काया में चक्कर काटता क्रिस्टल का बालक

मैं सो गया, मैं पत्ते खेल रहा हूं, मैं दाऊ पीकर बैठा हूं, मैं डांस क्लब जा रहा हूं... तब आप मुझे दोष दीजिए – कई साल पहले नौकरी से निकाले जाते वक्त मानस ने अपने बॉस से यही कहा था। बॉस ने उसकी एक न सुनी। फिर, नौकरी गई तो तब से लेकर अब तक मिली ही नहीं। नौकरी थी तो पिता की आकस्मिक मौत के बाद मां भी साथ रहने आ गई। उन दिनों मानस गुड़गांव दिल्ली के बीच मेहरौली के नजदीक बनी किसी डीएलएफ नाम की सिटी के किसी तीन कमरे के बड़े अपार्टमेंट में रहा करता था। मां आई, उसी बीच मकान-मालिक के ला सलामोस में रह रहे वैज्ञानिक बेटे के निधन की खबर आ गई। बेटे ने यूएस में अच्छी-खासी प्रॉपर्टी बना ली थी तो मकान-मालिक सपरिवार ला सलामोस चले गए। मानस की मां की रोती-बिलखती हालत देखकर बोले – ये अपार्टमेंट अब आपका हो गया। हम तो हमेशा-हमेशा के लिए विदेश जा रहे हैं। आप लोग अपना ख्याल रखिएगा।

उसके बाद तीन कमरों का वो अपार्टमेंट मां-बेटे का घर बन गया। मां 76 साल की, बेटा 46 साल का। मानस की नौकरी 1999 में छूटी थी। मां महीनों-महीनों तक लगातार घर में ही रहती थी। मानस ज़रूर बराबर आसपास के पार्क और बाज़ार में एकाध दिन में चक्कर लगा लिया करता था। लेकिन 11 सितंबर 2001 को अमेरिकी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद वह भी छठे-छमासे ही घर के बाहर कदम रखता था। दूध-तेल, आटा-चावल, दाल समेत घर का सब सामान होम डिलीवरी हो जाता है। मां को 100 परसेंट यकीन है कि वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला उसी के क्रोध का नतीजा है। असल में मानस को लेहमान ब्रदर्स नाम की जिस कंपनी ने मामूली-सी बात पर नौकरी से निकाला था, उसका हेड क्वार्टर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में ही था। और, मां लगातार लेहमान ब्रदर्स के सत्यानाश का शाप देती रहती थी।

मां धीरे-धीरे तंत्र साधना टाइप कोई चीज़ करने लगी। मानस को बचपन से ही चमत्कारों में यकीन था तो वह भी मां की साधना में शिरकत करने लग गया। दोनों के गले में रुद्राक्ष की माला और उंगलियों पर कई तरह के नगों की अगूंठियां विराजने लगीं। मां-बेटे का रिश्ता घिसते-घिसते न जाने किस दिन गुरु-चेले का रिश्ता बन गया। घर के दरवाज़ों से रिस-रिस कर निकलनेवाली गंध पर चौबीसों प्रहर हावी रहती थी लोहबान के जलने की गंध। इसी गंध से पड़ोसियों को लगता कि बगल में कोई रहता है। नहीं तो न किसी से लेना, न किसी का देना।

अचानक एक दिन घर से लोहबान की गंध आना बंद हो गई। पड़ोसियों को लगा कि होगा, कहीं चले गए होंगे। लेकिन तीन दिन बाद जब मोर्चरी जैसी गंध आने लगी और लगातार बढ़ती ही रही तो उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने घर की घंटी बजाने के साथ ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा पीट डाला। करीब आधे घंटे के शोरगुल और दरवाजे के बाहर मच गए मजमे के बीच मानस पूरा दरवाज़ा खोलकर एक किनारे खड़ा हो गया। दुर्गंध का भारी भभका बाहर निकला। पड़ोसियों ने देखा, कमरे के बीचों-बीच हवन कुंड के सामने पीछे के सोफे से टिककर बैठी मानस की मां मरी पड़ी थी। पुलिस आई। पोस्टमोर्टम हुआ। मानस ने निगमबोध घाट पर मां का अंतिम संस्कार कर दिया।

घर आया। सारी खिड़कियों खोल दीं। सारे परदे हटा दिए। घर का कोना-कोना घिस-घिस कर धोया। खुद बाहर जाकर खाने-पीने, नहाने-धोने का सारा सामान ले आया। पैसे की कमी नहीं थी क्योंकि पिता ने लाखों बचाए थे। मां के पास भी पर्याप्त स्त्रीधन था। अब सब कुछ उनकी इकलौती संतान मानस का था। दया में मिले तोहफे यानी घर बने अपार्टमेंट की कीमत भी अब करोड़ के ऊपर जा चुकी थी। मानस ने हवन कुंड से लेकर सारी अंट-शंट चीजें नीचे रखी नगरपालिका की बड़ी-सी कचरा पेटी के हवाले कर दी। उसे अचंभा हुआ कि ऐसा करते वक्त उसे तनिक भी डर नहीं लगा।

हफ्ते भर बाद ... यही कोई शाम सात बजे का वक्त था। मानस ने नहा-धोकर अच्छा-खासा नाश्ता किया। ह्वाइट वाइन की बोतल निकाली। मद्धिम वोल्यूम पर सूफी म्यूजिक ऑन कर दिया। वाइन भीतर पहुंचने लगी। मानस का मन खिलने लगा, जैसे ब्रह्म-कमल का फूल धीरे-धीरे खिलता है। आंखें बंद। दिमाग खुला। लगा, जैसे अभी-अभी कोई भयंकर बवंडर शांत हुआ है। हवा में उड़ा गर्द-गुबार नीचे बैठ रहा है। हल्की-सी बारिश हुई और सारा दृश्य कितना साफ हो गया!!! सब कुछ इतना स्वच्छ, इतना पवित्र, जैसे भोर की हरी पत्तियों पर पड़ी ओस की बूंद।

मानस की आंख बंद ही रही। अचानक उसे लगा कि उसके अंदर क्रिस्टल कांच का एक बालक टहल रहा है। नाक-नक्श, हाथ-पैर सब कुछ हज़ारों कोणों पर तराशे हुए। हर कोण से परावर्तित होकर चमकती चमक। बालक का नटखटपना किस्टल की चंचल चमक को और बढ़ा दे रहा था। हां, यह एकदम धवल, निश्छल मानस ही था। मानस के अंदर का मानस, जो चौदह-पंद्रह साल का होते ही कहीं गुम हो गया था। वो अब फिर लौट आया था। मानस को लगा कि उसके होने के पीछे कोई बड़ा मकसद है। जेनेवा में लार्ज हैड्रान कोलाइडर का प्रयोग हो या दुनिया के बड़े-बड़े बैंकों का दिवालिया होना। सब कुछ उसी के लिए हो रहा है। ताकि, वह सब कुछ जानकर सब कुछ को बदलने का सूत्र निकाल सके।

मानस ने वाइन की बोतल पूरी खाली कर दी। जाकर बाथरूम की लाइट जलाकर आईने में अपनी शक्ल देखने की कोशिश की। अरे, यह क्या? एक बूढा होता अधेड़ चेहरा!! मानस से वाइन की गिलास आईने पर दे मारी। आईना बीच से टूट गया। मानस आकर सोफे पर लुढक गया। सपने में मां आई। लेकिन उसके गले में न तो रुद्राक्ष की माला थी, और न ही दसों उंगलियों में नगों से भरी अंगूठियां।
चित्र सौजन्य: DesignFlute

Comments

Unknown said…
अनिल भाई,
समीर लाल बहुत प्यारा बालक है। दुनिया के मेले में हर चीज बड़े गौर से देखता है और चकित रहता है। हर जगह जाता कि लोग चश्मा देखें, खूंटिया देखें। पूछें कि यहीं का है या आयातित। जरा दिखाना। यह संवाद की नैसर्गिक बाल-सुलभ लालसा है। और आंखे। मैं जानता हूं कि मन की आंखे हैं जिनमें जरा भी मैल नहीं। सबके लिए प्यार है, सम्मान है बस। बड़ों की देश की फिक्र करती बकबक से ऊब जाता है तो क्या गलत कहता है कि मुजे कानी सुनाओ। कहानी मार्मिक है- घर-घर में कारपोरेट के मानस रचे जा रहे हैं।

समीर लाल की पत्नी के लिए-गेट वेल सून। मंगलकामनाएं।
Hari Joshi said…
भैय्या इसको कहते हैं धोबी पछाड़। एक सशक्‍त, प्रतीकात्‍मक व्‍यथा कथा है।
Udan Tashtari said…
बहुत आभार अनिल भाई. मानस की कथा हमेशा आकर्षित करती रही-कितना कुछ सोचने को मजबूर करती है....

(लेहमैन का तो वाकई दीवाला पिट गया)

हर मानस के भीतर एक क्रिस्टल का मानस है!!

बहुत बढ़िया रहा!!
मानस की कथा तो बेहतरीन लगी... आपके साथ समीर जी का भी आभार।

आज ही आपकी पिछली पोस्ट भी पढ़ी मैंने...। वाकई ये वेदान्ती जैसे आस्तीन के साँप आतंकियों से कम खतरनाक नहीं हैं। इनका गुनाह शिवराज पाटिल की अकर्मण्यता पर भारी पड़ने वाला है।

आप ऐसी आँखें खोलने वाली पोस्टें देते रहें। ये राजनीति जिन लोगों की सैरगाह बनी है, उन्हें सत्ता सौपनें का गुनाह हम भी कर रहे हैं।
Abhishek Ojha said…
मैं सोच रहा हूँ की लेहमन को ज्यादा बद्दुआ मिली थी या गृह मंत्री को मिल रही हैं... एक का हश्र तो दिख गया... लेकिन भारत में नेताओं को कुछ नहीं लगता. बद्दुआ भी नहीं !
Asha Joglekar said…
बहुत दिनों के बाद आपके ब्लॉग पर आई। कहानी पढ कर एकदम गुम हो गई । मानस को क्रिस्टल मानस दिखा वहीं खत्म होती कहानी तो । पर कहानी आप बडी दिलचस्प लिखते हैं ।
ravindra vyas said…
अनिलभाई,
यही आपकी जमीन है। इसी पर रहकर बल्कि धंसकर आप जो रचते हैं, उसमें से आपकी खुशबू आती है। आप इस महान लोकतंत्र के स्वतंत्र नागरिक हैं, जैसा चाहें वैसा लिखें, लेकिन सच कहूं आप इस तरह के लिखे में कुछ ज्यादा खिलते हो। बोरा भरकर शुभकामनाएं।

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