फिर भी टैगोर की नज़र में महान थे महात्मा

गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर व्यक्तिगत रूप से महात्मा गांधी के बड़े प्रशंसक थे। लेकिन उन्हें गांधी के राष्ट्रवाद पर आपत्ति थी। उनको ये भी लगता था कि गांधीजी अपनी अतार्किक बातों से भारतीय अवाम के भोलेपन का फायदा उठा रहे हैं। साथ ही टैगार को गांधीजी का ब्रह्मचर्य भी महज दिखावा लगता था। मुझे लगता है कि आज गांधी जयंती के मौके पर इस महात्मा का मूल्यांकन ज़रूरी है। इसी को ध्यान में रखते हुए मैं नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री प्रो. अमर्त्य सेन की किताब ‘द आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन’ का एक अंश यहां पेश कर रहा हूं।
महात्मा गांधी एक बार टैगोर के स्कूल शांति-निकेतन गए तो एक नौजवान लड़की ने अपनी ऑटोग्राफ बुक में उनके दस्तखत लिए। गांधी ने उस पर लिखा, “जल्दबाज़ी में कभी वचन मत देना। लेकिन अगर दे दिया तो जीवन की कीमत पर उसे निभाना।” टैगोर ने इसे देखा तो चिढ़ गए। उन्होंने उसी ऑटोग्राफ बुक में बंगाली में एक छोटी-सी कविता लिखी जिसका अर्थ था कि किसी को भी ‘मिट्टी की जंजीरों में हमेशा के लिए कैद’ नहीं किया जा सकता। इतने से उन्हें तसल्ली नहीं हुई तो उन्होंने आगे अंग्रेज़ी में जोड़ा ताकि गांधी भी उसे पढ़ सकें कि, “अपने वचन को तोड़ दो, अगर तुम्हें लगता है कि वह गलत है।”
टैगोर एक इंसान और राजनीतिक नेता के रूप में महात्मा गांधी के बड़े प्रशंसक थे। लेकिन गांधीजी की तरह के राष्ट्रवाद और देश की पुरानी परंपराओं के बारे में उनके रूढ़िवादी आग्रह को लेकर उन्हें बहुत संदेह था। दोनों में कई मसलों पर मतभेद थे और टैगोर इन असहमतियों को साफ-साफ रखते भी थे :

हम में से जो लोग तर्क को नज़रअंदाज करने की प्रवृत्ति को महिमामंडित करते हैं, इसकी जगह अंधविश्वास को स्थापित करते हैं, इसे आध्यात्मिक मूल्य बताते हैं, वे हमेशा इसकी कीमत हमारे दिमाग और किस्मत को धुंधला करने के रूप में चुकाते हैं। मैंने महात्माजी पर भारतीय अवाम के भोलेपन की इस अतार्किक शक्ति के शोषण का आरोप लगाया है। इससे तुरत-फुरत ऊपर का ढांचा तो बन सकता है, लेकिन बुनियाद कमज़ोर हो जाएगी।
गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर गांधीजी की इस बात से भी सहमत नहीं थे कि हर किसी को घर पर चरखा कातना चाहिए। गांधीजी के लिए ऐसा करना भारत के आत्म-साक्षात्कार का अहम हिस्सा था। चरखा धीरे-धीरे भारतीय अर्थव्यवस्था की गांधीवादी सोच में ग्रामीण उत्थान का केंद्र बन गया। लेकिन टैगोर इसको एकदम अयथार्थपरक मानते थे। उनका कहना था कि चरखा चलाने में किसी को कुछ सोचना नहीं पड़ता। बस इस पुरातन खोज के पहिए को लगातार चलाते रहना पड़ता है। न इसमें कोई दिमाग लगाना पड़ता है, न ही ताकत। इससे लोग कुंद हो जाते हैं।
व्यक्तिगत जीवन के बारे में भी टैगोर और महात्मा गांधी का नज़रिया अलग था। गांधी ब्रह्मचर्य पर बड़ा ज़ोर देते थे। उसकी महिमा बखानते थे। यहां तक कि बाद के सालों में उन्होंने कस्तूरबा के साथ न सोने का निजी वादा भी किया था। इस मसले पर रवींद्रनाथ टैगोर का रवैया बहुत अलग था, लेकिन उन्होंने अपनी असहमति को बहुत विनम्रता से रखा है :

गांधीजी इंसान की नैतिक उन्नति में सेक्स जीवन को बाधक मानते हुए उसकी निंदा करते हैं। उन पर सेक्स का हौवा-सा सवार है।...लेकिन दरअसल औरतों को लेकर उनकी नरमी उनके चरित्र के सबसे उदात्त और सतत गुणों में से एक है। और, जिस महान आंदोलन की वे अगुआई कर रहे हैं, उसमें उनकी सबसे अच्छी और सच्ची साथी औरतें ही हैं।

Comments

Manish Kumar said…
टैगोर के विचार इस संदर्भ में ज्यादा तार्किक लगते हैं। इस रोचक जानकारी को बाँटने का शुक्रिया !
Anonymous said…
सही है। गांधीजी के एक् सहयोगी ने भी इस् बात् पर्
गांधीजी से मौज् लेते हुये कहा था कि आपकी देखादेखी अगर् नौजवान् भी प्रयोग् करने लगे तो बड़ी
गड़बड़ होगी। :)
36solutions said…
धन्‍यवाद अनिल भईया,

आपके इस लेख नें गांधी जी एवं गुरूदेव के संबंध में अन्‍य प्रकाशित व चर्चित बातों को पुन: स्‍मरण कर दिया ।

आभार
Sanjay Tiwari said…
अच्छे तथ्य.
महापुरुष ऐसे ही होते हैं - अपने अपने उत्तुंग शिखर पर अकेले. आप शायद उनको या इनको बड़ा या छोटा नहीं बता सकते.
पढ़ कर अच्छा लगा.
गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर आदरणीय है लेकिन गांधी जी के साथ तुलना की जाये तो वे गांधीजी के समक्ष कहीं नहीं ठहरते। हो सकता है गांधीजी के जीवन में कुछ ऐसी बाते हुई हों जो समाज को मान्य नहीं। लेकिन दुनियां में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो शत प्रतिशत हर काम सही किया हो। यदि कोई काम किसी के लिये सही है तो किसी के लिये गलत।
सर एक ही बात कहना चाहता हूं कि जो हर बात का जवाब है कि इतनी खामियों के बावजूद भी टेगौर गांधी को महात्मा मानते थे ....

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