अजगरी जड़ता पर ऊंघते पत्थर के साथी

विधेयक, अध्यादेश और अधिनियम। कल्पना कीजिए पांच भूमिहीन युवकों की टोली रात के 11 बजे लालटेन की रोशनी में अगर इन शब्दों के अर्थ पर माथापच्ची कर रही हो, तो क्या सीन रहेगा। लेकिन मानस इन्हीं काल्पनिक दृश्यों को जी रहा था। पटना से निकली ‘जनमत’ के लेख अक्सर इस अपढ़, मगर जिज्ञासु टोली में खेल-खेलकर पढ़े और समझे जाते थे। जैसे, एक लेख था जिसमें छपा था कि केंद्र सरकार इस विधेयक को संसद से पास नहीं करा सकी। इसलिए यह अधिनियम नहीं बन सका और सरकार अब इसे अध्यादेश के जरिए लागू करने जा रही है।

इस पर आपस में बहस चल रही थी। मानस ने कहा – आप लोग एक-एक कर बताइए कि अध्यादेश और अधिनियम क्या होता है, इनमें क्या अंतर है। सभी बेहद ईमानदारी और संजीदगी से इसका अर्थ निकालने में जुट गए। आखिर में सबसे समझदार साथी ने बताया कि आदेश अगर आधा ही जारी करके बीच में रोक लिया जाए तो वह अध्यादेश होता है और नियम बन जाए, लेकिन उसके साथ पूरी शर्तें न जोड़ी जाएं तो वह अधिनियम होता है। सब ने अपनी-अपनी बात कह ली तो मानस ने कहा कि आप सभी लोगों की बातों में थोड़ा-थोड़ा सच है। फिर उसने अध्यादेश और अधिनियम के साथ ही विधेयक का अर्थ भी अपनी इस अभिन्न मित्रमंडली को तफ्सील से बताया।

मानस इस तरह किसानों और रेल मजदूरों के बीच खूब मौज लेते हुए काम करता जा रहा था। ये लोग भी उसे घर के सदस्य जैसा समझने लगे थे। बहन अगर अपनी ससुराल जाने से इनकार कर रही हो, तब भी मिस्त्री उसे मानस के पास ही भेजते कि साथी इसको समझाओ। मिस्त्री की मां को वह चाची कहता था और चाची उसे अपने बेटा-बेटी से ज्यादा प्यार करती थीं। लेकिन ऊपर से, नेताओं की तरफ से उसके सवालों की बराबर उपेक्षा जारी थी। हर सवाल को लीपापोती करके और उसकी निजी समस्या बताकर टाल दिया जाता।

मानस को इससे भयंकर परेशानी होने लगी। उसे अजीब-अजीब से सपने आने लगे। अंदर-बाहर के पार्टी नेताओं की बातों और अदाओं को वह याद करता तो उसे लगता कि कोई विशाल अजगर जमीन के भीतर चलता-चलता ठहर गया है। ज़मीन की उठी हुई मिट्टी में उसकी आकृति साफ देखी जा सकती है। मिट्टी के इस उभार को छिपाने के लिए उस पर जगह-जगह बैठे हैं पत्थर के इंसान जिसमें से कोई सोते-सोते अपने पैरों की उंगलियों को बार-बार ऊपर नीचे कर रहा है तो कोई एक ही लय से अपनी आंखें खोल-बंद कर रहा है।

जैसे ही कोई इस सोए हुए अजगर तक पहुंचने या छूने की कोशिश करता है तो ये जड़वत लोग खतरनाक सरीसृप में बदल जाते हैं। इनका मुंह किसी बिचखोपड़ा जैसा (गोह प्रजाति का एक बड़ा जीव जिसके बारे में माना जाता है कि उसके काट लेने पर आदमी की खोपड़ी बीच से फट जाती है) हो जाता है और ये आगे से दो हिस्से में बंटी अपनी लंबी जीभ निकालकर उसे गड़पने की कोशिश करने लगते हैं। लेकिन मजे की बात यह है कि ऐसा करते हुए भी ये अपनी जगह से जरा-सा भी नहीं हिलते-डुलते। इनसे बचने का एक ही तरीका था कि आप अजगर से ही दूर रहो। उसे छेड़ो मत। इनकी ‘कर्तव्यपरायणता’ में कोई दखल न दो।

लेकिन मानस के लिए ऐसा कैसे संभव था? वह तो अपनी दुनिया को विस्तार देने के लिए नया समाज बनाने के संघर्ष में लगी दुनिया में आया था। और, यहां तो उसकी दुनिया आम दुनिया से भी ज्यादा छोटी होती जा रही थी। वह कुएं का मेढक बनता जा रहा था। उसे सोते-जागते लगने लगा कि कोई उसके दिल-दिमाग को निचोड़ रहा है, उसका गला घोंट रहा है।

अभी बाकी है मानस के घुटन को तोड़ने की कथा

Comments

Srijan Shilpi said…
"आखिर में सबसे समझदार साथी ने बताया कि आदेश अगर आधा ही जारी करके बीच में रोक लिया जाए तो वह अध्यादेश होता है और नियम बन जाए, लेकिन उसके साथ पूरी शर्तें न जोड़ी जाएं तो वह अधिनियम होता है।"

हा हा हा .....


"इनसे बचने का एक ही तरीका था कि आप अजगर से ही दूर रहो। उसे छेड़ो मत। इनकी ‘कर्तव्यपरायणता’ में कोई दखल न दो।"

सही सोच है मानस की।
पहले आप के लिखे से अपन तो बहुत ही प्रभावित है. हालांकि मुझे पता है मेरे प्रभावित ना होने की सूरत में भी आप पर कोई असर नही पड़नेवाला.दूसरा मानस की घुटन कभी कभी मैं भी महसूस करता हूँ. तीसरा मुझे इंतज़ार है मानस कैसे घुटन को तोड़ता है. इंतज़ार रहेगा.
बहुत सुन्दर लिखा है अनिल जी मै भी लिखना चाहती हूँ मगर गद्य पर अभी पकड़ नही है पढियेगा...
http://mereerachana.blogspot.com/

सुनीता(शानू)
Pratyaksha said…
आगे की दिलचस्पी बनी हुई है । जल्दी लिखें ।
Udan Tashtari said…
रोचक-अगली कड़ी का इन्तजार है.
Anita kumar said…
हमें भी अगली कड़ी का इंतजार है
मानस बहुत संवेदनशील चरित्र है. नया समाज बनाने की लालसा में वह अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फँसता जा रहा है. मानस को आप ही शक्ति दे सकते हैं. उसे कुएँ का मैढक न बनने दीजिए.
बहुत चिंतनशील लेखन है आपका.

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