इस शहर में हर शख्स परेशां-सा क्यूं है

मैं क्या कर रहा हूं और मुझे क्या करना था? कितने सारे लोग हैं जो अक्सर खुद से ये सवाल पूछते रहते हैं। ज़िंदगी और पेशे से एक असंतुष्टि उनके जेहन में छा जाती है और वे परेशां-से हो जाते हैं। ऐसा हाल नौकरी या अपना काम-धंधा तक कर रहे उन नौजवानों का है जो सामाजिक रूप से काफी संवेदनशील हैं, किसी ज़माने में समाज को बदलने के काम में ही उन्हें जीवन की सार्थकता नज़र आती थी। जुलूस में नारे लगाए, गांवों, शहरों, कस्बों में जाकर नुक्कड़ नाटक किए। लेकिन आज वे घर की चारदीवारी और दफ्तर के रूटीन में भयंकर निस्सारता का एहसास कर रहे हैं।
इस मन:स्थिति में अक्सर वो दो अतियों के बीच झूलते रहते हैं। कभी भयंकर उल्लास की स्थिति रहती है। इतना जोश, इतनी ऊर्जा अंदर भर जाती है कि लगता है क्या कर डालें। फिर कभी भयंकर अवसाद में डूब जाते हैं। सब कुछ निरर्थक लगने लगता है। काम-धंधे से लेकर अपनी नौकरी तक। बस, यही भाव पूरे वजूद पर छा जाता है कि हम कर क्या रहे हैं, इसका क्या मतलब है। मनोचिकित्सक इसे बाई-पोलर डिस-ऑर्डर कहते हैं। लेकिन हम इसे अपनी किस्मत या अतीत की किसी चूक का नतीजा मानते हुए दो-धुव्रीय सफर करते रहते हैं।
जी हां, डिप्रेशन हमारे वक्त की एक बड़ी समस्या है। विकसित देशों में इसे स्वीकार कर लिया गया है और कोई भी इसके लक्षण दिखते ही मनोचिकित्सक के पास पहुंच जाता है। लेकिन अपने यहां ज्यादातर लोग इसे बीमारी मानने को तैयार नहीं हैं। जो बीमार हैं उनको कह दो तो शायद वे भड़क भी जाएंगे। इसे अजीब-सी सामाजिक नैतिकता और प्रतिष्ठा से जोड़कर देखा जाता है। बहुत से लोग तो इस तरह परेशान रहने को अपनी संवेदनशीलता का तमगा मानते हैं।
गांवों में कोई नौजवान इस अवसाद और उल्लास के झूले पर झूलने लग जाए तो मां-बाप मान लेते हैं कि ज़रूर इस पर कोई साया है, किसी अड़ोसी-पड़ोसी ने उनके बच्चे पर कोई भूत-प्रेत डाल दिया है। और, अगर चंद लोग इसे बीमारी समझते भी हैं तो अपने यहां इसे समझनेवाले डॉक्टर नहीं है। आप यकीन करेंगे कि अपनी एक अरब से ज्यादा आबादी पर मनोचिकित्सकों की संख्या महज 35,000 है, जबकि एक अध्ययन के मुताबिक देश में कम से कम पांच करोड़ लोग इस समय अवसाद के शिकार हैं?
आम डॉक्टर इसका इलाज कर नहीं सकता क्योंकि पांच साल के एमबीबीएस के कोर्स में महज पंद्रह दिन मनोरोगों के बारे में पढ़ाया जाता है। अवसाद की हालत में दोस्त भी ज्यादा मदद नहीं सकते। हमारी अपेक्षाएं बढ़ गई होती हैं। हम बार-बार अपनी समस्याएं लेकर उसके पास पहुंचते हैं। धीरे-धीरे वह हमारी उपस्थिति से ही खीझने लगता है और हम से कन्नी काटना शुरू कर देता है। कोई ऐसी किताब भी नहीं मिलती जिसके पढ़ने से हमे इस दुष्चक्र से बाहर निकलने की कोई डोर मिल जाए।
फिर किया क्या जाए? बड़ा मुश्किल सवाल है यह। किसके पास जाएं? आसपास कोई कायदे का मनोचिकित्सक भी तो नहीं है। लेकिन क्या हम फर्स्ट एड के तौर पर इससे निकलने का कोई दार्शनिक सूत्र नहीं खोज सकते? मुझे लगता है कि शायद एक सूत्र ऐसा हो सकता है। और वह यह है : सच है कि हम जो चाहते थे, वह हमें नहीं मिला। लेकिन जो मिला है क्या हम उसे नया मौका समझकर नए सपने नहीं संजो सकते! अपने सपनों में यकीन ज़रूरी है क्योंकि सपने या तो सच हो जाते हैं या देर-सबेर सच हो सकते हैं।

Comments

who cares... said…
pareshani ki niyati uska sulajhana hee hai...just look inside...
who cares... said…
life is so simple...just prioritize it..
सच है कि हम जो चाहते थे, वह हमें नहीं मिला। लेकिन जो मिला है क्या हम उसे नया मौका समझकर नए सपने नहीं संजो सकते!
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सटीक! ग्लास आधा भरा है उसपर ध्यान केन्द्रित करना समाधान है। पर "ध्यान केन्द्रित करना" ही समस्या बन जाता है! :-)
अभ्यास अभ्यास और अभ्यास - यही करना चाहिये।
प्रिय अनिल

हर पेराग्राफ के बीच एक अतिरिक्त खाली पंक्ति डाल दो तो पठनीयता बढ जायगी.

लेख में एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा है. इसका कोई एक हल नहीं है. बल्कि जीवन में इन चीजों से बचने के लिये एक रणनीति की जरूरत है. इन रणनीति में बहुत सारी बातों का ख्याल रखना पडेगा.

आप शायद कहें कि यह तो बहुत कठिन है. हां, वाकई में कठिन है. लेकिन इनको न करने पर जो कठिनाई होती है उतना कठिन नहीं है -- शास्त्री जे सी फिलिप

हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
सवाल मौजूं है, जबाब नदारद। फिलहाल तो हम यही कहेंगे कि व्यस्त रहें ,मस्त रहें।
अनिल जी,
बड़ी अच्छी बात उठायी आपने,आजकी जीवन शैली की देन है ये dipression ,और जहा तक मै जानती ्हूं,इसका एक ही इलाज है-प्राणायाम-जिससे बहुतों को फ़यदा होते स्वयं देखा है मैने ,और वैसे तो -कभी किसी को मुकम्मल जहां नही मिलता
कहीं ज़मी तो कही आस्मां नही मिलता ।
ghughutibasuti said…
जो विषय आपने उठाया है उसके उत्तर व समाधान इतने सरल नहीं हैं । ये समस्या ऐसी है कि इसका उत्तर किसी कुँजी में नहीं मिलेगा, ना इसे कोई आपके सामने परोस सकता है । एक मनःचिकित्सक भी उत्तर परोस नहीं सकता, वह हमारी उत्तर ढूँढने के तरीके सीखने में मदद भर कर सकता है । वह हमें अपना मन टटोलने व सच का सामना करने की हिम्मत करना सिखा सकता है ।
घुघूती बासूती

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