नोटों की नीति : जेब कटी हमारी, मौज हुई उनकी

महंगाई के लिए दोषी है सरकार, सरकार और सिर्फ सरकार। सीधा-सा गुणा-भाग है कि सिस्टम में नोट ज्यादा हों जाएंगे और चीजें उतनी ही रहेंगी तो हर चीज के लिए नियत नोट बढ़ जाएंगे। जैसे, जब सिस्टम में 100 रुपए थे और 10 चीजें थीं तो औसतन हर चीज के लिए थे 10 रुपए। लेकिन जब सिस्टम में 150 रुपए आ गए और चीजें 10 ही रहीं तो औसतन हर चीज के लिए 15 रुपए हो गए। हम आपको बता दें कि हमारे रिजर्व बैंक ने अप्रैल 2006 से जनवरी 2007 के बीच सिस्टम में 56,543 करोड़ रुपए डाले हैं और उसने ऐसा किया है देश में आए 1260 करोड़ अमेरिकी डॉलर खरीदने के लिए। अगर वो ये डॉलर नहीं खरीदता तो देश में जो डॉलर अभी लगभग 44 रुपए का मिल रहा है, वह शायद 40 रुपए में मिलने लगता यानी डॉलर के सापेक्ष रुपया महंगा हो जाता, उसका अधिमूल्यन हो जाता। लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक ऐसा नहीं चाहता। क्यों नहीं चाहता? ...क्योंकि इससे भारत से निर्यात किया गया माल डॉलर में खरीद करनेवालों के लिए महंगा हो जाएगा।
मसलन, भारत की जिस शर्ट की कीमत अमेरिका में 440 रुपए है, उसके लिए अभी अमेरिकी ग्राहक को 10 डॉलर देने होंगे। लेकिन अगर रुपया महंगा हो गया होता तो इसी शर्ट के लिए उसे 11 डॉलर देने पड़ते। यानी, रिजर्व बैंक के बाजार से डॉलर खरीद लेने से अमेरिकी ग्राहक के लिए भारतीय माल 10 फीसदी महंगा होने से बच गया।
अब देखते हैं कि भारत के रिजर्व बैंक ने भारतीय ग्राहकों के लिए क्या किया है। उसको ये तो पता ही था कि सिस्टम में ज्यादा नोट होंगे और मांग उतनी ही रही तो महंगाई बढ़ जाएगी। इसलिए उसने सोचा कि घरेलू मांग को ही काट दिया जाए। इसके लिए वो बैंकों में नोटों के पहुंचने पर रोकथाम लगाने लगा, सीआरआर बढ़ा दिया, रिवर्स रेपो रेट बढ़ा दिया। इससे बैंकों के लिए नोट जुटाना महंगा हो गया। बैंकों ने मजबूरन पलटकर ब्याज दरें बढ़ा दीं। नतीजतन, देश में हर तरह का लोन अब महंगा हो गया है। रिजर्व बैंक ने मान लिया था कि ब्याज दरें बढ़ेंगी तो मांग घट जाएगी और मांग घट जाएगी तो सिस्टम में आए ज्यादा नोटों से महंगाई नहीं बढ़ेगी। लेकिन उसकी ये आस महज सदिच्छा बनकर रह गई है। महंगाई की दर 6 फीसदी से बढ़कर सरकार और रिजर्व बैंक को मुंह चिढ़ा रही है। रोजमर्रा की चीजों से लेकर लोन की ईएमआई के बढ़ने से आम से लेकर खास लोग तक कराह रहे हैं।
दिक्कत ये है कि रिजर्व बैंक ने जिस निर्यात को सस्ता बनाए रखने के लिए सिस्टम में करोड़ों रुपए झोंके थे, वो मकसद भी नहीं पूरा हो सका क्योंकि घरेलू महंगाई बढ़ने से निर्यातकों की लागत बढ़ गई और घाटे पर तो वो अपना माल बाहर भेज नहीं सकते। इसलिए दुनिया के बाजार में हमारे निर्यातकों के टिक पाने की क्षमता घट गई।
इस तरह रिजर्व बैंक ने नोटों की जो नीति अपनाई है, उसका हश्र ये है कि न खुदा ही मिला, न बिसाले सनम। अमेरिका और यूरोप के ग्राहकों के लिए भारतीय माल को सस्ता रखने की कोशिश भारतीय ग्राहकों के लिए महंगाई का सबब बन गई है। हकीकत ये है कि आज भारतीय ग्राहक विदेशी ग्राहकों को सब्सिडाइज कर रहा है। अगर आज हमारी जेब कट रही है तो इस जेब से निकले नोटों का फायदा विदेशी ग्राहक को मिल रहा है। ये है हमारी सरकार और रिजर्व बैंक का भारत और भारतीयता प्रेम।
इंडियन एक्सप्रेस के 20 मार्च 2007 के अंक में छपे इला पटनायक के लेख पर आधारित। इला पटनायक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में सीनियर रिसर्च फेलो हैं। उनका ई-मेल पता है : ilapatnaik@gmail.com

Comments

Atul Arora said…
इसे कहते हैं चिठ्ठाकारी। साधुवाद ऐसी नायाब खोज सामने लाने पर।
मैने पढ़े आज तक के सबसे बेहतर चिट्ठों में से एक!! अति सुन्दर
आपसे और भी अच्छॆ लेखों की उम्मीद है।

॥दस्तक॥
ePandit said…
This comment has been removed by the author.

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