भैंसि कूदि गय पानी मां, घाटा लागि...

बचपन में सुनी और बोली गई इस कहावत का अर्थ मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं कि भैंसि कूदि गय पानी मां, घाटा लागि जवानी मां। हां, इतना ज़रूर लगता है कि इसमें कुछ गड़बड़ है, कुछ ऐसा है जो बच्चों के मुंह से शोभा नहीं देता। ऐसा इसलिए क्योंकि बाहर से सुनी और रटी-रटाई यह कहावत जब मैंने छुटपन में अम्मा-बाबूजी के सामने बोल दी थी तो अम्मा ने पहले तो अवाक होकर बाबूजी की तरफ देखा और फिर मुझे आंखें तरेर कर डपट दिया था। बाहर अपने से पांच-दस साल बड़े लड़कों से इस कहावत का मतलब पूछा तो वे ऐसे हंस पड़े जैसे मुझसे बड़ा मूर्ख उन्होंने पहले देखा ही न हो।

इसी तरह का एक और वाकया है। मैं आठ-नौ साल का रहा हूंगा। घर में मनोरंजन के साधन के नाम पर फिलिप्स का एक रेडियो था जो चाचा की शादी में मिला था। अम्मा-बाबूजी पढ़ाने चले जाते थे तो मैं उस पर गाने सुनता था। सुनता था तो कुछ गाने याद भी हो जाते थे। और याद हो जाते थे तो खुश होने पर मैं उन्हें गाता भी था। एक दिन शाम को घर के आंगन में सबकी मौजूदगी में मैंने टेर दिया – कजरा मोहब्बत वाला, अंखियों में ऐसा डाला, कजरे ने ले ली मेरी जान, हाय रे मैं तेरी कुर्बान। बाबूजी चाय पीना छोड़कर उठे और खट से मेरे गाल पर एक तमाचा रसीद कर दिया। मैं सुबकने लगा तो अम्मा ने भी चुप नहीं कराया।

इन दोनों ही यादों के ज़रिए मैं कल और आज का एक कॉन्ट्रास्ट दिखाना चाहता हूं। कल को मां-बाप बराबर चौकन्ने रहते थे कि बच्चा कोई गलत बात न सीख ले, उसके संस्कार गलत न पड़ जाएं। मां बचपन में भगत सिंह से लेकर महात्मा गांधी और स्वतंत्रता सेनानियों के किस्से सुनाती थी। आज अक्सर बच्चे मां-बाप के साथ ही बैठकर सस्ते-मद्दे सभी किस्म के टीवी सीरियल और फिल्में देखते हैं। मां मोहल्ले, सोसायटी या स्कूल के कंपटीशन के लिए 8-10 साल की बच्ची को कजरारे-कजरारे, जस्ट चिल जैसे गानों पर बड़ों की अदाओं से नाचना सिखाती है।

ज्यादातर माताएं अपनी सहूलियत और बच्चों की मांग के हिसाब से फैसले करती हैं। टिफिन में कुछ भी अगड़म-बगड़म भर दिया जाता है, बर्गर से लेकर चिप्स और चॉकलेट तक। न बोलने-सोचने के संस्कार पर ध्यान दिया जाता है, न ही खाने-पीने की आदतों पर। महाराष्ट्र और गुजरात में शायद परिवारों में संस्कारों और मूल्यों के प्रति इतनी उपेक्षा का भाव नहीं आया है। लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और पंजाब में ज्यादातर ऐसा ही है, खासकर नव धनाढ्य परिवारों में।

दूसरी तरफ इन्हीं परिवारों में बच्चों को मंदिरों में ले जाकर हाथ जोड़वाने और घंटी बजवाने का ढकोसला भी चलता है। घर में हवन और सत्यनारायण की कथा में उनको बैठाया जाता है। कहीं-कही तो ऐसा भी है कि गायत्री और महा-मृत्युंजय जैसे कठिन मंत्र तक बच्चों को रटवा दिए जाते हैं। लेकिन बस दिखावे के लिए कि कभी कोई बाहर से आए तो धाक जमाने के लिए बच्चे से कह दिया – बेटे, अंकल को महा-मृत्युंजय मंत्र सुनाओ, वही त्र्यंबकम यजामहे वाला।

मुझे लगता है कि आज कल मां-बाप या तो बच्चों के प्रति पहले जैसे चौकन्ने नहीं रहे हैं या खुद उन्हें लगता है कि पुराने संस्कारों और मूल्यों का अब कोई मतलब नहीं रह गया है तो बच्चों पर क्यों थोपा जाए। नया कुछ नहीं है तो पुराने अनुष्ठानों और कर्मकांडों का पालन ज़रूर कर लेते हैं। लेकिन, एक तो पुराने में सब कुछ त्याज्य और अप्रासंगिक नहीं है। जैसे, खाने-पीने के नियमों से लेकर लोक और जातक कथाओं तक में कमाल के सबक हैं। दूसरे, नए में डिस्कवरी से लेकर हिस्ट्री चैनल बहुत कुछ ऐसा पेश कर रहे हैं जो बच्चों के क्षितिज को विस्तार दे सकता है। फिर नई चीज़, नई बात तो खुद को छोटे-छोटे रूपों में उद्घाटित करती चलती है। चौकन्ने लोग उसे पकड़ ही लेते हैं।

Comments

chavannichap said…
हमारे यहां कहते थे... डूबल डूबल भैंसिया पानी में, दूधो ना देलक जवानी में
काकेश said…
आपकी सोचक क्षमता का मुरीद होते जा रहा हूँ. कुछ दिनों से ऎसे ही कई प्रश्नों से मैं भी जूझ रहा हूँ. भविष्य़ की नींव वर्तमान में पड़ती है और बच्चे का वर्तमान मां बाप के हाथों में है. इसलिये वही हैं नियति नियंता. अच्छा लिखा आपने.
Anonymous said…
जो माता पिता अपने बच्चों पर ध्यान नहीं दे रहे हैं उनका बचपन भी सही नहीं बीता होगा !
-गौरव
Anonymous said…
भैंस कूदि गय पानी मां,घाटा लगा जवानी मां की व्याख्या का अधिकार शायद शब्दों का सफ़र के अजित जी को है। लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि जवानी में दूध का व्यापार करने के लिहाज से कोई बालक भैंस (शायद वह भी जवान रही होगी) खरीद के ले जा रहा होगा। भैंस(गर्म) पानी को देखकर उसमें कूद गयी होगी। और बालक घाटावस्था को प्राप्त हुआ होगा। बाकी बच्चों वाली बात सही है।
यह पीढ़ियों का अंतर जरूर है; पर पुरानी पीढ़ी केवल सुसंस्कार भरती रही हो - सो नहीं है। देश की आजादी के तुरंत बाद के लोगों ने जम के लूटा देश को। भ्रष्टाचार बल्कि अब कम होना शुरू हुआ है। कोटा-परमिट राज चला कर न केवल यह परिचय दिया कि कुशल प्रबन्धन नहीं आता, वरन यह भी दर्शाया उस पीढ़ी ने कि अक्षमता पर कैसे प्रीमियम काटा जाये।
आज विज्ञान ने विश्व को हमारे संसार मे शामिल कर दिया है. विश्व 'ग्लोबल विलेज' कहलाता है. एक साथ कई संस्कृतियों को आत्मसात करना आसान नहीं.
पुराने का मोह और नए का आकर्षण स्वाभाविक है. पुराने का मोह बना रहे , इसके लिए पुरानी पीढ़ी को ही सर्तक रहना होगा.
"मुझे लगता है कि आज कल मां-बाप या तो बच्चों के प्रति पहले जैसे चौकन्ने नहीं रहे हैं " मैं आपकी बात से सहमत हूँ.
बहुत अच्छा चित्र खींचा है बचपन का । हमारी भी ऐसी कई यादें हैं। सौ फीसद सहमत हूं अनिलभाई आपकी बात से । यही मूर्खता जारी है।
अनूपजी की बात पर न जाइयेगा। अपने शौक की खातिर शब्दों पर थोड़ा बहुत लिख लेते हैं। जितना पढ़ते समझते हैं , उतना ही सबसें बांट लेते हैं। बस्स बाकी इस भैंस के पीछे हम पड़ गए समझो:)
Udan Tashtari said…
धिक ही चौकन्ने हो गये गये हैं उन्हें आधुनिकता की तथाकथित दौड़ में शामिल करने. खुद पूरी तरह अपने को शामिल नहीम कर पा रहे भरपूर दिखावे के बाद भी, तो शायद बच्चे ही अंग्रेजी में गाली बक कर उनकी मन की मुराद पूरी कर दें. असर तो जब बुढ़ापा आयेगा तब दिखेगा मगर तब तक देर हो चुकी होगी रिवर्स गैयर लगाने में.

बाकी आप कोई लोकगीत गाकर कभी पॉडकास्ट करें. आपकी तारीफ सुन चुका हूँ कहीं किसी पोस्ट पर. :)
Udan Tashtari said…
मुझे तो लगता है कि कुछ अधिक ही चौकन्ने हो गये गये हैं उन्हें आधुनिकता की तथाकथित दौड़ में शामिल करने. खुद पूरी तरह अपने को शामिल नहीम कर पा रहे भरपूर दिखावे के बाद भी, तो शायद बच्चे ही अंग्रेजी में गाली बक कर उनकी मन की मुराद पूरी कर दें. असर तो जब बुढ़ापा आयेगा तब दिखेगा मगर तब तक देर हो चुकी होगी रिवर्स गैयर लगाने में.

बाकी आप कोई लोकगीत गाकर कभी पॉडकास्ट करें. आपकी तारीफ सुन चुका हूँ कहीं किसी पोस्ट पर. :)
वही परिवर्तन ही छिपा है इन सब के पीछे. ज्ञान भइया की बात भी बिल्कुल ठीक है.
Unknown said…
आपने बच्चों पर लिखा तो अच्छा कियां। लेकिन हूजूर माफ करें हर बात को अपने से चिपका कर क्यों देखते है। ठीक उस बच्चे की तरह जो मां का पल्लू छोडना ही नहीं चाहता।
विपिन

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