
रिज़वान के साथ आज पूरे देश का मुखर तबका आ खड़ा हुआ है। उसके नाम पर वेबसाइट बन गई है, तमाम अंग्रेज़ी ब्लॉगों ने मुहिम चला रखी है कि उसकी हत्या में शामिल लोगों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिले। मैं भी उनकी इस मुहिम का समर्थक हूं। लेकिन मेरे साथ एक समस्या है। इस मामले में शामिल होने के आरोप में कोलकाता के पुलिस कमिश्नर प्रसून मुखर्जी के अलावा जिन चार पुलिस अधिकारियों का ट्रांसफर किया गया है, उनमें से एक हैं डिप्टी कमिश्नर (हेडक्वार्टर्स) ज्ञानवंत सिंह। ज्ञानवंत इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्र आंदोलन के दौरान हमारे साथ थे। उन्हें मैं बेहद न्यायप्रिय, सच्चे और साहसी नौजवान के रूप में जानता हूं। आईएएस में चुन लिए गए, तब पता चला कि वे पढ़ते-लिखते भी थे और मेधावी छात्र थे।

रिज़वान ने अपनी मौत से पहले जिन चार पुलिस अधिकारियों पर परेशान करने का आरोप लगाया है, उनमें ज्ञानवंत भी शामिल हैं। बताते हैं कि उन्होंने पुलिस हेडक्वार्टर में बुलाकर रिज़वान को ‘समझाया’ था कि वह प्रियंका टो़डी से रिश्ते तोड़ दे। हालांकि ज्ञानवंत से जुड़े लोगों का कहना है कि उन्होंने पुलिस कमिश्नर के कहने पर प्रियंका टोडी से बातचीत की थी और रिज़वान की हत्या या खुदकुशी से उनका कोई वास्ता नहीं है। ज्ञानवंत से पिछले चार साल से मेरी कोई बातचीत नहीं हुई है। लेकिन इलाहाबाद ही नहीं, उनके अब तक के पुलिस करियर को देखकर भी मुझे यकीन नहीं आता कि कभी अपने साथी रहे ज्ञानवंत रिज़वान की हत्या की साज़िश में शामिल हो सकते हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि ज्ञानवंत सिंह अब भी पहले की तरह दुस्साहसी हैं। मुर्शिदाबाद के एसपी थे, तब 2004 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने अपराधी छवि वाले कांग्रेसी उम्मीदवार अधीर चौधरी के खिलाफ जनसभाएं की थीं, जिसमें पुलिस रिकॉर्ड से चौधरी की पूरी हिस्ट्रीशीट पढ़ी गई थी। इसके बाद 2005 में जब वे डिटेक्टिक विंग के प्रमुख थे, तब उनकी देखरेख में निकले कोलकाता पुलिस गजट में घूस का रेट कार्ड छाप दिया गया था, जिसमें पूरा ब्यौरा था कि जेल में बंद किसी अपराधी को महंगी शराब या मोबाइल इस्तेमाल करने के लिए कितनी घूस देनी पड़ेगी। इन दोनों ही मामलों में उनके खिलाफ आवाज़ उठी। लेकिन पिछले रिकॉर्ड को देखते हुए उन्हें बख्श दिया गया।
रिज़वान की हत्या का सच तो हो सकता है कि सीबीआई जांच के पूरा होने के बाद सामने आ जाए। यह भी संभव है कि अपने ज्ञानवंत भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से गुनहगारों में गिन लिए जाएं। लेकिन यह सच तो अभी से साबित माना जा सकता है कि शासन तंत्र में शामिल होने के बाद व्यक्ति का कोई अलग वजूद नहीं रह जाता। उसकी हैसियत मशीन के पुर्जे भर की रह जाती है। यह वो सच है जिसे हम लोग (जिसमें ज्ञानवंत भी शामिल थे) छात्र राजनीति के दौरान अक्सर दोहराया करते थे और इसे प्रशासनिक सेवाओं में न जाने का आधार बनाते थे।
9 comments:
'इंसानों के इस जंगल में , शिकार होते देखा दिन के सूरज में --- बहुत दुख होता है यह सब जान कर.. बस हम दुख प्रकट करते हैं और अपने जीवन मे व्यस्त हो जाते हैं...
शासन तंत्र में शामिल होने के बाद व्यक्ति का कोई अलग वजूद नहीं रह जाता।
-सच ही है. और जो भी अलग कुछ करना चाहता है उसका हश्र भी बहुत बुराहोता है. यही सहूलियत का रास्ता नजर आता है अधिकतर को.
ज्ञान भाई जब से पुलिस में गए हैं उनसे सम्पर्क नहीं है.. ज्ञान भाई ने ही मुझे सीपीआई एम एल का कार्डधारी सद्स्य बनाया था उन दिनों पार्टी भूमिगत हुआ करती थी.. लिबरेशन भी छिपकर पढ़ा-पढ़ाया जाता था.. कार्यालय के पीछे आई बी का कार्यालय था..
किसे मालूम था ज्ञान भाई आगे वाले कार्यालय से पीछे वाले कार्यालय में पहुँच जायेंगे.. फिर भी कितना बदले होंगे ज्ञान भाई.. जो बातें आप बता रहे हैं उस से तो नहीं लगता कि वो मूलतः बदले हैं..
हम एक न्यायपूर्ण दुनिया बनाने के सपने देखने वाले नौजवान थे.. इन्ही साझे आदर्शों के चलते हम एक दूसरे की इज़्ज़त करते थे..
रिज़वान के साथ अन्याय में उनकी कोई भूमिका होगी... इसे स्वीकार कर पाना मेरे लिए काफ़ी मुश्किल है..
लेकिन यह सच तो अभी से साबित माना जा सकता है कि शासन तंत्र में शामिल होने के बाद व्यक्ति का कोई अलग वजूद नहीं रह जाता। उसकी हैसियत मशीन के पुर्जे भर की रह जाती है।
एक्दम सही लिखे हैं आप
ज्ञानचंद इसमें शामिल थे या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा पर कीचड़ में रह कर छीटों से कहां बचा जा सकता है। एक बात तो तय है कि पुलिस को इस मामले में दखल देने का कोई अधिकार नहीं था और जो कुछ हुआ बहुत बुरा हुआ
Thanks for linking to my site.
It certainly is sad to helplessly witness a friend's name among the suspected police officers. As other readers said, it is hard to maintain one's integrity after joining such a rigorous system. When one is a salaried serviceman, one has to follow orders from the seniors.
We sections of Bengal's youth are angry; I have changed the usual personal content of my blog since the tragedy to generate public opinion against the suspected conspiracy. Now when the CBI investigations are on, we consider our endeavor to be a partial success, now we will have to wait and watch critically.
But this event still keeps lot of issues open for scrutiny; among them this question is really pertinent: can one protest against the corruption of a system and one's seniors when one is within the system?
Not an easy question to answer if one becomes self-critical.
Thanks again for a touching post.
पुलिस महकमे का क्या रोल है यह तो वक्त ही बतायेगा लेकिन मूल प्रशन को लें कि कोई भी धर्म हमको क्या आखिर दे सकता है , न छत , न रोटी और न प्यार का जज्बाद , फ़िर भी हम धार्मिकता का लेबल लगा के घूमते फ़िरते हैं ।
मैं ज्ञानजी पर शक नहीं करना चाहता पर फिर भी मन में एक बात उठती है किआपने उन्हें चार साल पहले देखा और बात की थी; चार सालों में तो दुनियाँ कितनी बदल जाती है, हो सकता है....
वैसे रिजवान को न्याय मिलने की तो बात ही भूल जाईये क्यों कि एक तरफ करोड़पति उद्योगपति और पुलिस महकमे के आला अधिकारी।
अब तो प्रियंका ने भी अपने घर वालों को शक के दायरे में नहीं माना और यह आशंका व्यक्त कर दी है कि हो सकता है कि रिजवान ने आत्महत्या की हो!
यह बयान अब दबाव के चलते दिया है कि कुछ और बात है भगवान जाने।
'हर आदमी में होते हैं ....... जिसको भी देखना हो कई बार देखना' .
लगता है आपके दोस्त से मिलना पड़ेगा .
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