस्से का ज्वालामुखी फट चुका होता और वह चीख-चिल्ला रहा होता। इसलिए तो कतई नहीं कि उसके दिमाग में इंसान की सारी अच्छाइयां भरी होतीं और वह सदाचार का पुतला बना होता। बल्कि इसलिए कि उसमें ये दोनों ही बातें एक जैसी प्रबलता से, एक ही साथ, एक ही समय होतीं। ठीक एक ही वक्त वह दानव भी होता और देव भी। हैवान भी होता और इंसान भी।

हम एक ऐसे प्राणी हैं जिसमें स्तब्ध कर देनेवाली दयालुता है। हम एक दूसरे का पालन-पोषण करते हैं, एक दूसरे से प्यार करते हैं, एक दूसरे के लिए रोते हैं। यहां तक कि अब तो हम अपने शरीर के अंग तक निकलवा कर दूसरों को देने लगे हैं। लेकिन इसके साथ ही साथ हम एक दूसरे की इतने भयानक तरीके से हत्याएं करते हैं कि खूंखार जानवर भी दहल जाए। हालांकि 15-20 साल मानवजाति के इतिहास में सेकेंड के खरबवें हिस्से के बराबर भी नहीं हैं। लेकिन ज़रा गौर कीजिए कि बीते 15-20 सालों में दुनिया में हिंसा की कैसी-कैसी भयंकर वारदातें हुई हैं।

कहीं युद्ध की विभीषिका तो कहीं आतंकवादियों के बम धमाके। यही नहीं, स्कूलों तक में हिंसा घुस आई है। अमेरिका या जर्मनी के किसी शहर के किसी स्कूल का बच्चा अचानक ऑटोमेटिक गन निकालकर अपने ही मासूम साथियों को गोलियों से छलनी कर देता है। ये सारे अपराध वो इंसान कर रहा है जिसे इस सृष्टि का सबसे बुद्धिमान, सबसे ज्यादा सिद्धांतवान, सबसे ज्यादा संवेदनशील प्राणी माना जाता है। लेकिन हम सबसे नीच, क्रूर, सबसे ज्यादा खून के प्यासे जीव जैसी हरकतें कर रहे हैं, जघन्यतम अपराध कर रहे हैं। यह हमारे लिए शर्म की बात है और यही हमारा पैरॉ़डॉक्स भी है, जिसको सुलझाना विज्ञान का काम है। लेकिन हमें भी इस पर गहराई से सोचना चाहिए।

वैसे, विज्ञान जैसे-जैसे विभिन्न प्राणियों के बर्ताव की तहों में उतर रहा है, यह मान्यता टूटती जा रही है कि हम दुनियी के सभी प्राणियों से न्यारे हैं, अनोखे हैं। हम तब तक खुद की पीठ इस बात पर थपथपाते रहे कि केवल हमारे पास भी भाषा है, जब तक हमें यह नहीं पता चला कि गोरिल्ला और चिम्पांजी भी संकेतों की भाषा में बात करते हैं। हम गफलत में थे कि केवल हम्हीं हैं जो औजारों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन पता चला कि बंदर पत्थरों से बीज को तोड़कर उसके अंदर का मुलायम हिस्सा निकालकर खाते हैं और चिम्पांजी बिलों से दीमकों को निकालने के लिए तिनकों का इस्तेमाल करते हैं।

फिर कौन-सी चीज़ ऐसी है जो हमें धरती की दूसरी प्रजातियों से अलग करती है? वह कौन-सी बात है जिसने हमें सृष्टि का राजकुमार बना रखा है? वह है नैतिकता की हमारी काफी उन्नत और अति विकसित धारणा। अच्छे और बुरे, गलत और सही की बुनियादी समझ। अपनी ही नहीं, दूसरों की तकलीफ की अनुभूति। नर्वस सिस्टम तो हमें केवल हमें अपनी ही पीड़ा का अहसास कराता है, लेकिन हम उससे आगे बढ़कर दूसरों की पीड़ा भी समझते हैं। यही गुण मानवजाति का, हमारे इंसान होने का संघनित निचोड़ (distilled essence) हैं, मूलाधार हैं। लेकिन यह मूलाधार अक्सर तहस-नहस क्यों हो जाता है, कोई नहीं बता सकता।

नोट : यूं ही नेट पर विचरते-विचरते एक दिन मुझे टाइम मैगज़ीन की साइट पर Jeffrey Kluger का बड़ा सा लेख मिल गया, जो नैतिकता की धारणा की छानबीन करता हैं। मैं भी इधर नैतिकता को समझने में लगा हूं तो पढ़ रहा हूं। इसी लेख पर आधारित एक टुकड़ा आज पेश किया है। इसी तरह धीरे-धीरे करके पूरे लेख की सारवस्तु से आपको वाकिफ करवाऊंगा, ऐसा मेरा वादा है।

Comments

Sandeep Singh said…
अनिल जी काफी गंभीर और अच्छे विषय का चयन किया आपने। लेख खुद को जानने-समझने को मजबूर करता है। कृष्ण में समाहित सृष्टि अर्जुन की हर जिज्ञासा का समाधान थी। लेकिन इस प्रेरक प्रसंग की वर्तमान में कल्पना डराने वाली दिखाई देती है। सचमुच एक समय में दोहरे चरित्र (या इससे अधिक)जीने वाला दुनिया की नज़रों में पागल ही होता है। हालांकि पागल के बारे में भी कई अवधाराणाएं हैं उनमें से एक है 'जो व्यवहारगत औपचारिकताओं का आवरण उतार कर फेंक देता है उसे लोग पागल कहते हैं'। वर्तमान में ये व्यवहारगत औपचारिकताएं भी गहन पड़ताल की गुजारिश करती हैं। लेख पीड़ाबोध(नैतिकता) के जिस मुकाम पर आकर ठहरा वो बिंदु नया न होते हुए भी पाठक को ठहरने सोचने पर मजबूर करता है। देखना ये है विषय प्रवर्तन लेख को कौन सा पड़ाव देता है। बधाई।
अनिलजी मेरा मानना है १५-२० की बजाय पिछली शताब्दी करदें तो ज्यादा सही होगा। पॉल पॉट , हिटलर, मुसोलिनी और इदी अमीन पिछले पन्द्रह बीस सालों में तो कम से कम नहीं ही हुए।
सहमत सा होता पा रहा हूं।

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