नास्तिक निराला तक सरस्वती के आराधक थे

हर बसंत पंचमी को निराला और इलाहाबाद बहुत याद आते हैं। बसंत पंचमी का मतलब इलाहाबाद में पढ़ने के दौरान ही समझा क्योंकि महाप्राण निराला का जन्मदिन हम लोग पूरे ढोल-मृदंग के साथ इसी दिन मनाते थे। हिंदुस्तानी एकेडमी या कहीं और शहर के तमाम स्थापित साहित्यकारों और नए साहित्य प्रेमियों का जमावड़ा लगता था। निराला की कविताएं बाकायदा गाई जाती थीं। नास्तिक होते हुए भी हम वीणा-वादिनी से वर मांगते थे और अंदर ही अंदर भाव-विभोर हो जाते थे।

सोचने की ज़रूरत भी नहीं समझते थे कि जो सूर्यकांत त्रिपाठी निराला संगम से मछलियां पकड़कर लाने के बाद दारागंज में हनुमान मंदिर की ड्योढी़ पर मछलियों का मुंह खोलकर भगवान और पंडितों को चिढ़ाते थे, वो मां सरस्वती की वंदना कैसे लिख सकते हैं। बाद में समझ में आया कि सरस्वती तो बस सृजनात्मकता की प्रतीक हैं। जिस बसंत में पाकिस्तान में जबरदस्त उत्सव मनाया जाता है, उस बसंत की पंचमी का रंग भगवा नहीं हो सकता। यह सभी के लिए बासंती रंग में रंग जाने का उत्सव है, सृजन के अवरुद्ध द्वारों को खोलने का अवसर है।

इस अवसर पर अगर निराला की कविता का पाठ नहीं किया तो बहुत अधूरापन लगेगा। इसलिए चलिए कहते हैं काट अंध उर के बंधन स्तर, बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर...

वर दे वीणा-वादिनी वर दे।
प्रिय स्वतंत्र रव, अमृत मंत्र नव
भारत में भर दे।

काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे।
वर दे वीणा-वादिनी वर दे...

नव गति नव लय ताल-छंद नव
नवल कंठ नव जलद मंद्र रव
नव नभ के नव विहग वृंद को
नव पर नव स्वर दे।
वर दे वीणा-वादिनी वर दे...

Comments

Unknown said…
सच, मुझे भी बहुत याद आता है मेरा शहर इलाहाबाद।
azdak said…
सही है..
अच्छी याद दिलाई । बचपन से बडे होने तक इसे कितनी ही बार मंच पर गाया है। हमारे पिता ने इसकी धुन भी बड़ी सुंदर बनाई थी। वर दे, वर दे , वर दे...के साथ लगातार ऊंचे होते जाते सुर...चाहे राजगढ़ कस्बे का मंच हो या हरिद्वार की वाणी संस्था के मंच पर राजेन्द्र माथुर का अभिनंदन...ये गीत हमने खूब गाया है। आज आपने याद दिलाया तो अच्छा लगा।
निराला का यह सरस्वती-वन्दन विलक्षण है। बाकी, आस्तिक-नास्तिक के खांचे में मां सरस्वती को डालना आस्तिक को चिढ़ाते हुये पोस्ट का हुसैनाइजेशन है!
Sanjay Tiwari said…
मैंने तो बचपन में खूब प्रार्थना गाई या कुन्देदुतु सारहार धवला......अभी भी गाता हूं बुद्धि मौज में आ जाती है.
अपनी जान से प्यारी सुपुत्री "सरोज " की असमय काल के मुख जाने के कारण निराला जी का हाव भाव नास्तिकता जैसा जरूर था और ऐसा एक बार सबमे होता है . ऐसा मैं कहीं से नही मानता की निराला जी
नास्तिक थे. कहा जा सकता है जो सृजन करता रहता है वो सृष्टि के सृजनकर्ता को भुला नही पाता .
मैं इलाहाबाद स्टेशन तक ही गया हूँ. पर निराला जी को जानता हूँ ,उनकी ही रचना से "राम की शक्ति पूजा" "सरोज स्मृति " भिक्षुक " सरस्वती वंदना " और सबसे बड़े आलोचक राम विलास शर्मा को उन पर पढ़ा हूँ .
शायद आप इस बार अपने विश्लेषण मे चुके हुए लगते हैं श्रीमान , मुझे तो नही लगता की आप नास्तिक हैं .
निराला जी को याद किया इसके लिए आभारी हूँ. नास्तिक कहा इसलिए दो सप्ताह तक आपको नही पढ़ने की
सोंच लिया हूँ.
Priyankar said…
निराला की इस रचना 'वीणा वादिनी वर दे' को विख्यात संगीताचार्य पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ऋग्वेद के पश्चात सरस्वती की अभ्यर्थना में लिखी गई सर्वश्रेष्ठ रचना मानते थे .
Unknown said…
अनिल भाई याद दिलाने के लिए धन्यावाद
Krishan Sharma said…
अजित जी सादर नमस्कार ।
कृपया आप मुझे अपनी आवाज में audio भेज दें।
मैं आपका आभारी रहुँगा।
mr.krisv@yahoo.in
08607986949
archna thakur said…
कृप्या कोई ईस कविता का हिन्दी अनुवाद मुझे बता सकता है।

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