Wednesday 9 May, 2007

शानदार भविष्य, फिर भी खुदकुशी!

आज के दौड़ते-भागते भारत में आईआईटी और आईआईएम से बढ़िया और सुरक्षित करियर क्या हो सकता है! फिर भी क्यों यहां के छात्र खुदकुशी कर रहे हैं? कुछ दिन पहले ही एक और आईआईटी छात्र की खुदकुशी की खबर पढ़कर ये सवाल फिर दिमाग में नाचने लगा। मैं सोचने लगा। नए-पुराने अनुभवों को टटोलने लगा। तीन-चार बातें याद आ गईं।
एक तो यह कि जानवर या जानवर की तरह जिंदगी को भोगने वाले इंसान कभी आत्महत्या नहीं करते। जिन्हें जगत-गति नहीं व्यापती, ऐसे मूढ़ भी आत्महत्या नहीं करते। दूसरी बात जो कभी चंदू भाई ने मुझे बताई थी अपने एक बेहद निजी और कटु अनुभव की याद करते हुए कि इंसान जब संघर्ष कर रहा होता है, प्रतिकूलताओं से जूझ रहा होता है, तब नहीं, बल्कि तब खुदकुशी करता है जब वह जीत के करीब होता है, आशा की किरण उसे नजर आने लगती है। उसी तरह जैसे कड़ी मेहनत करते वक्त नहीं, बल्कि थोड़े आराम के बाद आपका पोर-पोर टपकता है। तीसरी बात कि जब जिंदगी के सफर में कोई डेड-एंड आ जाता है, राह तंग गली में खत्म हो जाती है, सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं, तब कोई अपनी जान लेने पर उतारू हो जाता है। शायद लाखों के कर्ज में डूबने के बाद या शेयर बाजार के डुबकी लगाने पर इसी वजह से लोग मौत की डुबकी लगा जाते हैं।
चौथी बात कोई भयंकर भावनात्मक चोट इंसान को खुदकुशी तक ले जाती है। प्यार में धोखा, अपने बच्चे या प्यारी बीवी की मौत इसके उदाहरण हैं। लेकिन आईआईटी के छात्रों की आत्महत्या की इसमें से कोई वजह नहीं हो सकती। वजह को समझने के लिए आप खुदकुशी के बारे में लिखी इस कविता को पढ़ सकते हैं। अस्तित्व का तनाव, नीरसता से मुक्ति की चाहत या खुद को विस्तार देने की अदम्य इच्छा या शायद कुछ और...
ये तथ्य है कि ज्यादातर अंतर्मुखी लोग ही अपनी जान लेते हैं। लगता है कोई भी उन्हें नहीं समझता, कोई उनका सगा नहीं है, सभी पराए हैं। पढ़ाई में डूबने पर बाहरी दुनिया अपरिचित होती चली जाती है और उसकी जगह आ जाता है एक यूटोपियन संसार, जहां आदर्श चलते हैं, नैतिकता अपने चरम पर होती है। ऐसे में किसी दिन जब इस यूटोपिया के भुरभुरेपन का अहसास होता है तो ऐसी रिक्तता छा जाती है कि लगता है अब विलुप्त हो जाएं तभी चैन मिलेगा। वैसे, कभी-कभी लोग औरों को अपनी कीमत जताने के लिए भी आत्महत्या करते हैं। सोचते हैं कि अपनी जान देकर दिखा देंगे कि वो कितने कीमती थे क्योंकि उसके न रहने पर ही औरों को उसकी कमी खलेगी। वैसे. ये उनका भ्रम ही होता है क्योंकि लोगों की याददाश्त बड़ी कमजोर होती है और दुनिया में कोई भी अपरिहार्य नहीं होता।

7 comments:

उन्मुक्त said...

मेरे विचार में IIT में खुदकुशी करने के कुछ कारण यह हैं:
(१) IIT में पहुंचने वाला हर विद्यार्थी अपने स्कूल के सबसे अच्छे क्षात्रों में से होता है। वहां पहुंच कर उसे पता चलता है कि उससे कहीं अच्छे लोग हैं कई इसे स्वीकार नहीं कर पाते हैं।
(२) वहां न केवाल competition पर peer pressure और पढ़ाई का भी बोझ ज्यादा होता है। यह भी सहन कर पाना मुश्किल होता है।

dhurvirodhi said...

"IIT में पहुंचने वाला हर विद्यार्थी अपने स्कूल के सबसे अच्छे क्षात्रों में से होता है। वहां पहुंच कर उसे पता चलता है कि उससे कहीं अच्छे लोग हैं कई इसे स्वीकार नहीं कर पाते हैं।"

मैं समर्थन करता हूं.

चंद्रभूषण said...

aise jyada case meri jaankari me nahin hain. jo hain unme karan koi na koi hatasha hi rahi hai. kya aap ka ishara astitvgat vyarthta bodh ki taraf hai? kya aisi koi cheej 60-70 ke dashak ke baad dubaara apne yahan aakar le rahi hai?

Pratik Pandey said...

शानदार भविष्य!!! क्या महज़ अच्छी नौकरी पाना ही शानदार भविष्य का सूचक है? कितने दु:ख की बात है कि बच्चे अपनी ग्रेड एक अंक ऊपर ले जाने के लिए अपनी वास्तविक आकांक्षाओं और सपनों का गला घोंट देते हैं। ऐसे में उपजे तनाव की सहज परिणति ही आत्महत्या है। कैसा विद्रूप समाज है जो शानदार भविष्य का पैमाना पैसों वाली नौकरी को मानता है।

mamta said...

हमारे ख्याल से आत्महत्या करने वाले बुजदिल होते है क्यूंकि अगर आप मे हिम्मत है तो ज़माने का सामना करना चाहिऐ। आत्महत्या करना कोई हल नही है । और जैसा की आपने लिखा है की डेड एंड आ जाता है .....तो हम तो यही कहेंगे कि जब सारे दरवाजे बंद हो जाते है तो एक नया दरवाजा खुल जाता है।

ghughutibasuti said...

कितना सरल है किसी को बुजदिल कह देना ! कभी मृत्यु को करीब से देखा है ? कभी हाथ में विष उठाया है ? कभी गले में फंदा डाल अपने आप से बहस की है ? कभी मरना चाहकर भी अपने परिवार के बारे में सोचकर मरने का कार्यक्रम स्थगित या रद्द किया है ? जिस जान से ९० साल के अधमरे बीमार वृद्ध तक चिपके रहते हैं उसी जान को जब कोई किशोर एक झटके में दे डालता है तो उसकी मनःदशा क्या रही होगी ? बस वह पल यदि निकल जाता तो कल वह फिर युद्ध में जूझने को निकल पड़ता । सोचो कहाँ हम माता पिता में कमी रह गई ? कहाँ हमारी शिक्षा प्रणाली में कमी रह गई ? क्यों हम अपने बच्चों को आश्वस्त नहीं कर सके कि जो भी
हो ,सफल रहें या असफल, हर हाल में वे हमारे पास वापिस आ सकते हैं और नए सिरे से जीवन आरम्भ कर सकते हैं , कि हम उन पर अपनी जजमेंट नहीं पास करेंगे, कि जीवन बहुत बड़ा और लम्बा है, कि एक जगह असफल भी रहो या आइ आइ टी जैसी जगह को भी छोड़कर यदि तुम कुछ और करना चाहोगे तो भी हम तुम्हारे साथ हैं ?
इन प्रश्नों के उत्तर ढूँढो । बच्चों पर जजमेंट न पास करो ।
घुघूती बासूती

Unknown said...

Hi,
Thank you for quoting my poem - but, just to clarify, that poem was written in a not so successful effort to capture my experiences in the five years that I spent at IITK. It was around the time when the recent trend of suicides was beginning and that was a part of the landscape that I tried to depict.

Given that fact, it is definitely not the case that it is a poem "on suicide", as I see it. In fact, almost every word there is meant to be figurative - and I personally consider suicide too be one of the most stupid things that a person can do.

Nevertheless, I believe that every reader is entitled to her own interpretation of a poem - and in that sense, I am glad that you found something that fits into your thinking.

Unlike the other commenters here, I will avoid commenting on the causes of such tragedies - except for noting that none of the reasons that have been mentioned above explain one crucial fact about the recent spate of suicides - that they are recent. Suddenly, the rate of suicides among IITians have gone up which cannot be easily explained by competition or peer pressure - after all, our senior batches lived in a similar environment and suicides were really rare before my fifth year.

nayagam