यह अछूतोद्धार तो धंधे का फंडा है, नीच!

बड़ी बात है। 34 सालों से न्यूक्लियर तकनीक और धंधे की दुनिया में अछूत बने भारत का उद्धार होनेवाला है। भारत-अमेरिका परमाणु संधि को 45 देशों का न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) स्वीकार कर चुका है। इसी महीने की 28 तारीख से पहले अमेरिकी संसद भी इस पर मुहर लगा ही देगी। मीडिया से लेकर कॉरपोरेट सेक्टर और यूपीए सरकार में शामिल पार्टियां ताली पीट रही हैं कि भारत का ‘अछूतोद्धार’ अब महज औपचारिकता भर रह गया है। कुछ दिन पहले वॉशिंग्टन पोस्ट ने खुलासा किया कि बुश के मुताबिक, भारत के परमाणु परीक्षण करने की सूरत में अमेरिका यह संधि खत्म कर देगा और परमाणु ईंधन से लेकर परमाणु तकनीक देना बंद कर देगा। सारा देश इस गुप्त पत्र के लीक होने से सन्न रह गया।

विपक्ष कहने लगा कि सरकार और खासकर प्रधानमंत्री ने झूठ बोलकर देश को गुमराह किया है। लेकिन मंत्री से लेकर कांग्रेसी प्रवक्ता और मीडिया के स्थापित स्तंभकार कह रहे हैं कि भारत तो 1998 में दूसरे परमाणु परीक्षण के बाद ही कह चुका है कि वह आगे परमाणु परीक्षण नहीं करेगा। और, बुश के कहने से क्या होता है। वाकई किसी लॉबी का हिस्सा बन जाने के बाद बड़े-ब़ड़े विद्वान कितने बेशर्म हो जाते हैं!!!

इस बीच डील पर अमेरिकी संसद की मुहर लगने से पहले ही डीलर सक्रिय हो गए हैं। वजह है भारत में आनेवाले सालों में परमाणु बिजली से जुड़े 100 अरब डॉलर (4.50 लाख करोड़ रुपए) के संयंत्रों और मशीनरी की मांग। भारत ने साल 2020 तक 40,000 मेगावॉट परमाणु बिजली बनाने का लक्ष्य रखा है। देश में विदेशी कंपनियों के हितरक्षक माने जानेवाले उद्योग संगठन एसोचैम के मुताबिक इसके लिए कम से कम 45 अरब डॉलर (2.02 लाख करोड़ रुपए) का शुरुआती निवेश करना पड़ेगा। इस धंधे को लपकने के लिए अमेरिका, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन में अभी से होड़ लग गई है।

कुछ विद्वान तो वॉशिंग्टन पोस्ट के खुलासे के बाद बड़ी होशियारी दिखाते हुए कह रहे हैं कि हमें अमेरिका के बजाय फ्रांस, ब्रिटेन और रूस को तरजीह देनी चाहिए। लेकिन यूएस-इंडिया बिजनेस काउंसिल जैसी परिषदों के दबाव में अमेरिका ने जिस तरह एनएसजी में आयरलैंड, न्यूज़ीलैंड और चीन जैसे देशों को चुप कराया है, उससे नहीं लगता कि वह इतना बड़ा धंधा आसानी से अपने हाथ से निकलने देगा। वैसे, देश-विदेश की 400 से ज्यादा कंपनियों के व्यावसायिक हित परमाणु के इस धंधे से सीधे-सीधे जुड़े हैं। इनमें आनेवाले दिनों में जमकर खींचतान और लॉबीइंग होनी है। अभी तक परमाणु बिजली में निजी क्षेत्र के आने की इजाज़त नहीं है तो सीआईआई और फिक्की जैसे संगठन 1962 के परमाणु ऊर्जा कानून से इस नियम को हटवाने में जुट गए हैं कि 51 फीसदी या इससे ज्यादा सरकारी शेयरधारिता वाली कंपनियों को ही परमाणु बिजली क्षेत्र में उतरने दिया जाएगा।

भारत की यूरेनियम सप्लाई को लेकर भी सुगबुगाहट तेज़ होने लगी है। ऑस्ट्रेलिया ने कह दिया है कि वह एसएसजी से मंजूरी मिलने के बाद भी भारत को यूरेनियम नहीं देगा। नहीं पता कि वह इस मामले में गंभीर है या कोई मोलतोल करना चाहता है। इस बीच यूरेनियम के विश्व बाज़ार में भारत की मांग का ताप महसूस किया जाना शुरू हो गया है। भारत की मौजूदा सालाना मांग 500 टन या 13 लाख पाउंड (1 टन = 2600 पाउंड) की है। शुरुआती सालों में ही इसके 1000 से 1500 टन हो जाने की उम्मीद है। यूरेनियम व्यापारियों के मुताबिक स्पॉट या हाज़िर बाजार में इतनी मांग कीमतों को बढ़ाने के लिए काफी है। वैसे भी लंदन के स्पॉट बाज़ार में पिछले कुछ सालों में यूरेनियम की कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव आता रहा है। साल 2000 में इसकी कीमत महज 7 डॉलर प्रति पाउंड थी, जून 2007 तक उछलकर 136 डॉलर प्रति पाउंड हो गई और स्पॉट बाज़ार में इस समय यूरेनियम की कीमत 64.5 डॉलर प्रति पाउंड चल रही है। देखिए, साल भर बाद यह कीमत कहां तक पहुंचती है।
फोटो सौजन्य: dou_ble_you

Comments

राजनीति में हर चीज धन्धामय है। और जो न करे सो चुगद!
ये जमाना धन्धे का है। हर बात के पीछे धन्धा है। ताज तो दिखावा भर है, हर राज के पीछे धन्धा है।
वाकई किसी लॉबी का हिस्सा बन जाने के बाद बड़े-ब़ड़े विद्वान कितने बेशर्म हो जाते हैं!!!

सही...सटीक...दो टूक
आँखें देने और खोलने वाली पोस्ट
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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