पीआर में माहिर हमारे संपादक एचआर नहीं जानते

चौदह नौकरियों और तेरह इस्तीफों के बाद मुझे अब तक अलविदा मेल लिखने की कला में माहिर हो जाना चाहिए था। लेकिन इस मामले में मैं अब भी वैसा ही कच्चा हूं जैसा 23 साल पहले अपना पहला विदाई संदेश लिखते वक्त था। सोचता हूं कि बार-बार मुझे अपनी नौकरी को अलविदा क्यों करना पड़ता है। हालांकि पिछले साल भर से टीवी न्यूज़ का जो हाल हुआ है, उसे देखते हुए मुझे बाहर जाना इस बार उतना बुरा नहीं लग रहा।

हाल ही में अपने एक वरिष्ठ सहयोगी का ये अलविदा-मेल पढ़कर मुझे पत्रकारिता में अपने शुरुआती दिनों की याद आ गई जब दो सालों के दरम्यान मैंने नौ नौकरियां बदली थीं। लेकिन तब वजह यह थी कि मैंने काफी देर से शुरुआत की थी और मुझे जल्दी से जल्दी सम्मानजनक जगह हासिल करनी थी। आज जिस तरह से मीडिया में पत्रकार फटाफट नौकरियां बदल रहे हैं या एक जगह टिके भी हैं तो भीतर ही भीतर कुढ़ रहे हैं, उसकी वजह सिर्फ ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाना और बेहतर पोजीशन हासिल करना ही नहीं है। खासकर हिंदी पत्रकारिता में जो लोग आते हैं, उनके लिए इस तरह का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता।

यह सच है कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं, एक पेशा बन गई है और न्यूज़ एक कमोडिटी। मीडिया संस्थान सर्विस सेक्टर का हिस्सा हैं। किसी भी कंपनी की तरह ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना उनका मकसद है। सर्कुलेशन और टीआरपी की अंधी दौड़ ने इसे साबित कर दिया है। ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि कॉरपोरेट किस्म की लोकतांत्रिक नेतृत्व शैली और टीमवर्क की भावना न्यूज़रूम में भी आ जाती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

अंग्रेज़ी अखबारों और चैनलों का मुझे अनुभव नहीं है, लेकिन हिंदी अखबारों और चैनलों के बारे में डेढ़ दशकों के अनुभव के आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि यहां संपादक की कुर्सी पर बैठते ही अच्छे खासे-पत्रकार भी सामंत बन जाते हैं और उनकी दमित इच्छाएं उबाल मारने लगती हैं। उनकी कोशिश बस इतनी रहती है कि मंत्री, अफसर और मालिकान खुश रहें, जबकि नीचेवाले मातहत डरे रहें। जब भी मौका मिलता है, वो नीचेवालों को धमकाने से नहीं चूकते कि दो मिनट में मैं तुम्हारी नौकरी ले सकता हूं।

उद्योग में कोटा-परमिट राज के खत्म होने से राजनीतिक पहुंच की अहमियत काफी हद तक घट गई है। लेकिन शायद यह कोई छिपा हुआ सच नहीं है कि अखबारों और चैनलों में शीर्ष संपादकों की नियुक्ति में अब भी राजनीतिक संस्तुतियों की बड़ी अहमियत है। इसीलिए संपादकगण भी नेताओं और मंत्रियों को साधने में लगे रहते हैं। अखबार में असिस्टेंट या न्यूज़ एडिटर तक आप अपनी मेहनत और काबिलियत से पहुंच सकते हैं। चैनलों में इग्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर (ईपी) बनने के लिए भौकाल और ऊपर वालों की नज़रों में ‘काम’ का होना ज़रूरी है। लेकिन प्रिंट या टीवी में अगर संपादक बनना है तो कोई तगड़ा पौआ होना ज़रूरी है। वैसे, धीरे-धीरे ये हकीकत बदल रही है। लाइसेंस कोटा राज के अवशेष अब पत्रकारिता से भी हटने लगे हैं।

मगर दिक्कत यही है कि रस्सी जल जाने के बाद भी ऐंठन बची हुई है। हमारे संपादकगण समझने को तैयार नहीं हैं कि आज न्यूज रूम को कॉरपोरेट अंदाज़ में चलाना पड़ेगा। संपादकीय विभाग में भी किसी सीनियर को मानव संसाधन (एचआर) के संरक्षण और विकास की भूमिका निभानी होगा। जिस तरह सर्विस सेक्टर में कर्मचारी को ऐसेट मानकर उसके सर्वोत्तम पहलुओं के इस्तेमाल की कोशिश की जाती है, उसी तरह अखबार या न्यूज़ चैनलों में हर पत्रकार को उसकी अंतर्निहित क्षमताओं के आधार पर आंकना होगा। चाटुकारिता या भाई-भतीजावाद न्यूज़रूम में नहीं चल सकता और न ही किसी तरह के प्रोफेशनलिज्म का स्वांग।

आज के कॉरपोरेट जगत में लोकतंत्र का होना एक बुनियादी शर्त है। और, मीडिया इसका अपवाद नहीं है। आज पत्रकारिता और मीडिया के बारे में कब्र में दफ्न किसी मिशन या खाक बन चुके किसी एसपी के संदर्भ में नहीं, बल्कि संपूर्ण कॉरपोरेट संरचना के संदर्भ में बात की जानी चाहिए। हां, इतना ज़रूर है कि मीडिया लोगों का दिमाग बनाता है और विंस्टन चर्चिल के शब्दों में, “The empires of the future will be the empires of the minds.”
फोटो साभार: ms_mod

Comments

Rajesh Roshan said…
A supeb piece on today's MEDIA.
Cheers
Rajesh Roshan
Ashok Pandey said…
''संपादक की कुर्सी पर बैठते ही अच्छे खासे-पत्रकार भी सामंत बन जाते हैं और उनकी दमित इच्छाएं उबाल मारने लगती हैं। उनकी कोशिश बस इतनी रहती है कि मंत्री, अफसर और मालिकान खुश रहें, जबकि नीचेवाले मातहत डरे रहें। जब भी मौका मिलता है, वो नीचेवालों को धमकाने से नहीं चूकते कि दो मिनट में मैं तुम्हारी नौकरी ले सकता हूं।''

इन हालातों में मीडिया से अपने अथवा देश या समाज की बेहतरी की उम्‍मीद कैसे की जा सकती है।
मुझे तो लगता है आज जितने भी मीडियाकर्मी हैं, वे समाज को ही नहीं, खुद को भी धोखा दे रहे हैं।
Abhishek Ojha said…
मिडिया जगत के बारे में ज्यादा जानकारी तो नहीं है... पर फिर भी आप की बात में पूरी सच्चाई दिखती है... धन्यवाद इस लेख के लिए.
vikas pandey said…
Anil ji,
Your thoughts echo with mine. Newsroom is full of womanisers and people who are expert in the art of flattery. When I joined a foreign newswire it was a different experience altogether. So much professionalism. Merit is the only criterion to climb the ladder. A sigh…..
I have hope from people like you and others who will bring some change, someday!
Vikas
बकौल गुसांई जी "सत्ता पाय काय मद नाहीं"
हर क्षेत्र में यही हाल है जी
Udan Tashtari said…
The empires of the future will be the empires of the minds.”

-पूरा सार है.
Tarun said…
Andar ki itni khabar to nahi lekin behar se unke dikhayi jaane wali khabar se anumaan laga sakte hain ki halaat aise hi honge jasie aap bayan kar rahe hain.....Warna kamishnar ka kutta khone ke baad breaking news nahi banta
यह हाल हर क्षेत्र में हो रखा है आजकल। हर जगह का हेड अपने ऊपर वाले के सामने नत-मस्तक है और अपने मातहत को नतनयन देखना चाहता है। अच्छी पोस्ट!
शायदा said…
बहुत बढि़या विश्‍लेषण। शानदार पोस्‍ट।
Sanjay Tiwari said…
हिन्दी पत्रकारिता का बेड़ा गर्क करनेवाले शीर्ष पर हैं. और उनके भी सिर पर वे लालाजी हैं जो अखबार भी नून-तेल बेचने की मानसिकता से निकालते हैं. जो जज्बाती हैं वे घर फूंक तमाशा देखते हैं और आग तापकर थो़ड़े दिनों में विदा हो जाते हैं.
लेकिन कारपोरेट कल्चर रास्ता नहीं हो सकता. कारपोरेट स्ट्रक्चर की बात तो समझ में आती है लेकिन वह कल्चर भी कम दोषपूर्ण नहीं है. इसका कारण संभवतः यह है कि हमारे देश में कारपोरेट स्ट्रक्चर तो बना लेकिन कल्चर बनाने में मानसिकता आड़े आ गयी.
अब ऐसे में तीसरे रास्ते का द्वार खुलता है जो मेहनती और इमानदार लोगों की दुनिया है और जो व्यापक अर्थों में मीडिया को उसके सच्चे अर्थों में प्रासंगिक बना सकते हैं. इनको सम्मान मिले और काम करने का हक इसके लिए कारपोरेट स्ट्रक्चर को काल विशेष के लिए अपनाना ही होगा. वर्ना यह जड़ता टूटने से रही.
Sanjay Tiwari said…
और हां, मैथिली जी सत्ता नहीं, "प्रभुता पांहि काहिं मद नाहिं."
यह तो बहुत जानकारी परक पोस्ट है। धन्यवाद।
सर्वमान्य सत्य ! समसामयिक भी .लेकिन उपाय ?? .दुखद स्थिति है उपाय सही सूझ नही रहा जबकि असंतुष्ट मीडियाकर्मी की संख्या कम नही है . क्या इन असंतुष्टों को जमा करके एक अलग मिडिया हाउस नही बन पायेगा
और बन भी जाय तो क्या गारंटी है कि वर्तमान दोषों से मुक्त संचालन हो पायेगा ? मुझे तो नही लगता .
चलिए यह कहते हुए निकलता हूँ सब जगह यही हाल है . पोस्ट की तारीफ़ किए बिना जाना बेईमानी होगी .
शानदार पोस्ट !
रंजना said…
ईमानदार अभिवयक्ति सराहनीय है..बहुत ही सच्चा और अच्छा लिखा आपने . आभार.
अनिल जी आपने महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा शुरू की है। पत्रकारिता में पहले और आज की स्थिति में भारी अंतर आ चुका है। आज का मीडिया पहले से ज्यादा स्वतंत्र है। पहले बिना किसी राजनीतिक आका के मदद के संपादक की कुर्सी तक पहुंच हीं नहीं सकते थे। लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज लाइसेंस राज को कम से कम कर दिया गया है। इससे समाचार दुनिया के मालिकों को भी काफी सहुलियत मिल गई है। जैसा पहले मालिक सरकार के दबाब में आ जाते थे आज वह स्थिति नहीं हैं। हांलाकि पहले भी कुछ अखबारों के मालिक और संपादक किसी के दबाव में नहीं आते थे।
बन्धुवर, खरी-खरी लिखते हैं आप। लेकिन इस दुष्चक्र से निकलने का रास्ता क्या है? उपभोक्तावाद की मिट्टी से निकली यह विषवेल क्या आसानी से रोकी जा सकती है। पहले रोटी-दाल का इन्तज़ाम करने को ‘जीविका’ कमाना कहते थे। लेकिन अब जीविका का मेन्यू बढ़्ता जा रहा है। शानदार बंगला, चमचमाती गाड़ी, हवाई-यात्रा, हाई-टेक गजट्स, विदेश यात्रा, फ़ॉर्म-हाउस, कंपनी, फिर कई बंगले, कई गाड़ियाँ, कई फ़ॉर्म हाउस, कई कंपनियाँ……सूची का अन्त नहीं। …अब यह सब आदर्श झाड़ने से तो मिलने वाला है नहीं। अच्छे पे-पैकेट्स के लिए कुछ तो कुर्बानी देनी ही पड़ेगी।
‘संपादक जी’ और ‘सेठजी’ को एक साथ खुश करना किसी नट-मदारी के काम जैसा कौशल माँगता होगा… अब भला क्या करेंगे आप?

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