जब वह अन-रीचेबल हो गया अतल सागर में
हरहराते सागर के किनारे इन्हीं ऊंची-नीची चट्टानों में से किसी एक पर दोनों पैर जमाकर उसने एक दिन सागर को ललकारा था, “आओ समंदर। अपनी पूरी ताकत से, पूरे दमखम से आओ। अपनी सबसे वेगवान लहरों के साथ आओ। आओ मेरे घर आओ। मैं दोनों बांहें फैलाए सीना खोलकर तुम्हारे सामने खड़ा हूं। हिम्मत है तो पराजित करो मुझे। स्वीकार करो मेरा आतिथ्य।” आप हंस सकते हैं, लेकिन किशोर अंदर से ऐसा ही था। भावुक और जिद्दी। हालात ने शुरू से ही उसका साथ नहीं दिया। लेकिन हालात से लड़ने का जबरदस्त माद्दा था उसमें।
प्राची मिली तो लगा कि हर तरफ खुशबूदार फूलों के असंख्य पराग-कण बिखर गए हैं। लेकिन इस मिलन के बाद राह आसान होने के बजाय और कठिन होती गई। उस दिन जब उसने समुद्र को ललकारा था तब प्राची उसकी उठी हुई फैली बांहों को कंधे से पकड़कर ठीक पीछे खड़ी थी। इससे पहले प्राची ने अपनी और अपने घर-परिवार की दिक्कतें उसे सुनाई थीं। रिश्ते में आनेवाली बड़ी-बड़ी मुश्किलों का जिक्र किया था। असल में उस दिन किशोर ने सागर के बहाने इन्हीं मुश्किलों को ललकारा था।
लेकिन उसे क्या पता था कि समंदर उसकी बात को इस कदर दिल पर ले लेगा। ये अलग बात है कि उसने हमेशा अपने को बाली और सागर को प्रतिद्वंद्वी के रूप में ही देखा। उसे लगता था कि सागर से वह जितना ज्यादा मोर्चा लेगा, सागर की उतनी ही ज्यादा ताकत उसके अंदर आती जाएगी। लेकिन सागर तो सुग्रीव से भी बदतर निकला। जब वो प्राची के साथ दुनिया-जहान से बहुत ऊपर उठकर कहीं बादलों के बीच प्यार के पर्वतों पर कुलांचे भर रहा था, जब उसके शरीर के रोम-रोम से पीले, नारंगी, सुनहरे, नीले और हरे रंग के पराग कण निकल रहे थे, तभी सागर ने अपनी लहरें फैलाकर अनजाने में उस पर पीठ-पीछे वार कर दिया। किशोर के साथ उसकी माशूका प्राची का भी वध कर दिया। किशोर आज जिंदा होता तो ज़रूर कहता, “सागर, तुम से ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी। यह तो नीचता की हद है।”
दोस्त बताते हैं कि किशोर ने कभी भी समुद्र को समुद्र नहीं समझा। उसे प्राकृतिक संरचना के रूप में नहीं, बल्कि हमेशा किसी न किसी मानवीकृत प्रतीक के रूप में ही देखा। बचपन से ही समुद्र किनारे रहने के बावजूद कभी समुद्र में तैरना सीखने की जरूरत नहीं समझी। नहीं समझा कि हर 12 घंटे पर बदलनेवाला समुद्र का मिजाज कितना खतरनाक होता है। नहीं जाना कि ज्वार-भाटा के दौरान समुद्र के किनारे की ये चट्टानें कितनी जानलेवा हो जाती हैं। जबकि उसी दिन जब वो प्राची के साथ समुद्र के किनारे जा रहा था, तब संतोष ने उसे समझाया था कि वह ज़रा सावधान रहे क्योंकि ‘टाइड के टाइम पर ये रॉक्स बहुत डैंजर’ हो जाती हैं। संतोष ने उसे अपना दो साल पुराना अनुभव भी बताया था, जब वह अपनी दोस्त के साथ वहां से किसी तरह सही-सलामत निकल पाया था।
उस दिन किशोर की सलामती की फिक्र उसके सभी दोस्तों को थी। रविवार को सुबह दस बजे प्राची के साथ घर से निकला किशोर जब दो बजे तक बस्ती में नहीं लौटा तो वे परेशान हो गए। घर पर पूछा तो वहां से भी कोई खबर नहीं मिली। उन्होंने बार-बार किशोर के मोबाइल पर संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उधर से हमेशा ‘अन-रीचेबल’ का जवाब मिलता। तभी किसी ने बताया कि टीवी पर किशोर की तस्वीर दिखाई जा रही है और वह समुद्र में डूबकर मर चुका है। प्राची की लाश भी समुद्र से निकाली जा चुकी है। हर तरफ मातम छा गया। दोस्तों को लगा कि मोबाइल सही ही कह रहा था, किशोर अब अन-रीचेबल हो गया है।
किशोर और प्राची के शव देर शाम तक बस्ती में ले आए गए। अगले ही दिन दोनों का अंतिम संस्कार कर दिया गया। लेकिन पुलिस को न तो किशोर के मोबाइल को ढूंढ निकालने में कोई दिलचस्पी थी और न ही उसने इसकी कोई कोशिश की। क्या जाने किशोर जब अपनी सांसें बचाने के लिए लहरों से लड़ रहा होगा, तभी उसका मोबाइल उसकी जेब से खिसक लिया होगा। समुद्र का पानी फिर उसे रुई के फाहे की तरह सोखता गया, खींचता ही गया। और फिर कहीं सागर की अतल गहराइयों में बसी काइयों में पहुंचकर वह गुम हो गया, अन-रीचेबल हो गया।
बहुत से प्रेमी-प्रेमिका जब साथ-साथ जी नहीं पाते तो साथ-साथ मरने की ख्वाहिश पाल लेते हैं। लेकिन किशोर और प्राची ने ज़िंदगी की ही ख्वाहिश पाली थी, मौत की नहीं। आखिर अभी उनकी उम्र ही क्या थी? किशोर बीस साल का था तो प्राची सत्ररह की। इधर हालात भी काफी सुधर चुके थे। शुरुआती विरोध के बाद प्राची के मां-बाप ने अब उनका रिश्ता मंजूर कर लिया था। किशोर के अपने घर में विरोध होने की कोई गुंजाइश नहीं थी। पिता बचपन में ही गुजर गए थे। मां तो पूरी तरह गऊ है। भाई बस एक साल बड़ा है। वो तो यार है, वो क्या बोलता? फिर छह महीने पहले जब से बड़े भाई की तरह वह भी काम पर लग गया, 12000 रुपए की पगार पर नौकरी करने लगा तो घर में उसकी बात और ज्यादा मानी जाने लगी। वैसे, पहले भी उसकी बात मानी जाती थी क्योंकि पिता की मौत के बाद उसने घर संभालने में बड़े भाई का पूरा साथ दिया था।
प्राची भी ज़िंदगी और जुझारूपन से लबालब भरी लड़की थी। घर की कमज़ोर हालत के बावजूद पढ़ते-पढ़ते बारहवीं तक पहुंच चुकी थी। औरों का ख्याल रखना जानती थी और अपना भी ख्याल रखना उसे आता था। शायद यही वजह थी कि अपने से साल भर बड़ी बहन स्नेहल से भी वह देखने में बड़ी लगने लगी थी। वह स्नेहल से हमेशा इस बात को लेकर लड़ती कि, “वह छोटी है तो क्या हुआ! क्या उसे हमेशा बडी़ बहन के कपड़ों और किताबों से काम चलाना पड़ेगा?” आज स्नेहल उसे पुकारती हुई कहती है – ले ले प्राची, मेरे सारे नए कपड़े, मेरी सारी नई चीजें तू ले ले। मैं तेरी झूठन भी खा लूंगी। बस तू लौटकर आ जा।
स्नेहल को मालूम है कि प्राची अब कभी लौटकर नहीं आएगी। किशोर के बड़े भाई विनोद को भी पता है कि उसका टूटा कंधा अब कभी साथ देने नहीं आएगा। लेकिन वह किशोर पर गुस्सा करता है। कहता है, “चला था बड़ों की तरह वैलेंटाइन डे मनाने। अरे 14 फरवरी को दफ्तर से छुट्टी नहीं मिली तो कोई ज़रूरी था कि चार दिन पहले रविवार को ही उसे मना डालते। ज़िंदगी भर साथ चलना था। एक दिन साथ नहीं चलते तो क्या घट जाता?” मैं विनोद के दर्द को समझता हूं, लेकिन उसकी राय से इत्तेफाक नहीं रखता। किशोर आज के ज़माने का नौजवान था। अगर आज की हर लहर ने उसे अपने आगोश में ले लिया था तो इसमें उसका क्या कसूर?
हां, अफसोस बस एक बात का है कि बीस साल के किशोर को अभी बहुत-से रिश्ते निभाने थे, बहुत-से काम करने थे। … चलिए वो नहीं तो कोई और सही। दुनिया में कोई काम किसी के बगैर कहीं रुकता है क्या?
तस्वीर साभार: Soller Photo
प्राची मिली तो लगा कि हर तरफ खुशबूदार फूलों के असंख्य पराग-कण बिखर गए हैं। लेकिन इस मिलन के बाद राह आसान होने के बजाय और कठिन होती गई। उस दिन जब उसने समुद्र को ललकारा था तब प्राची उसकी उठी हुई फैली बांहों को कंधे से पकड़कर ठीक पीछे खड़ी थी। इससे पहले प्राची ने अपनी और अपने घर-परिवार की दिक्कतें उसे सुनाई थीं। रिश्ते में आनेवाली बड़ी-बड़ी मुश्किलों का जिक्र किया था। असल में उस दिन किशोर ने सागर के बहाने इन्हीं मुश्किलों को ललकारा था।
लेकिन उसे क्या पता था कि समंदर उसकी बात को इस कदर दिल पर ले लेगा। ये अलग बात है कि उसने हमेशा अपने को बाली और सागर को प्रतिद्वंद्वी के रूप में ही देखा। उसे लगता था कि सागर से वह जितना ज्यादा मोर्चा लेगा, सागर की उतनी ही ज्यादा ताकत उसके अंदर आती जाएगी। लेकिन सागर तो सुग्रीव से भी बदतर निकला। जब वो प्राची के साथ दुनिया-जहान से बहुत ऊपर उठकर कहीं बादलों के बीच प्यार के पर्वतों पर कुलांचे भर रहा था, जब उसके शरीर के रोम-रोम से पीले, नारंगी, सुनहरे, नीले और हरे रंग के पराग कण निकल रहे थे, तभी सागर ने अपनी लहरें फैलाकर अनजाने में उस पर पीठ-पीछे वार कर दिया। किशोर के साथ उसकी माशूका प्राची का भी वध कर दिया। किशोर आज जिंदा होता तो ज़रूर कहता, “सागर, तुम से ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी। यह तो नीचता की हद है।”
दोस्त बताते हैं कि किशोर ने कभी भी समुद्र को समुद्र नहीं समझा। उसे प्राकृतिक संरचना के रूप में नहीं, बल्कि हमेशा किसी न किसी मानवीकृत प्रतीक के रूप में ही देखा। बचपन से ही समुद्र किनारे रहने के बावजूद कभी समुद्र में तैरना सीखने की जरूरत नहीं समझी। नहीं समझा कि हर 12 घंटे पर बदलनेवाला समुद्र का मिजाज कितना खतरनाक होता है। नहीं जाना कि ज्वार-भाटा के दौरान समुद्र के किनारे की ये चट्टानें कितनी जानलेवा हो जाती हैं। जबकि उसी दिन जब वो प्राची के साथ समुद्र के किनारे जा रहा था, तब संतोष ने उसे समझाया था कि वह ज़रा सावधान रहे क्योंकि ‘टाइड के टाइम पर ये रॉक्स बहुत डैंजर’ हो जाती हैं। संतोष ने उसे अपना दो साल पुराना अनुभव भी बताया था, जब वह अपनी दोस्त के साथ वहां से किसी तरह सही-सलामत निकल पाया था।
उस दिन किशोर की सलामती की फिक्र उसके सभी दोस्तों को थी। रविवार को सुबह दस बजे प्राची के साथ घर से निकला किशोर जब दो बजे तक बस्ती में नहीं लौटा तो वे परेशान हो गए। घर पर पूछा तो वहां से भी कोई खबर नहीं मिली। उन्होंने बार-बार किशोर के मोबाइल पर संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उधर से हमेशा ‘अन-रीचेबल’ का जवाब मिलता। तभी किसी ने बताया कि टीवी पर किशोर की तस्वीर दिखाई जा रही है और वह समुद्र में डूबकर मर चुका है। प्राची की लाश भी समुद्र से निकाली जा चुकी है। हर तरफ मातम छा गया। दोस्तों को लगा कि मोबाइल सही ही कह रहा था, किशोर अब अन-रीचेबल हो गया है।
किशोर और प्राची के शव देर शाम तक बस्ती में ले आए गए। अगले ही दिन दोनों का अंतिम संस्कार कर दिया गया। लेकिन पुलिस को न तो किशोर के मोबाइल को ढूंढ निकालने में कोई दिलचस्पी थी और न ही उसने इसकी कोई कोशिश की। क्या जाने किशोर जब अपनी सांसें बचाने के लिए लहरों से लड़ रहा होगा, तभी उसका मोबाइल उसकी जेब से खिसक लिया होगा। समुद्र का पानी फिर उसे रुई के फाहे की तरह सोखता गया, खींचता ही गया। और फिर कहीं सागर की अतल गहराइयों में बसी काइयों में पहुंचकर वह गुम हो गया, अन-रीचेबल हो गया।
बहुत से प्रेमी-प्रेमिका जब साथ-साथ जी नहीं पाते तो साथ-साथ मरने की ख्वाहिश पाल लेते हैं। लेकिन किशोर और प्राची ने ज़िंदगी की ही ख्वाहिश पाली थी, मौत की नहीं। आखिर अभी उनकी उम्र ही क्या थी? किशोर बीस साल का था तो प्राची सत्ररह की। इधर हालात भी काफी सुधर चुके थे। शुरुआती विरोध के बाद प्राची के मां-बाप ने अब उनका रिश्ता मंजूर कर लिया था। किशोर के अपने घर में विरोध होने की कोई गुंजाइश नहीं थी। पिता बचपन में ही गुजर गए थे। मां तो पूरी तरह गऊ है। भाई बस एक साल बड़ा है। वो तो यार है, वो क्या बोलता? फिर छह महीने पहले जब से बड़े भाई की तरह वह भी काम पर लग गया, 12000 रुपए की पगार पर नौकरी करने लगा तो घर में उसकी बात और ज्यादा मानी जाने लगी। वैसे, पहले भी उसकी बात मानी जाती थी क्योंकि पिता की मौत के बाद उसने घर संभालने में बड़े भाई का पूरा साथ दिया था।
प्राची भी ज़िंदगी और जुझारूपन से लबालब भरी लड़की थी। घर की कमज़ोर हालत के बावजूद पढ़ते-पढ़ते बारहवीं तक पहुंच चुकी थी। औरों का ख्याल रखना जानती थी और अपना भी ख्याल रखना उसे आता था। शायद यही वजह थी कि अपने से साल भर बड़ी बहन स्नेहल से भी वह देखने में बड़ी लगने लगी थी। वह स्नेहल से हमेशा इस बात को लेकर लड़ती कि, “वह छोटी है तो क्या हुआ! क्या उसे हमेशा बडी़ बहन के कपड़ों और किताबों से काम चलाना पड़ेगा?” आज स्नेहल उसे पुकारती हुई कहती है – ले ले प्राची, मेरे सारे नए कपड़े, मेरी सारी नई चीजें तू ले ले। मैं तेरी झूठन भी खा लूंगी। बस तू लौटकर आ जा।
स्नेहल को मालूम है कि प्राची अब कभी लौटकर नहीं आएगी। किशोर के बड़े भाई विनोद को भी पता है कि उसका टूटा कंधा अब कभी साथ देने नहीं आएगा। लेकिन वह किशोर पर गुस्सा करता है। कहता है, “चला था बड़ों की तरह वैलेंटाइन डे मनाने। अरे 14 फरवरी को दफ्तर से छुट्टी नहीं मिली तो कोई ज़रूरी था कि चार दिन पहले रविवार को ही उसे मना डालते। ज़िंदगी भर साथ चलना था। एक दिन साथ नहीं चलते तो क्या घट जाता?” मैं विनोद के दर्द को समझता हूं, लेकिन उसकी राय से इत्तेफाक नहीं रखता। किशोर आज के ज़माने का नौजवान था। अगर आज की हर लहर ने उसे अपने आगोश में ले लिया था तो इसमें उसका क्या कसूर?
हां, अफसोस बस एक बात का है कि बीस साल के किशोर को अभी बहुत-से रिश्ते निभाने थे, बहुत-से काम करने थे। … चलिए वो नहीं तो कोई और सही। दुनिया में कोई काम किसी के बगैर कहीं रुकता है क्या?
तस्वीर साभार: Soller Photo
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विजय कुमार की कविता की एक पंक्ति याद आ गई-
जिनके घर नहीं थे समंदर के किनारे
वे अपने दुखों को उसमें डुबो नहीं पाए.
लत्तों की तरह बोरों में ठुंसे हुए दुख, उससे झांकते हुए-से, क्या समंदर की तलहटी से बहुत क़ुरबत रखते हैं?
गुस्ताख़ी माफ़
मगर एक बात आपसे कहना चाहूंगा। सच में किसी के जाने से कोई काम कभी नहीं रुकता। मगर जाने वालों की कमी हमेशा ख़लती रहती है। कलेजे में रह-रहकर टीस बनकर उठती है और फिर से रुदन जैसा प्रलय आता है।