
साफ है कि पश्चिम बंगाल का भद्रलोक इस परियोजना के पक्ष में है। लेकिन साथ ही वो चाहता है कि प्रभावित किसानों को वाज़िब मुआवज़ा मिले। वाममोर्चा सरकार का दावा है कि वह सिंगूर के किसानों को बाज़ार कीमत का तीन गुना मुआवज़ा दे चुकी है। लेकिन वह यह नहीं बताती कि जिस भूमि को उसने एक-फसली करार दिया है, वो असल में बहु-फसली कृषि भूमि रही है। भूमि को बहु-फसली मानते ही उसकी कीमत कई गुना हो जाती। वाम सरकार का एक और झूठ बेपरदा हो चुका है। उसने दावा किया था कि नानो परियोजना के लिए ली गई 997.11 एकड़ के लिए 96 फीसदी किसानों ने रज़ामंदी दिखाई है। लेकिन अदालत के सामने उसे मानना पड़ा कि केवल 287.5 एकड़ भूमि के मालिक किसानों ने ही अपनी हामी भरी है। यानी, नानो परियोजना की 71 फीसदी ज़मीन जबरिया अधिग्रहीत की गई है।
अब पश्चिम बंगाल के उद्योग मंत्री निरूपम सेन बता रहे हैं कि सिंगूर की परियोजना के लिए ली गई ज़मीन में से 690.79 एकड़ के मालिक करीब 11,000 किसानों ने अपना मुआवज़ा ले लिया है। बाकी लगभग 300 एकड़ भूमि के मालिकों ने अभी तक मुआवज़ा नहीं लिया है। इन ‘अनिच्छुक’ किसानों की संख्या 1100 के आसपास है। तृणमूल नेता ममता बनर्जी इस भूमि को 400 एकड़ बताती हैं और मांग कर रही हैं कि यह भूमि अनिच्छुक किसानों को लौटा दी जाए। इस मांग के खिलाफ एक तर्क तो यह है कि महज 10 फीसदी किसानों के लिए 90 फीसदी किसानों की आशाओं पर पानी फेरना कतई लोकतांत्रिक रवैया नहीं है। दूसरे, कानूनन एक बार अधिग्रहीत कर ली गई ज़मीन किसानों को वापस नहीं लौटाई जा सकती। फिर विवादित भूमि जहां-तहां बिखरी हुई है और इसे किसानों को लौटाने का मतलब होगा पूरी परियोजना को खत्म कर देना।
रतन टाटा वाममोर्चा सरकार के इसी रवैये के दम पर धमकी दे रहे हैं कि कोई ये न समझे कि वो 1500 करोड़ रुपए का निवेश बचाने के लिए सिंगूर में पड़े रहेंगे। लेकिन पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री अशोक मित्रा के मुताबिक सरकार की तरफ से टाटा की इस परियोजना को लगभग 850 करोड़ रुपए की सब्सिडी दी गई है। बंगाल के लोकल टीवी चैनल ने दिखाया था कि राज्य सरकार ने भूमि के लिए 140 करोड़ रुपए का मुआवज़ा दिया है, जबकि टाटा की तरफ से केवल 20 करोड़ रुपए दिए जाने हैं वो भी पांच साल बाद। टाटा को इस पर कोई स्टैंप ड्यूटी नहीं देनी है और परियोजना के लिए मुफ्त पानी का बोनस ऊपर से।
इतना कुछ पाकर भी टाटा समूह संतुष्ट नहीं है। सिंगूर के बारह हजा़र किसानों को उम्मीद थी कि ज़मीन जाने से उपजी असुरक्षा को दूर करने का वो कोई न कोई पुख्ता उपाय करेगा। ऐसे में ममता बनर्जी अगर अपनी राजनीति चमकाने के लिए कोई आंदोलन कर रही हैं तो क्या आज़ादी के पहले से लेकर अब तक सत्ता और सरकारों के ‘दामाद’ बने रहे टाटा समूह को इस तरह भागना शोभा देता है? ये ठीक है कि टाटा समूह खेलों से लेकर शिक्षा तक में बहुत सारा कल्याणकारी काम करता रहा है। लेकिन क्या 1.5 लाख करोड़ रुपए के सालाना टर्नओवर वाला टाटा समूह सिंगूर के 12,000 हज़ार प्रभावित किसानों के सुरक्षित भविष्य का बीड़ा नहीं उठा सकता? क्या वो इन्हें इनकी ज़मीन के बदले टाटा मोटर्स के इतने शेयर नहीं दे सकता कि इनकी पुश्तों का भविष्य सुरक्षित हो जाए?
शायद आपको याद होगा कि टाटा समूह ने साल भर पहले ही यूरोपीय कंपनी कोरस के अधिग्रहण पर 54,800 करोड़ रुपए (13.7 अरब डॉलर) खर्च किए हैं, जबकि पूरे भारत का साल 2008-09 का शिक्षा बजट 34,400 करोड़ रुपए का है। क्या इतने बड़े साम्राज्य के बावजूद टाटा के इस रवैये को देखते हुए उत्तराखंड से लेकर गुजरात या महाराष्ट्र को उसे अपने यहां नानो परियोजना लाने का न्यौता देना जनहित में है? फिर, क्या किसी भी राज्य को पिछड़ा बनाए रखना हमारे व्यापक देशहित में है?
8 comments:
सही-ग़लत तो ठीक है पर सच्चाई तो यही है की जब तक 'privatization of profit and socialization of risk' की नीति नहीं अपनाते... विकास अगर असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है. अभी तक तो इतिहास यही कहता है.
बहस में उतरे तो सारा झगड़ा विकास के लिए देश में अपनाए गए रास्ते पर जा कर टिकेगा जिस पर अभी बात करना फिलहाल बंद है।
आँखे खोल दे... गहरी पड़ताल करती आपकी पोस्ट।
विचारोत्तेजक लेख।
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आज तो आपकी हाँ में हाँ मिलाने की नहीं होती, अनिल भाई !
क्योंकि आज आप केवल एकांगी लिख पाये हैं, किसी भी औद्धोगिक समूह को कोसते समय, इस मुद्दे के राजनीतिकरण पर बिल्कुल खामोश रह गये । इस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है... किन्तु यदि आप ही लिखें तो अच्छा लगेगा ।
बेचारे साम्यवादी; टाटा से इस सीमा तक जाने की अपेक्षा नहीं कर रहे थे।
Abhishek ji, Please explain in detail what 'privatization of profit and socialization of risk' means.
ye bhi nahi kah sakta ki dil khush ho gaya, par sach me bahut wastivkta hia aapke lekhan me
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