
लेकिन साढ़े छह बजे से नींद टूटने के बाद नींद के हर टुकड़े में सपने देखता रहा। आखिरी बार उठा, तब भी कोई सपना ही देख रहा था। इन सपनों के चक्कर में मुझे अपने एक इलाहाबादी सहपाठी याद आ गए। नाम था, शायद, रमाशंकर सिंह। आज़मगढ के रहनेवाले थे। सारा खानदान पहलवान था। न जाने कहां से वे ही अच्छे नंबर लानेवाले विद्यार्थी निकल आए। लेकिन दिल, दिमाग और शरीर से वे भी थे पहलवान। सो हॉस्टल के सभी लोग उनको पहलवान ही कहकर बुलाया करते थे।
पहलवान अक्सर लोगों से अपने सपनों का जिक्र करते। और मज़े की बात ये थी कि उनके हर सपने पहलवानी, कुश्ती और अखाड़ों के होते थे। उसको यूं मारा और यूं धोबिया पाट दिया और लड़ते-लड़ते पहलवान की लंगोट ढीली पड़ गई...ऐसा ही कुछ वे लोगों को सुनाते थे। एक बार इसी तरह मित्र मंडली को सपनों की बात बता रहे थे तो हम में एक ने पूछ लिया – पहलवान, तुम सपने में जो लंगोट देखते हो, वो लाल होती है या कलरलेस, मतलब तुम सपने ब्लैक एंड ह्वाइट देखते हो या रंगीन? रमाशंकर फौरन बोले – अगली बार देखकर बताता हूं।
सो, आज सुबह-सुबह कई बार सपने देखने के बाद उठने पर अचानक मेरे दिमाग में भी यही सवाल उठा कि मैंने अभी-अभी जो सपने देखे हैं, वे ब्लैक एंड ह्वाइट थे या रंगीन। तो आपसे भी पूछ बैठा कि आप सपने ब्लैक एंड ह्वाइट देखते है या रंगीन।
वैसे, पहलवान का एक किस्सा और याद आता है। हॉस्टल के बाहर यूनिवर्सिटी रोड पर एक होटल था नटराज जहां पांच रुपए में अनलिमिटेड खाना मिलता था। लोग अमूमन चार-पांच रोटी और चावल खाते थे। पहलवान रमाशंकर सिंह भी मेस बंद होने पर वहीं खाते थे। एक बार खाते समय उनका मन उचट गया और वे एकाधी रोटी ही खाकर उठ गए। होटल के काउंटर पर पैसे देने गए तो मालिक ने वही पांच रुपए मांगे। पहलवान ने कहा – मैंने तो मुश्किल से दो रोटी खाई है तो आप पैसे उसी हिसाब से लें। मालिक ने कहा – हमारे यहां थाली का हिसाब है, आप एक रोटी खाइए या पांच से पचास, पैसे तो उतने ही लगेंगे।
रमाशंकर ने यह बात दिल पर ले ली। संयोग से कुछ ही दिनों बाद उनके बडे भाई अपने पांच दोस्तों के साथ इलाहाबाद आए। लुधियाना या कहीं किसी दंगल में भाग लेने जा रहे थे। रमाशंकर जान-बूझकर इन छह लोगों को रात का खाना खिलाने उसी नटराज होटल में ले गए। सभी के हाथ में किलो-दो किलो देशी घी का डिब्बा था। सभी जीमने लगे। घी में रोटियां लगाकर कुछ नहीं तो हर किसी ने पचास रोटी से कम क्या खाई होगी!! खैर, रमाशंकर जब काउंटर पर बिल देने पहुंचे तो मालिक ने कहा – 300 रुपए। पूछा – क्यों तो जवाब था – हर किसी ने कम से कम दस आदमी का खाना खाया तो उस हिसाब से 60 आदमी के इतने ही हुए ना।
एमएससी-गणित के विद्यार्थी रमाशंकर को अब हिसाब चुकाने का मौका मिल गया। उन्होंने कहा – आपके यहां तो थाली का हिसाब है, कोई पांच रोटी खाए या पचास, पैसे तो उतने ही लगते हैं। इस पर होटल मालिक को पुराना वाकया याद आ गया। उसने हाथ जोड़ लिए और उन पहलवानों के खाने का एक पैसा भी नहीं लिया। लेकिन आगे से जब भी वह होटल काउंटर पर रहा, उसने रमाशंकर को बाहर से ही हाथ जोड़कर रुखसत कर दिया।
5 comments:
हमें भी याद नहीं कि हमारे सपने रंगीन भी होते है, आपने याद दिलाया है अबसे परखने की कोशिस करेंगें, वैसे भी हम वर्णांधता के शिकार हैं कम प्रकाश में रंगवर्णों में अंतर नहीं कर सकते सारे गहरे रंग हमें काले ही नजर आते हैं किन्तु सपने यदि बीते दिनों के मित्रों के यादगार क्षणों के हों तो वो श्वेत श्याम भी अपने लगते हैं, रंगीनियां तो हमें छायावाद में ले जाती है जो खुले आंखों को भाती हैं ।
अनिल जी, हमने भी कभी ध्यान नहीं दिया। वैसे सपने जब राह भटक जाते हैं तभी मेरी नींद में आते हैं। इंतजार करूंगा इसबार किसी सपने के राह भटकने का। यदि भूले-भटके आ गया कोई तो ध्यान रखूंगा का रंगीन था या ब्लैक एंड व्हाइट। फिर आपको बताऊंगा।
लेकिन भाईसाहब आजकल आप हैं कहां। अपना नंबर दीजिए, बहुत दिन से आपसे बात नहीं हुई।
गड्ड-मड्ड हो रहा है। रमाशंकर का स्वप्न रंगीन इस हिसाब से होगा कि रोटियां कितनी खा रहे हैं। अगर कम तो ब्लैक-ह्वाइट नहीं तो रंगीन। प्रसन्न मन आशावादी स्वप्न है तो रंगीन होना चाहिये।
पता नहीं सूरदास कौन से रंग में देखते रहे होंगे स्वप्न।
सपने का सार देखो। रंग न देखो। सपने वैसे कहे तो रंगीन जाते हैं पहलवान!
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