दो धुव्रों में बंट गया देश, खुल गया देश

यकीन नहीं आता तो सोनी से लेकर स्टार प्लस और ज़ी टीवी पर होनेवाले इंडियन आइडल, बूगी-वूगी और सारेगामा जैसे कार्यक्रमों को देख लीजिए। इंदौर, बीकानेर, शिलांग और दार्जिलिंग से लेकर कोलकाता और दिल्ली तक के मध्यवर्गीय घरों के मां-बाप और बच्चे आपको टेलिविजन स्क्रीन पर हिलोरे लेते नज़र आ जाएंगे। बच्चे और जवान ही नहीं, अधेड़ उम्र की मम्मियां तक आपको स्क्रीन पर कमर लचकाती दिख जाएंगी। और, मज़े की बात है कि वो इन कार्यक्रमों में लुक-छिपकर नहीं, अपने पति, यहां तक कि पिता और ससुर के साथ हिस्सा लेने पहुंच रही हैं। सचमुच आज से दस साल पहले मध्यवर्ग पर छाई इस लहर की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। कामयाबी का नया शॉर्टकट खोल दिया है टेलिविजन के इन रियल्टी-शोज़ ने।

मध्यवर्ग पर छाए इस उन्माद की तस्दीक करता है एक ताज़ा ग्लोबल सर्वे। AXA Asia-Life की तरफ से किए गए इस सर्वे के मुताबिक 85 फीसदी से ज्यादा भारतीय अपनी ज़िंदगी और करियर को लेकर बड़े संतुष्ट हैं। आशावादी नज़रिये के मामले में भी 72 फीसदी के आंकड़े के साथ भारत सबसे आगे है। हां, भारत की अहमियत थोड़ी-सी इस बात से ज़रूर घट जाती है कि मौजूदा ज़िंदगी से संतुष्टि के बारे में फिलीपींस भी उसके बराबर खड़ा है।

वैसे, तो पूरे भारत के बारे में इस सर्वे से बड़ा झूठ कोई हो नहीं सकता। लेकिन अगर भारतीय मध्यवर्ग की बात करें, इंडिया की बात करें तो शायद इसकी सच्चाई पर एक हद तक भरोसा किया जा सकता है। हालांकि, अंग्रेजी भाषा और इस सर्वे की मजबूरी है कि इसमें इंडिया और इंडियन शब्द का ही इस्तेमाल किया गया है। भारत की बढ़ती साख का एक और प्रमाण इस बात को माना जा रहा है कि विदेशी प्रोफेशनल अब भारत में नौकरी करना चाहते हैं। टाइम्सजॉब डॉट के मुताबिक उस पर 1.10 लाख विदेशियों ने भारत में नौकरी के लिए अपना प्रोफाइल डाल रखा है।

दूसरी तरफ International Food Policy Research Institute (IFPRI) के ताजा ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2007 के मुताबिक तमाम आर्थिक प्रगति के बावजूद भारत भूख और गरीबी मिटाने में चीन ही नहीं, पाकिस्तान से भी नीचे चला गया है। रिपोर्ट के मुताबिक कृषि और ग्रामीण इलाकों की उपेक्षा इसकी सबसे प्रमुख वजह है। यह इंडेक्स आबादी में कुपोषण के साथ ही पांच साल तक के कम वजन बच्चों की स्थिति को दर्शाता है।

भारत इस इंडेक्स में पूरी दुनिया में 94वें नंबर पर है, जबकि पाकिस्तान का नंबर 88वां और चीन का नंबर 47वां है। चिंता की बात यह है कि 1990 से लेकर अब तक सत्रह सालों में भारत भुखमरी से ग्रस्त आबादी के अनुपात को 33.73 से 8.7 फीसदी घटाकर 25.03 फीसदी ही कर पाया है, जबकि अगले आठ सालों यानी 2015 तक इसमें 17.6 फीसदी कमी का लक्ष्य रखा गया है।

भारत की ही ये दो तस्वीरें साफ कर देती हैं कि आर्थिक उदारीकरण के चालू दौर में देश दो हिस्सों में बंटता जा रहा है। एक तरफ ज़िंदगी खुल रही है, खिलखिला रही है, अमेरिकन आइडल की तर्ज पर इंडियन आइडल बन रहे हैं तो दूसरी तरफ भरपेट खाने के भी लाले पडे हुए हैं, बच्चे कुपोषण से मर रहे हैं, किसान खुदकुशी कर रहे हैं। लेकिन क्या इसे महज सिक्के का दो पहलू कहा जा सकता है या डूबती हुई नांव जिसमें एक तरफ छेद हो चुका है और उधर से नांव में लगातार पानी भरता जा रहा है?

Comments

Unknown said…
नाव की उपमा एकदम सही दी है आपने, सचमुच पानी भर रहा है और वो भी तेजी से, नाव जब डूबेगी तो दूसरा हिस्सा भी नहीं बचने वाला है.. नुकसान उसे ज्यादा होता है जिसके पास कुछ होता है, उसे क्या नुकसान होगा, जो भुखमरी के कगार पर खड़ा है... एक भयानक मंजर की ओर बढ़ रहे हैं हम..
दरअसल कुपोषण जैसी कमी को कमर लचका के पूरा करने की कोशिश हो रही है!
कुपोषण को एक सामाजिक समस्या की तरह लेने की जरूरत है।
असमानता बढ़ रही है - जरूर। धनी 10 गुना धनी हो रहा है। पर दरिद्र की दरिद्रता में दिखाई देने योग्य कमी है या नहीं? यह महत्वपूर्ण है।
आप असमानता टेकल करना चाहते हैं या दरिद्र का स्तर बढ़ाना चाहते हैं। और वह स्तर कैसे बढ़ सकता है?
Batangad said…
वही है कि कभी इंडिया भारत की लड़ाई जैसा दिखता है तो, कभी इंडिया-भारत एक दूसरे के साथ कदमताल करते दिखते हैं।

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