असली गुनहगारों को बचाने के लिए पोटा ज़रूरी है

गुजरात के बीजेपी नेता हरेन पंड्या की हत्या का केस बंद किया जा चुका है, लेकिन असली कातिल अभी भी कहीं ठहाके लगा रहे हैं तो इसलिए कि पोटा ने कानून के हाथ उनकी गरदन तक पहुंचने ही नहीं दिए। वैसे, अहमदाबाद में पोटा अदालत की जज सोनिया गोकाणी 25 जून 2007 को ही इस मामले में नौ ‘गुनहगारों’ को उम्रकैद, दो को सात साल और एक को पांच साल कैद की सज़ा सुना चुकी हैं। हरेन पंड्या की हत्या तकरीबन साढ़े पांच साल पहले तब कर दी गई थी, जब वे मॉर्निग वॉक के बाद घर लौट रहे थे। हत्या के कुछ घंटे बाद ही मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का बयान आ गया था कि यह हत्या पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और कराची में बैठे अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम ने करवाई है।

गिरफ्तारियां हुईं। पकड़े गए बारह नौजवानों ने पुलिस के सामने अपना गुनाह कबूल भी कर लिया (जिसे पोटा के तहत साक्ष्य माना जाता है) और इन सभी को सज़ा हो गई है। फिर भी मैं कह रहा हूं कि असली कातिल अब भी नहीं पकड़े गए हैं तो इसलिए कि ज़रा-सा भी दिमाग से काम लेनेवाला कोई भी शख्स ऐसा ही कहेगा। क्यों और कैसे? बुधवार 26 मार्च 2003 को हरेन पंड्या का शव उनके घर से करीब दो किलोमीटर दूर लॉ गार्डन इलाके में पार्क की गई मारुति 800 कार में मिला था। पुलिस रिकॉर्ड्स के मुताबिक पंड्या ड्राइवर की सीट पर बैठे थे। कार के पिछले दोनों शीशे बंद थे। अगली सीट पर बाईं तरफ का शीशा करीब-करीब पूरा बंद था, जबकि दाई तरफ का शीशा बमुश्किल तीन इंच खुला हुआ था। सुबह साढे दस बजे का वक्त। सड़क पर पूरी भीड़भाड़। इसी बीच हमलावर मोटरसाइकल पर आए और हरेन पंड्या को मारकर सही-सलामत निकल लिए। अब असली पेंच।

पुलिस कह रही है कि दाईं तरफ के खुले शीशे से हमलावरों ने हरेन पंड्या को गोली मारी। लेकिन पोस्टमोर्टम रिपोर्ट के मुताबिक एक गोली हरेन पंड्या के बाएं अंडकोष से होते हुए दाहिने कंधे से निकल गई थी। बाकी छह गोलियां भी आगे-पीछे या बाईं तरफ से ही मारी गई थीं। ऐसा तभी मुमकिन है जब हरेन पंड्या ने कातिलों की सुविधा के लिए सीट पर सिर नीचे और पैर ऊपर करके आसन लगा लिया हो!!! यह भी जबरदस्त चौंकानेवाली बात है कि सात गोलियां लगने के बावजूद कार की सीट पर खून की एक बूंद भी नहीं गिरी थी।

कोई भी सामान्य आदमी बता देगा कि हरेन पंड्या को कहीं और मारकर उनका शव कार में लाकर रख दिया गया। लेकिन पुलिस कह रही है कि उसके पास एक चश्मदीद है और पकड़े गए सभी बारह आरोपी भी पुलिस हिरासत में महीने भर से ज्यादा रहने के दौरान हत्या की बात कबूल कर चुके हैं। कैसे कबूला, इसका किस्सा भी चमत्कारी है। एक आतंकवादी का बयान जब सीनियर पुलिस अफसर अपने दफ्तर में दर्ज कर रहा था, ठीक उसी वक्त जूनियर अफसर उसी आतंकवादी की मेडिकल जांच सिविल हॉस्पिटल में करवा रहा था। आप कहेंगे, इसमें गलत क्या है? आखिर खतरनाक आतंकवादी एक साथ दो जगहों पर क्यों नहीं हो सकते!!!

मज़ाक की नहीं, बड़ी गंभीर बात है यह। आतंकवादी बेधड़क होकर एक के बाद धमाके करते जा रहे हैं। जयपुर, बैंगलोर और अहमदाबाद के बाद अब दिल्ली। हमारी पुलिस और खुफिया एजेंसियां गिरफ्तारियों के बाद कहती हैं कि धमाके का मास्टरमाइंड उनकी पकड़ में आ गया है। लेकिन मास्टरमाइंड पकड़ा गया तो नए मास्टरमाइंड कहां से पैदा होते जा रहे हैं? यही बात कल दिल्ली धमाकों के सिलसिले में भेजे गए मेल में इंडियन मुजाहिदीन ने भी उठाई है कि, “पुलिस दावा करती है कि उसने सभी मास्टरमाइंड पकड़ लिए हैं तो आज के हमले के पीछे कौन-सा मास्टरमाइंड है।”

बीजेपी के शीर्ष नेता हर आतंकवादी हमले के बाद मांग करते हैं कि आंतकवाद विरोधी कानून, पोटा फिर से लागू किया जाए। लेकिन पोटा के पीछे असल में क्या होता है, यह हरेन पंड्या की हत्या के मामले से साफ हो गया होगा। ब्रिटिश भारत तक में 1855 में ही पुलिस के सामने दिए गए बयानों को अमान्य घोषित कर दिया था। हमारा सुप्रीम कोर्ट भी इसी आधार पर टाडा और पोटा को निरस्त कर चुका है। आंतकवाद से निपटने के दूसरे कठोर कानून हमारे पास हैं। हां, इतना ज़रूर है कि इनमें पोटा की तरह पुलिस के सामने दिए गए बयान को साक्ष्य मानने की सहूलियत नहीं है। अंत में एक छोटा-सा किस्सा। राजधानी से एनकाउंटर के लिए एक शातिर डकैत की अलग-अलग कोणों से छह तस्वीरें संबंधित थाने को भेजी गईं। पांच दिन बाद पूछा गया कि क्या हुआ तो थानेदार का जवाब था – साहब, चार को तो मार गिराया है, बाकी दो को भी जल्दी ही निपटा देंगे।
संदर्भ: दिल्ली के वकील नित्या रामकृष्णन का लेख

Comments

अनिल जी. हालत यह है कि पुलिस के पास हत्या की सूचना आते ही वह इतने मशीनी ढंग से काम करती है कि सारे सही सच्चे सबूतों को नष्ट कर देती है। फिर चालान के लिए फर्जी सबूत इकट्ठे करती है। अपराधी क्यों नहीं छूटेंगे?
सही है; समाधान क्या है रक्तबीज से निपटने का?
bhuvnesh sharma said…
ऐसे अपवादों के बावजूद कोई कानून तो बनाना ही पड़ेगा अनिलजी

वरना हमारे देश का गृहमंत्री जिसका बर्ताव तो चूहों से भी बदतर है, उसके सहारे तो सब कुछ नहीं छोड़ा जा सकता.
एक सोचने लायक़ लेख़ के लिये धन्यवाद।
काफी चिन्तित करने वाली बातें बतायी आपने। मतलब ये है कि कानून का दुरुपयोग होगा इसलिए कानून नहीं बनाना चाहिए। हिरेन पाण्ड्या का नाम लेकर आतंकवाद विरोधी लड़ाई को कमजोर करना उचित नहीं है। आतंकवाद से लड़ने में हमें सफलता नहीं मिल रही तो क्या इससे हार कर बैठ जाना चाहिए?

राष्ट्रविरोधी तत्वों के मानवाधिकारों की चिन्ता करने वाले यह भूल जा रहे हैं कि असंख्य मासूमों की जान लेने वालों के साथ कोई भी रियायत उनके हौसले को कई गुना बढ़ा देती है। इसी सोच ने अफ़जल गुरू को जिन्दा रखा है, और विस्फोटों का सिलसिला लगातार जारी है।

यदि समस्या कानून के सही पालन न होने की है तो सुधार भी वहीं होना चाहिए न कि हथियार डाल देने की वकालत की जानी चाहिए।
ravishndtv said…
बहुत बढ़िया। पोटा का टोटा कर दिया
ये गणित सही नहीं है, पोटा या उसके जैसा कानून समय की मांग है.
जो कहते हैं कि पोटा सही नहीं वे यह भी बता दें कि आज कल के धमाकों का क्या इलाज है !!
Sanjay Tiwari said…
पोटा का सोटा राजनीतिक मांग हो गयी है. इसका इलाज पोटा में नहीं बल्कि प्रतिक्रमण में है. सरकार और सिस्टम अतिक्रमण की नीति से हटना नहीं चाहते. जड़ यहां है और हम जड़ों को काटकर पत्तों को पानी दे रहे हैं.
आखिरी किस्सा पुलिस की हकीकत बयान कर देता है.

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