लालू ने यात्रियों से 1000 करोड़ नाजायज़ वसूले
लालू प्रसाद यादव अगर रेलमंत्री हैं तो रेल महकमे की सारी चालबाजियों की जवाबदेही उन्हीं की बनती है। क्या वे बताएंगे कि जिस संरक्षा सरचार्ज को 31 मार्च 2007 को खत्म हो जाना चाहिए, वह अभी तक रेल यात्रियों से क्यों वसूला जा रहा है? वह भी अनजाने में नहीं, बल्कि जानबूझकर क्योंकि संरक्षा सरचार्ज के नाम से कानूनन इसे वसूलना संभव नहीं था तो इसका नाम समर्पित माल कोरिडोर प्रोजेक्ट का विकास शुल्क कर दिया गया है। रेलवे बोर्ड पूरे मंत्रालय की जानकारी में जनवरी 2007 में ही यह फैसला कर चुका था। लेकिन लालू प्रसाद यादव ने 26 फरवरी 2007 को साल 2007-08 का रेल बजट पेश करते वक्त इसका जिक्र तक करना ज़रूरी नहीं समझा।
अगर रेलवे की स्थाई संसदीय समिति नहीं होती तो देश और सवारियों के साथ लालू के इस ‘फ्रॉड’ पर किसी की नज़र ही नहीं पड़ती! आज ही इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट के मुताबिक संसदीय समिति ने लगातार दो रिपोर्टों में रेल मंत्रालय को आगाह किया था कि वह यह सिलसिले को रोके। लेकिन मंत्रालय ने कहा कि इतने शुल्क ने यात्री किराए पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा।
हकीकत यह है कि संरक्षा (safety surcharge) अधिभार के तहत यात्रियों से दूरी और क्लास के आधार पर किराए के ऊपर 1 से 100 रुपए वसूले जाते रहे हैं। पिछले साल इससे रेलवे ने 850 करोड़ रुपए जुटाए थे और इस साल इसके आराम से 1000 करोड़ रुपए तक रहने का अनुमान है। संसदीय समिति ने इस बाबत प्रधानमंत्री कार्यालय से भी शिकायत की है। लेकिन सवाल उठता है कि संसद और सरकार को धोखे में रखकर यात्रियों की जेब काटने वाले लालू और उनके महकमे के आला अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई हो भी सकती है या नहीं?
शायद कुछ भी नहीं होगा। रुपया, दो रुपया, दस रुपया या 100-100 रुपया करके आम यात्रियों से की गई 1000 करोड़ रुपए की इस नाजायज वसूली पर परदा डाल दिया जाएगा क्योंकि अलग-अलग यात्रियों से ली गई राशि मामूली है और यात्रियों का कोई सामूहिक पैरोकार नहीं है। प्रधानमंत्री कार्यालय भी रेल मंत्रालय से हल्का-फुल्का जवाब मांगने की कागजी खानापूरी करके पीछे हट जाएगा। और संसदीय समितियों का काम तो बस भौंकना है, उनके काटने के दांत हैं ही नहीं। उसको भौकना था, चेताना था, चेता दिया।
पूरा मामला यह है कि साल 2001 में रेलवे की पटरियों, पुलों, सिग्नलों और संचार उपकरणों की समीक्षा के बाद एक समिति ने 17,000 करोड़ रुपए का विशेष रेल संरक्षा कोष (Special Railway Safety Fund) बनाने की सिफारिश की थी। फौरन यह कोष बना दिया गया और तय हुआ कि यह रकम 2001-02 से 2006-07 तक छह सालों में जुटाई जाएगी। इसमें से 12,000 करोड़ रुपए केंद्र सरकार के बजटीय समर्थन से मिलने थे, जबकि 5,000 करोड़ रुपए यात्रियों से संरक्षा अधिभार के रूप में लेने का फैसला हुआ। केंद्र सरकार रेलवे को अपना हिस्सा दे चुकी है और यात्रियों से मार्च 2007 तक तय रकम वसूली जा चुकी है।
इसके बाद यह शुल्क तभी जारी रह सकता था, जब लालू यादव रेल बजट में इसकी घोषणा करते और संसद इसे पास करती। लेकिन लालू ने इसकी कोई ज़रूरत नहीं समझी। क्या करें, आदत से मजबूर हैं। चुपचाप जनता का पैसा गड़प कर जाने का पुराना चस्का है। उसी से तो अरबों की अवैध संपत्ति खड़ी की है। लालू को ये भी पता है कि इस देश का कानून और अदालतें सत्ता में रहते हुए उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। चारा घोटाले का मामला चल रहा है या खत्म हो गया, पता नहीं। लालू अभी तक बरी होते आ रहे हैं। सबको साफ नजर आता है कि उनके पास आय से अधिक संपत्ति है। लेकिन मुकदमे दायर होते हैं और मामला टांय-टांय फिस्स हो जाता है। क्या कीजिएगा। हमारे लोकतंत्र की यही तो खासियत है।
अगर रेलवे की स्थाई संसदीय समिति नहीं होती तो देश और सवारियों के साथ लालू के इस ‘फ्रॉड’ पर किसी की नज़र ही नहीं पड़ती! आज ही इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट के मुताबिक संसदीय समिति ने लगातार दो रिपोर्टों में रेल मंत्रालय को आगाह किया था कि वह यह सिलसिले को रोके। लेकिन मंत्रालय ने कहा कि इतने शुल्क ने यात्री किराए पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा।
हकीकत यह है कि संरक्षा (safety surcharge) अधिभार के तहत यात्रियों से दूरी और क्लास के आधार पर किराए के ऊपर 1 से 100 रुपए वसूले जाते रहे हैं। पिछले साल इससे रेलवे ने 850 करोड़ रुपए जुटाए थे और इस साल इसके आराम से 1000 करोड़ रुपए तक रहने का अनुमान है। संसदीय समिति ने इस बाबत प्रधानमंत्री कार्यालय से भी शिकायत की है। लेकिन सवाल उठता है कि संसद और सरकार को धोखे में रखकर यात्रियों की जेब काटने वाले लालू और उनके महकमे के आला अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई हो भी सकती है या नहीं?
शायद कुछ भी नहीं होगा। रुपया, दो रुपया, दस रुपया या 100-100 रुपया करके आम यात्रियों से की गई 1000 करोड़ रुपए की इस नाजायज वसूली पर परदा डाल दिया जाएगा क्योंकि अलग-अलग यात्रियों से ली गई राशि मामूली है और यात्रियों का कोई सामूहिक पैरोकार नहीं है। प्रधानमंत्री कार्यालय भी रेल मंत्रालय से हल्का-फुल्का जवाब मांगने की कागजी खानापूरी करके पीछे हट जाएगा। और संसदीय समितियों का काम तो बस भौंकना है, उनके काटने के दांत हैं ही नहीं। उसको भौकना था, चेताना था, चेता दिया।
पूरा मामला यह है कि साल 2001 में रेलवे की पटरियों, पुलों, सिग्नलों और संचार उपकरणों की समीक्षा के बाद एक समिति ने 17,000 करोड़ रुपए का विशेष रेल संरक्षा कोष (Special Railway Safety Fund) बनाने की सिफारिश की थी। फौरन यह कोष बना दिया गया और तय हुआ कि यह रकम 2001-02 से 2006-07 तक छह सालों में जुटाई जाएगी। इसमें से 12,000 करोड़ रुपए केंद्र सरकार के बजटीय समर्थन से मिलने थे, जबकि 5,000 करोड़ रुपए यात्रियों से संरक्षा अधिभार के रूप में लेने का फैसला हुआ। केंद्र सरकार रेलवे को अपना हिस्सा दे चुकी है और यात्रियों से मार्च 2007 तक तय रकम वसूली जा चुकी है।
इसके बाद यह शुल्क तभी जारी रह सकता था, जब लालू यादव रेल बजट में इसकी घोषणा करते और संसद इसे पास करती। लेकिन लालू ने इसकी कोई ज़रूरत नहीं समझी। क्या करें, आदत से मजबूर हैं। चुपचाप जनता का पैसा गड़प कर जाने का पुराना चस्का है। उसी से तो अरबों की अवैध संपत्ति खड़ी की है। लालू को ये भी पता है कि इस देश का कानून और अदालतें सत्ता में रहते हुए उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। चारा घोटाले का मामला चल रहा है या खत्म हो गया, पता नहीं। लालू अभी तक बरी होते आ रहे हैं। सबको साफ नजर आता है कि उनके पास आय से अधिक संपत्ति है। लेकिन मुकदमे दायर होते हैं और मामला टांय-टांय फिस्स हो जाता है। क्या कीजिएगा। हमारे लोकतंत्र की यही तो खासियत है।
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