
लाइब्रेरियों में जाता हूं। किताबें टटोलता रहता हूं। कुछ पूरी पढ़ता हूं, कुछ आधी पढ़कर छोड़ देता हूं। हां, एक आत्मग्रस्त शोध में लगा हुआ हूं। कहीं किसी और के मिलने का शोध, जो मेरी जैसी समस्याओं और मेरे स्वभाव जैसे स्वभाव पर कोमल, मगर तीव्र प्रकाश डाले, उसे मूर्त करे, और नाज़ुक तरीके से, हल्के-से, बस यूं ही, इत्मीनान दिला दे और रास्ता चलते मुझे भी रास्ता बता दे। बस, एक गुरु की, एक गाइड दोस्त की, प्यार भरे सलाहकार की बड़ी, बहुत बड़ी ज़रूरत है, जिससे अंदर-बाहर के हर सवाल पर बहस की जा सके।
इसमें कोई शक नहीं कि अलग-अलग दौर और देशों में – यूरोप और अमेरिका से लेकर चिली, मेक्सिको या मॉस्को, लंदन, सेनफ्रांसिस्को, प्राग से लेकर दिल्ली और तिरुवनंतपुरम, कोच्चि में – मेरी जैसी समस्याओं वाले और मेरे जैसे स्वभाव वाले एक नहीं, अनेक हुए होंगे। कोई मुझे उनका लिखा उपन्यास ला दे या कोई निबंध। कविता भी चल जाएगी। यह ज़रूरी नहीं है कि वह आधुनिकतावादी हो। आधुनिकतावादियों को मैंने देख लिया है। उनमें दम नहीं है, वे पोचे हैं। वे समस्या को बड़ा करके बताते हैं और आदमी को छोटा करके नचाते हैं। वह भी एक स्वांग है।
इधर कई कई दिनों से विचित्र-सी मनोदशा से गुज़र रहा हूं। भयानक आत्मग्लानि ने घर कर लिया है। मैं क्या हो सकता था, लेकिन नहीं हुआ! मेरे विकास के संभावित विकल्प खड़े हो गए। मैंने पाया कि वह महान आत्मशक्ति मुझमें नहीं, जो मुझे पूरी तरह बदल डाले, मैं क्या का क्या हो जाऊं! मैं अपने खुद के कंधों पर चढ़ना चाहता हूं, आकाश छूना चाहता हूं। चाहे उस आकाश में हाइड्रोजन-अणु का धुआं ही क्यों न हो। मैं धरती के पेट में घुस जाना चाहता हूं चाहे वहां नाइट्रोजन बम के विस्फोटात्मक प्रयोग ही क्यों न हो रहे हों।
एक ज़माना था, जब मैं यह सोचता था कि जीवन की विभिन्न महत्वपूर्ण मानवीय सामाजिक क्रियाओं का मैं अंश हो जाऊं, उन प्रक्रियाओं के केंद्र का हिस्सेदार बनकर उस केंद्र की सारी ऊष्मा को, सारे द्वंद्व को, उसकी सारी समस्याओं और प्रेरणाओं को सोख लूं। उस क्रिया के केंद्र की सारी चिनगारियों से सुलगता हुआ मैं आगे बढ़ूं। मेरे लेखे, जीवन का सर्वोच्च आनंद इसी में है।
किनारे पर रहकर तटस्थ रहकर (disengaged रहकर, uncommitted रहकर) ज़िंदगी जीना भद्रलोक के सफेद कुर्तों के आरामकुर्सीदार वातावरण में पहुंचा दे, भले ही हम भद्रलोक की शानदार सादगी और आरामदेह चमकीलेपन के रंगों से अपने आसपास के अल्प-भोजियों को अपनी महत्ता का बोध करा दें, भले ही हम अपने मित-भाषण से बौद्धिक संस्कृति और कलात्मक अभिरुचि की धाक जमा लें, लेकिन हम वो ज़िंदगी नहीं जी सकते, जिसे मैं, अपने शब्दों में, बिजली भरी तड़पदार ज़िंदगी कहता हूं। ऐसी ज़िंदगी जिसमें अछोर, भूरे, तपते मैदानों का सुनहलापन हो, जिसमें सुलगती कल्पना छूती हुई भावना को पूरा करती है, जिसमें सीने का पसीना हो और मेहनत के बाद की आनंद-भरी थकान का संतोष हो।
बड़ी और बहुत बड़ी ज़िंदगी जीना (immense living) तभी हो सकता है, जब हम मानवजाति की केंद्रीय प्रक्रियाओं के अविभाज्य और अनिवार्य अंग बनकर जिएं। तभी ज़िंदगी की बिजली सीने में समाएगी।
नोट - ये मेरी नहीं, किसी और की डायरी का हिस्सा है जिसे करीब पचास साल पहले लिखा गया था। सोचिए, इंसान और समय किस कदर ठहरा हुआ है।
10 comments:
अंतिम पंक्तियां पढकर लगा कि समय सचमुच ठहरा हुआ है.
समय के समंदर में परिस्थितियों की लहरों पर सवार होकर अपने संकल्प की नौका को सुविचारित प्रतिबद्धता की पतवार से खेते हुए आगे बढ़ते जाना निश्चय ही रोमांचकारी होता है।
कोई मंजिल जरूरी नहीं, सही और मनचाही दिशा में आगे बढ़ना और सामने आने वाली बाधाओं और परिस्थितियों के चक्रवातों-झंझावातों का सामना करते हुए राह पर डटे रहना ही शायद वह बिजली भरी तड़पदार जिंदगी है।
यह तो विशुद्ध संयोग की बात है कि जब परिस्थितियों की लहर अचानक तेज उठती है तो कौन उसके वेग के साथ ताल मिलाते हुए सबसे ऊंचाई तक पहुंचता है और समंदर में बहुत दूर तक तेज हलचल भरी तरंगें छोड़ जाता है।
इतनी बीहड़, बौद्धिक लंगियां मत दीजिए.. पढ़नेवाले कांप-हांफ जाएंगे.. मैं तो ठहरा हुआ हूं ही..
आश्चर्य है,तब और अब में फ़र्क आखिर है कहां,जब सस्पेंस आपने खोला तो मैं थोड़ा चौंक गया था..
आधुनिकतावादियों को मैंने देख लिया है। उनमें दम नहीं है, वे पोचे हैं। वे समस्या को बड़ा करके बताते हैं और आदमी को छोटा करके नचाते हैं। वह भी एक स्वांग है।
काम की बात है. नोटिस करने की जरूरत है.
कल मेरी और आपको बातों को शायद किसी ने किसी और जगह महसूस कर वो डायरी लिखी होगी ... बहरहाल हमारी भावनाओं को पंक्तियों की शक्ल दी इसलिए धन्यवाद
अद्भुत, सच में लगा कि वक्त थम सा गया है.
जवाब भी इसी लेख में है -
"बड़ी और बहुत बड़ी ज़िंदगी जीना (immense living) तभी हो सकता है, जब हम मानवजाति की केंद्रीय प्रक्रियाओं के अविभाज्य और अनिवार्य अंग बनकर जिएं। तभी ज़िंदगी की बिजली सीने में समाएगी।"
बाबू मोशाय जिंदगी बडी होनी चाहिये, लंबी नहीं।
दुनियां को ठोकपीट कर देखने से पहले हर व्यक्ति को लगता है कि वह सब कुछ जानता है, उसने सब कुछ देख लिया है, उसकी सोच सबसे सही सोच है, एवं वह सब कुछ हल कर सकता है.
लेकिन कई दशाब्दी संघर्ष करने के बाद वह समझ लेता है कि सहस्त्रों साल पहले अन्य कई इस अनुभव से होकर गुजर चुके है. इसे समझते समझते उसकी जिंदगी का एक अच्छा भाग खतम हो जाता है. लेकिन यदि हम लोग अन्य लोगों के अनुभव, अनुभूति, एवं मनन को पढने की आदत डाल लें तो ठोकरें खाकर सीखने एवं बहुमूल्य समय बर्बाद करने के बदले बहुत सारी मूल्यवान बातें बहुत जल्दी समझ सकते है.
इस चुनी प्रविष्ठि को मैं ने इस कोण से पढा एवं काफी आनंद प्राप्त किया -- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
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