
सहकर्मी अगर अपनी प्रतिभा और काबिलियत को लेकर हठी विक्रमादित्य नहीं हुआ, ज्यादातर लोगों की तरह सहज विश्वासी किस्म का जीव हुआ तो न-न करते हुए भी अपनी आलोचनाओं पर यकीन करना शुरू कर देता है। उसे लगता है कि कहीं तो कुछ होगा जो उसका बॉस उसे इस तरह झिड़कता है। फिर तो वह अपनी हर पहल को संदेह की नज़र से देखने लगता है। सोचता है कहीं कोई गलती न हो जाए। अपने विवेक के बजाय दूसरों की सलाह का मोहताज हो जाता है। धीरे-धीरे उसे अपनी काबिलियत से भरोसा उठ जाता है और वह सबकी नज़रों में बिना काम का साबित हो जाता है।
लेकिन कुछ ठसक वाले लोग होते हैं जो दुत्कारने पर फुंफकार कर खड़े हो जाते हैं। अभी कुछ ही दिन पहले की बात है। मेरे एक सहकर्मी ने दूसरी जगह बेहतर मौका और पैसा मिलने पर इस्तीफा दे दिया। बॉस को बताया तो वो फोन पर ही भड़क गए। बोलने लगे – तुम्हारी औकात क्या है, तुम थे क्या, आज जो कुछ तुम हो, मैंने तुम्हें बनाया है, आइंदा से मुझे फोन भी मत करना, आदि-इत्यादि। बंदा बहुत दुखी हो गया। लेकिन अंदर ही अंदर गहरे क्षोभ से भर गया। और कुछ नहीं कर सका तो अपने ब्लॉग पर पोस्ट लिखकर धिक्कार डाला - तुम करो तो रासलीला, हम करें तो छेड़खानी।
मुझे उसकी ये अदा भली लगी। कम से कम उसने अपने आत्मसम्मान को ठेस नहीं लगने दी। मेरे साथ भी करीब आठ साल पहले ऐसा ही हुआ था, जब मेरे बॉस ने मुझसे यही सब कहा था कि तुमको मैंने नौकरी दी थी, वरना तुम्हें हिंदी की बिंदी के अलावा आता ही क्या है। उस समय मैंने डायरी में यह लिखकर अपने आत्मसम्मान को बचाया था कि मैं सरस्वती-पुत्र, सूर्य का बेटा, मैं किसी के अपमान से क्यों परेशान होऊं। कोई अंधकार, कोई अज्ञान मुझे कैसे रोक सकता है। इसके बाद फिर नई जगह पर ऐसा ही कुछ हुआ और एक दिन जब सहने की हद पार हो गई तो मैंने बॉस के मुंह पर इस्तीफा फेंककर दे मारा। क्या करता? मुझे यही लगा कि अगर मैं आत्मदया का शिकार बन गया तो एक दिन दीनहीन बनता-बनता मिट ही जाऊंगा।
आत्मदया और आत्म-प्रशस्ति पेंडुलम के दो छोर हैं। इन्हीं के बीच कहीं रहता है हमारा आत्मसम्मान। हमें किसी को भी इसे तोड़ने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए। न ही किसी की बातों में आकर खुद को अपनी नज़रों में गिरने देना चाहिए। वरना, जिस दिन हम अपनी ही नज़रों में गिरते हैं, उस दिन समझिए हमारी रीढ़ की हड्डी ही टूट जाती है। और आप जानते ही है कि रीढ़ की हड्डी की ज़रा-सा चोट भी लकवे का बड़ा कारण बन जाती है।
11 comments:
वसीम बरेलवी का एक शेर याद आ रहा है-
ये सर अजीम है इसे झुकने ना देना ऐ, दोस्त
ज़रा सी जीने की चाहत में कहीं मर ना जाना
ऐसे लोग हर संस्था में हैं और यही करते हैं...मित्र ने विरोध जता कर अच्छा किया।
जिस दिन हम अपनी ही नज़रों में गिरते हैं, उस दिन समझिए हमारी रीढ़ की हड्डी ही टूट जाती है। -- बहुत सही कहा.
भूपेन जी का शेर भी बहुत बढ़िया सन्देश दे जाता है.
दिमाग की दवा मुफ्त ही उप्लब्ध होती रहती है. बहुत बहुत धन्यवाद्
आजकल आत्मसम्मान रखने वालों को सामाजिक अपमान आसानी से मिलजाता है और रोज़ी रोटी चलाने में मुश्किलें आती हैं।
- गौरव
ऑफिस बुल्लियिंग खुद अपने आप में एक बहुत बड़ा विषय है। आत्मसम्मान बचाने के लिये कब तक इस्तिफे दे सकते हैं। और सवाल आत्म सम्मान से ज्यादा किसी की बीमार प्रवृति के हाथों विक्टिमाइस होना है।
मुद्दा अच्छा है...पर बहस और जरूरी है।
बिल्कुल सही लिखा है। आत्मसम्मान की रक्षा जीवन रक्षा से कम महत्वपूर्ण नहीं है।
आपने पुराने जख्मो को कुरेद दिया। ये दुनिया और बासनुमा लोग तो सदा से यही करते रहे है और बहुत बार इनसे पार पाना मुश्किल हो जाता है। समय-समय पर इस तरह के लेख मनोबल को बढाने मे अहम भूमिका निभाते है। आभार।
वसीम बरेलवी का एक और शेर :
अपने हर हर हर्फ का खुद आईना हो जाऊंगा
उसको छोटा कहकर मैं कैसे बडा हो जाऊंगा ?
बहुत ही पैनी बात कही है. दरअसल जो लोग एहसासे -कमतरी ( inferiority complex) से ग्रसित होते हैं, वही अक्सर ऐसा व्यवहार करते देखे गये हैं.
आत्म सम्मान तो खैर अहम होता ही है और इस पर जो चोट करे वो स्वयं ही कुंठाग्रस्त होता है.
बिलकुल ठीक कहा मित्र. ये लोग वे होते हैं जो खुद हर तरफ से कमजोर होते हैं, लिहाजा असुरक्षित महसूस करते हैं. लेकिन बनते ऐसे हैं जैसे दुनिया की हर विद्या इनको आती है। इनकी पूंछ उठाने की हिम्मत कर लीजिए, बस इनकी दवा यही है।
बिलकुल ठीक कहा मित्र. ये लोग वे होते हैं जो खुद हर तरफ से कमजोर होते हैं, लिहाजा असुरक्षित महसूस करते हैं. लेकिन बनते ऐसे हैं जैसे दुनिया की हर विद्या इनको आती है। इनकी पूंछ उठाने की हिम्मत कर लीजिए, बस इनकी दवा यही है।
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