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Showing posts from October, 2007

नक्सली और श्री श्री की राज-नीति कला

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इस समय नक्सली समस्या सरकार को ही नहीं, आर्ट ऑफ लिविं ग के गुरु श्री श्री रविशंकर को भी परेशान किए हुए है। देश के 600 ज़िलों में से 172 में माओवादी नक्सली पहुंच चुके हैं। ऊपर से करीब 100 ज़िलों में किसान खुदकुशी कर रहे हैं। कहीं इन ज़िलों के किसान भी नक्सलियों की शरण में चले गए तो? श्री श्री रविशंकर किसके कहने पर विदर्भ के किसानों के बीच गए थे, ये तो मुझे नहीं पता, लेकिन यह बात जगजाहिर हो चुकी है कि भरी सभा में उन्होंने किसानों से वचन लिया कि वे कभी भी नक्सली नहीं बनेंगे। आप कहेंगे कि अहिंसा और प्रेम का संदेश देनेवाले श्री श्री ने ऐसा किया तो इसमें गलत क्या है? गलत है क्योकि वे वहां आध्यात्म का संदेश देने नहीं बल्कि राजनीतिक वक्तव्य देने गए थे। देखिए, गुजरात दंगों के ताज़ा स्टिंग ऑपरेशन पर उनका क्या कहना है। मैं गुजरात पर खुलासा करनेवाले पत्रकार को बधाई देता हूं। लेकिन मैं उनसे अनुरोध करूंगा कि वे (1984 के) सिख दंगों पर भी ऐसा खुलासा करें।...यह (गुजरात में दंगाइयों का बर्ताव) हमारी संस्कृति में नहीं है। लेकिन हमें समझना पड़ेगा कि एक धर्म के अतिवाद का दूसरे धर्म के अतिवाद में बदलना तय है...

अजगरी जड़ता पर ऊंघते पत्थर के साथी

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विधेयक, अध्यादेश और अधिनियम। कल्पना कीजिए पांच भूमिहीन युवकों की टोली रात के 11 बजे लालटेन की रोशनी में अगर इन शब्दों के अर्थ पर माथापच्ची कर रही हो, तो क्या सीन रहेगा। लेकिन मानस इन्हीं काल्पनिक दृश्यों को जी रहा था। पटना से निकली ‘जनमत’ के लेख अक्सर इस अपढ़, मगर जिज्ञासु टोली में खेल-खेलकर पढ़े और समझे जाते थे। जैसे, एक लेख था जिसमें छपा था कि केंद्र सरकार इस विधेयक को संसद से पास नहीं करा सकी। इसलिए यह अधिनियम नहीं बन सका और सरकार अब इसे अध्यादेश के जरिए लागू करने जा रही है। इस पर आपस में बहस चल रही थी। मानस ने कहा – आप लोग एक-एक कर बताइए कि अध्यादेश और अधिनियम क्या होता है, इनमें क्या अंतर है। सभी बेहद ईमानदारी और संजीदगी से इसका अर्थ निकालने में जुट गए। आखिर में सबसे समझदार साथी ने बताया कि आदेश अगर आधा ही जारी करके बीच में रोक लिया जाए तो वह अध्यादेश होता है और नियम बन जाए, लेकिन उसके साथ पूरी शर्तें न जोड़ी जाएं तो वह अधिनियम होता है। सब ने अपनी-अपनी बात कह ली तो मानस ने कहा कि आप सभी लोगों की बातों में थोड़ा-थोड़ा सच है। फिर उसने अध्यादेश और अधिनियम के साथ ही विधेयक का अर्थ भी ...

मैं प्रमोद महाजन का इंटरव्यू करना चाहता था

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आज बीजेपी नेता प्रमोद महाजन का 58वां जन्मदिन है। मुझे पता है कि कोई भी हिंदी ब्लॉगर इस लांछित नेता पर कुछ नहीं लिखेगा। लेकिन मैं लिखना चाहता हूं क्योंकि प्रमोद महाजन जीते-जी मेरे लिए एक केस स्टडी थे। साल 2004 में बीजेपी की जबरदस्त हार के बाद किसी चैनल ने उनका लंबा इंटरव्यू लिया था, जिसमें प्राइमरी स्कूल मास्टर के इस बेटे ने अपनी पूरी रामकहानी सुनाई थी। तभी से मैं उनसे लंबा और अंतरंग इंटरव्यू करना चाहता था। मैं प्रमोद महाजन के अंदर की उस यात्रा को जानना-समझना चाहता था, जिससे होते हुए बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े एक आदर्शवादी किशोर ने 50 साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते घाघ राजनेता बनने की मंजिल तय की थी। उहापोह में लगा रहा कि प्रमोद महाजन मुझे इंटरव्यू का समय क्यों देंगे, फिर समय दे भी दिया तो इस तरह की अंतरंग बातें क्यों करेंगे। मार्च 2005 में मैं मुंबई आ गया तो एक मित्र ने बताया कि तुम आत्मकथा लिखने के बहाने उनसे लंबी बात कर सकते हो। साल भर से ज्यादा वक्त गुजर गया। इसी बीच 22 अप्रैल 2006 को प्रमोद महाजन को उनके उसी छोटे भाई प्रवीण महाजन से गोली मार दी, जिसे उन्होंने अपने ...

कहना अच्छा तो नहीं लगता, फिर भी कहता हूं

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“लिखने वालों के लिए दुनिया की सबसे कठिन कहानी आत्मकथा ही होती है। … ध्यान रहे, इस अदालत में आप ही जज हैं, आप ही मुलजिम और आप ही वकील। हम जैसे श्रोतागण अभी सुन रहे हैं, अभी उठकर कहीं और चले जाएंगे, लेकिन यह अदालत आपकी आखिरी सांस तक आपके भीतर लगी रहेगी।” कल अपने चंदू की यह टिप्पणी पढ़ने के बाद मैं सोचने लगा कि मैं क्या लिख रहा हूं, क्यों लिख रहा हूं? दस दिन पहले तक कितना मस्त था! रोज़ दफ्तर से आते-जाते मन ही मन कुछ गाता-गुनता रहता और सुबह होते-होते लिख देता था। लगता था कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हम जिन छोटे-बड़े सवालों से जूझ रहे हैं, मैं उनके समाधान का कोई सूत्र निकाल रहा हूं। मुझे नहीं पता था कि मेरा यूं गुनना-गुनगुनाना भी किसी के खलल में बाधा डाल सकता है। एक मामूली-सी बात न जाने क्यों उन्हें गैर-मामूली लग गई। उनका पत्थर कलेजा भावुक हो गया। वे बौखला गए। मैं भी दुखी हो गया और गुजरे वक्त के जख्मों को कुरेद-कुरेद कर ताज़ा करने लगा। पुराने लिखे गए रुक्के ढूंढे गए और मैं लिखने लगा। काश, उनका यही पत्थर कलेजा बीस साल पहले पिघला होता तो शायद योगी बनने की राह पर निकल चुका मैं दुबारा सांसारिक ...

अनामियों-बेनामियों से आजकल मोदी भी तंग हैं

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अनाम और बेनामी लोग आजकल बेहद चालाक और शातिर होते जा रहे हैं। वर्ल्डप्रेस या ब्लॉगर पर दी गई सुविधाओं का इस्तेमाल करते हुए वे अब अपना नाम भी रखने लगे हैं। यहां तक कि वेबपेज के नाम वे किसी की भी साइट चस्पा कर दे रहे हैं। काकेश भाई के ब्लॉग पर मैं इसका नमूना देख चुका हूं और इधर बराबर अपने ब्लॉग पर भी देख रहा हूं। ऐसे लोग कभी एनॉनिमस के नाम से टिप्पणी करते थे, तो कभी खुद को बेनामी बता देते थे। लेकिन अब तो बाकायदा राजन मुंबई और अजय वर्मा पटना का नाम लिखकर झांसा दे रहे हैं कि वे मुंबई या पटना से टिप्पणी कर रहे हैं। कुछ और कलाकार हैं जो अभिव्यक्ति नाम की लड़की या चापलूसी लाल जैसे बनावटी नाम का ढोंग कर रहे हैं। मैं समझ नहीं पाता कि इस शुतुरमुर्गी अदा का मतलब क्या है। इनफॉरमेशन टेक्नोलॉजी के इस दौर में कम से कम आपके कंप्यूटर के आईपी एड्रेस से तो पता चल ही जाता है कि आप मुंबई या पटना से नहीं, गाज़ियाबाद और दिल्ली में बैठकर यह प्रपंच कर रहे हैं और नाम बदल-बदल कर रहे हैं। मैं भी अपने साइटमीटर में दर्ज सूचना और आपकी टिप्पणी के समय के मिलान से इसे आसानी से देख सकता हूं। तकनीक में ज्यादा पारंपत नहीं ...

बड़े-बड़े हिपोक्रेट भी हार जाएं कुछ कॉमरेडों से

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मानस की कहानी आगे बढ़ाने से पहले एक बात साफ कर दूं। जहां प्रतिभाओं का अनादर हो, उस देश में लोकतंत्र नहीं हो सकता। और, जो पार्टी प्रतिभाओं की कद्र नहीं कर सकती, वह लोकतंत्र ला ही नहीं सकती। आखिर उपलब्ध मानव और प्राकृतिक संसाधनों का व्यापक अवाम के हित में महत्तम इस्तेमाल ही तो लोकतंत्र है। कुछ ही दिनों के अनुभव से मानस को लगने लगा कि पार्टी के साथियों में विचारधारा और लोकतंत्र को लेकर अजीब-सी जड़ता है, घुटन है, उदासीनता है। खैर, वह तो कबीर की सधुक्कड़ी और बुद्ध की बेचैनी लेकर घर से निकला था और व्यवहार ही उसे असली ज्ञान दे सकता है तो वह इधर-उधर देखने के बजाय व्यवहार में जुट गया। छात्रों के बीच में वह कभी-कभार ही जाता था। लेकिन कुछ ही दिनों में उसने रेलवे मजदूरों में अपना ठिकाना बना लिया। कुछ गांवों के दलित भूमिहीन किसानों को भी अपना साथी बना डाला। रेलवे के खलासी हामिद भाई पहले कबीरपंथी थे, लेकिन काफी तर्क-वितर्क के बाद वो मानस की राजनीतिक सोच से इतने प्रभावित हुए कि नक्सली भूमिगत कार्यकर्ता होने के बावजूद उसे अपने यहां शेल्टर देने को तैयार हो गए। फिर धीरे-धीरे कई मजदूर उसे अपना मानने लगे।...

एक भूमिगत कार्यकर्ता की पहली दीक्षा

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मानस के लिए ये जिंदगी का सबसे बड़ा फैसला था। एक ऐसा फैसला जो अतीत से उसके सारे रिश्तों को तोड़ देनेवाला था। यहां तक कि यूनिवर्सिटी में जिन छह लोगों की मंडली के साथ उसने समाज को बदलने के सपने देखे-दिखाए थे, ज़िंदगी के गीत गाए थे, उनसे भी उसका नाता टूट रहा था। रह-रह कर मन में कबीर के दोहे का भाव तारी हो जाता था कि पत्ता टूटा डारि से, ले गइ पवन उड़ाइ, अबके बिछुड़े कब मिलैं, दूरि परे हैं जाइ। ऐसा लगता था जैसे एक दुनिया को छोड़कर वह किसी दूसरी अनजान दुनिया में जा रहा हो। हां, ये उसके लिए पूरी तरह से एक अनजान, अपरिचित दुनिया थी क्योंकि वह एक क्रांतिकारी पार्टी का अंडरग्राउंड कार्यकर्ता बनने जा रहा था। मां-बाप और घर परिवार से तो वह पहले ही विदा ले चुका था। अब उन छह दोस्तों से विदाई लेनी थी, जिनके निजी दायरे पिघलकर एक-दूसरे से मिल चुके थे। शायद ही किसी का कोई राज़ हो जो दूसरा न जानता हो। एकदम पारदर्शी रिश्ता। उन्हें आज की कोई सुविधा, सहूलियत या समझौते ने नहीं जोड़ा था, बल्कि उन्हें कल के सपनों ने जोड़ रखा था। उन्हें ‘जिंदगी नई महान आत्मा नई’ रचने की ख्वाहिश ने बांध रखा था। ऐसे में छह के बीच से...

ज़िंदगी ने एक दिन कहा...

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एक बहुत प्यारा-सा गीत पेश है जो हम लोग 20-22 साल पहले गली-मोहल्लों, चौराहों और गांवों में गाया करते थे। नाटक की एक मंडली थी हमारी, जिसका नाम था दस्ता नाट्य मंच। इसमें विमल और प्रमोद भी शामिल थे। आज यूं ही याद आ गया तो विमल से मदद ली और इसे आप सभी के लिए पेश कर रहा हूं। जो लाइनें याद नहीं आईं, उन्हें अपनी समझ से रफू कर दिया है। जिसको याद हो, वे इसे सही कर सकते हैं। इस गीत को शायद गोरखपुर के शशिप्रकाश ने लिखा था। शशिप्रकाश कहां हैं, कैसे हैं, क्या कर रहे हैं नहीं पता। ज़िंदगी ने एक दिन कहा कि तुम हँसो, तुम हँसो, तुम हँसो तुम हँसो कि बंधनों के बंध सब बिखर उठें तुम हँसो कि जिंदगी चहक उठे, महक उठे तुम हँसो कि खिलखिला पड़े दिशा-गगन और फिर प्यार के गीत गा उठें सभी उड़ चलें असीम आसमान चीरते ज़िंदगी ने एक दिन कहा कि तुम उठो, तुम उठो, तुम उठो तुम उठो कि उठ पड़ें असंख्य हाथ चल पड़ो कि चल पड़ें असंख्य पैर साथ मुस्करा उठे क्षितिज पर भोर की किरण और फिर प्यार के गीत गा उठें सभी उड़ चलें असीम आसमान चीरते जिंदगी ने एक दिन कहा कि तुम उड़ो, तुम उड़ो, तुम उड़ो तुम उड़ो कि चहचहा उठें हवा के परिंदे तुम उड़...

इस बार विदा कर मां, फिर आऊंगा लौटकर

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यह एक ऐसे नौजवान की दास्तां है जिसके लिए समाज बदलने की राजनीतिक लड़ाई महज सामाजिक सम्मान की लड़ाई नहीं थी। वह ठीक सामने दिखनेवाले किसी वर्ग-शत्रु से लड़ने के लिए राजनीति में नहीं उतरा था। वह न तो किसी दलित जाति से था और न ही किसी उभरती पिछड़ी जाति से। एक सामान्य सवर्ण किसान परिवार का बच्चा था वह। उसके मां-बाप ने संयुक्त परिवार के टूटने और बंटवारे के बाद यहां-वहां हाथ मारकर सम्मानजनक गुजर-बसर के लिए सरकारी ट्यूबवेल की ऑपरेटरी और मिडिल स्कूल की मास्टरी जैसी नौकरियां पकड़ी थीं। इसके लिए उन्हें तमाम पुरानी सामाजिक मान्यताएं तोड़नी पड़ी थीं। मां घर की दहलीज लांघ कर मास्टराइन बनी तो पूरे इलाके में हर तरफ से थू-थू हुई कि देखो लंबरदार अब अपनी पतोहू की कमाई खाएंगे। मानस के मां-बाप के संघर्ष और सर्वग्रासी गंवई समाज में खुद को स्थापित कर ले जाने की लंबी दास्तां है। बाप कैसे ट्यूबवेल ऑपरेटर बने, कैसे अपनी 50 रुपए की तनख्वाह में से हर महीने 48 रुपए अपने छोटे भाई को बेचकर पंतनगर यूनिवर्सिटी से बीएससी-एजी कराया, फिर कैसे बॉम्बे आर्ट की डिग्री लेकर लालसाहब की रियासत के स्कूल में गणित के मास्टर बने, कै...

कितने निर्मम और निराले हैं राजनीति के खेल!

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वाकई राजनीतिक सत्ता के असली खेल कितने निराले और निर्मम होते हैं? ऊपर से जो दिखता है, होता ठीक उसका उल्टा है। जिसे हम विपक्ष का प्रायोजित स्टिंग ऑपरेशन समझते हैं, वह सत्तापक्ष की प्रायोजित चाल हो सकती है। यह सब देखकर तो मुझे लगने लगा है कि राजनीति कमज़ोर दिल वालों के लिए हैं ही नहीं। जो कमज़ोर दिल के हैं, दिमाग के ज्यादा दिल से सोचते हैं, व्यावहारिकता के बजाय आदर्श के तरन्नुम में जीते हैं, उनके लिए तो यही बेहतर होगा कि वे कोई समाज सुधार का संगठन बना लें, एनजीओ बना लें, जुलूस निकालें, मांगों की फेहरिस्त तैयार करें और ज्ञापन देकर घर लौट जाएं। विधानसभा चुनावों के ठीक सत्रह दिन पहले गुजरात का स्टिंग ऑपरेशन टीवी पर दिखाया जाता है। बाबू बजरंगी बड़े गर्व से बताते हैं कि कैसे उन्होंने गर्भवती महिला का पेट तलवार से चीर दिया था। कैसे पुलिस प्रमुख के आदेश के बाद नरोदा पाटिया से 700-800 लाशों को उठाकर पूरे अहमदाबाद में जगह-जगह डाल दिया गया और कैसे ‘उन्हें’ मारने के बाद उनको महाराणा प्रताप जैसा एहसास हो रहा था और पूरे इलाके को इन लोगों ने हल्दी घाटी बना डाला था। गोधरा के बीजेपी विधायक हरेश भट्ट बतात...

कुत्ते का ब्रह्मज्ञान

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सुबह-सुबह फालतू बहस में समय क्यों खोटी किया जाए! आइए एक कहानी सुनते हैं। बात बहुत पुरानी है। उस समय कुत्ते आदमी की और आदमी कुत्तों की भाषा जानते थे और कुछ कुत्ते तो सामगान करते हुए भौंकते थे। जो लोग कुत्तों की भाषा समझ लेते थे, वे कुत्तों के ज्ञान पर आदमी के ज्ञान से अधिक भरोसा करते थे। एक खास आध्यात्मिक ऊंचाई पर पहुंचे हुए कुत्ते ऐसे लोगों से उसी तेवर और तर्ज में बात करते थे जैसे ऋषियों में अपने को सीनियर माननेवाले नए स्नातकों से किया करते थे। कहते हैं उन्हीं दिनों एक ऋषिकुमार स्वाध्याय के लिए गांव के बाहर एकांत में बने एक जलाशय के पास आया। जब वह जलाशय के किनारे टहलता हुआ रट्टा मार रहा था, उसी समय उसके सामने एक सफेद कुत्ता प्रकट हुआ। वह कुत्ता या तो पिछले जन्म में सामगान की कोई पाठशाला चलाता था या इस जन्म में किसी सामगायक के आश्रम के आसपास मंडराता रहता था। सामगान सुनते-सुनते उसका स्वर इतना सध गया था कि भले ही ऋषियों का सामगान व्यर्थ चला जाए, उसका कभी नहीं जा सकता था। वह कम से कम अपनी बिरादरी को देखते हुए विद्वान भी इतना हो गया था कि देश-देशांतर में घूमते हुए दूसरे कुत्तों को शास्त्रार...

सुहाती नहीं है हिंसा की ये भाषा

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मुझे उनके विचारों से एतराज नहीं है। मुझे उनकी बहस से एतराज नहीं है। मुझे एतराज है तो उनकी हिंसक भाषा से। संदर्भ-प्रसंग आप खुद समझ जाएंगे। पहले उनकी भाषा की एक बानगी देख लीजिए। वे विचारों को ‘बाल विवाह’ की तरह खतरनाक बताते हैं। उनके हिसाब से भगत सिंह पागल थे या ‘बाल विवाह’ किए थे। हे महामहिम मायावी विचारकों , अगर विवाह के ही प्रतीक से आप समझने के आदी हैं तो सुनिए इस विवाह को प्रेम विवाह कहते हैं। और स्वाभाविक रूप से सामंती समाज उसके खिलाफ खड़ा होता है। हां, आप जैसे लोगों को लग सकता है कि आपका बाल विवाह हो गया था। लेकिन आपने तलाक ले लेने के बावजूद लालच और अवसरवाद के दबाव में आकर दहेज हत्या (विचार की) भी कर दी है। और अब दूसरों को उकसा रहे हैं कि ‘बाल विवाह’ से बचो या तलाक लो, हत्याएं करो। ये है ‘प्रतिरोध की सामाजिक सांस्कृतिक पत्रिका’ समकालीन जनमत के नाम से बने एक ब्लॉग पर लिखी पोस्ट की संपादकीय प्रस्तुति की भाषा। यह भाषा इसकी सामाजिक सोच और संस्कृति का परिचय खुद-ब-खुद दे देती है। इस ब्लॉग के एडमिनिस्ट्रेटर का कहना है कि आपने भी तो अपने लेख में ऐसी ही भाषा का इस्तेमाल किया था। लेकि...

देखिए, किन्हें कोस रही हैं चंद्रशेखर की मां!!

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कौशल्या देवी उन्हीं चंद्रशेखर प्रसाद की मां है जो अपना सब कुछ छोड़कर सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने और 34 साल की उम्र में शहीद हो गए, दस साल पहले अप्रैल 1997 में जिन्हें आरजेडी के सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के गुंडों ने गोलियों से भून दिया था और जिनके बारे में एक लेख कल समकालीन जनमत ने छापा है। 1973 में एयरफोर्स में अपने सार्जेंट पति की मौत के बाद कौशल्या देवी के लिए उनका बेटा चंद्रशेखर ही आखिरी सहारा था। पढ़ाया-लिखाया कि बेटा एक दिन बूढ़ी विधवा का सहारा बनेगा। लेकिन बेटे ने जब गरीबों की राजनीति करने का बीड़ा उठा लिया तो इस क्रांतिकारी की मां ने कहा – चलो बेटा, मैं तुम्हें देश को दान करती हूं। इस मां की आज क्या हालत है, इस बारे में तहलका ने इसी साल जून में उनसे बात की थी। मैंने जब यह रिपोर्ट पढ़ी तो अंदर तक हिल गया था कि अवाम की राजनीति करनेवाले क्या सचमुच इतने असंवेदनशील हो सकते हैं? मुझे यकीन नहीं आया था कि उजाले और सुंदर समाज की बात करनेवालों के दिल और दिमाग में इतना अंधेरा भरा हो सकता है? इसी रिपोर्ट में मुताबिक माले के नेताओं ने कौशल्या देवी की बातों को दुख में...

कहानी से कहीं ज्यादा घुमावदार है ज़िंदगी

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नाम – भूपत कानजी भाई कोळी। उम्र – 42 साल। 17 साल से हत्या के मामले में विचाराधीन कैदी। 16 साल से अहमदाबाद के मेंटल हॉस्पिटल में पड़ा विचाराधीन मरीज़ अपराधी। भूपत ने 1990 में एक रात अपने भाई का खून इसलिए कर दिया था क्योंकि वह उस लड़की से शादी करने की कोशिश कर रहा था, जिससे वह प्यार करता था। लेकिन हकीकत यह है कि ऐसी कोई लड़की थी ही नहीं। वह थी तो बस भूपत की कल्पना में। वह दिखती थी तो केवल भूपत को। जी हां, गुजरात के भावनगर ज़िले का मूल निवासी भूपत कानजी भाई कोळी लंबे अरसे से भयानक विभ्रम और सिजोफ्रेनिया का मरीज़ है। डॉक्टरों के मुताबिक उसकी ये हालत बचपन से ही है। उसका मामला भावनगर के ज़िला एवं सत्र न्यायालय में 1990 से ही अनिश्चितकाल के लिए बंद पड़ा था। अब इसी न्यायालय ने उसे करीब दो महीने पहले 14 अगस्त को ज़मानत दे दी है। लेकिन वह जाए तो कहां जाए? घर वाले 17 साल पहले हुई वारदात के बाद ही उसे छोड़ चुके हैं। खुद उसे न तो अपनी पहचान याद है और न ही अपना गुनाह। सरकारी वकील भी मानते हैं कि भूपत मानसिक रूप से बीमार है और मुकदमे का सामना करने लायक नहीं हैं। लेकिन मामला चलता रहेगा क्योंकि कानून क...

बरहमन ने नहीं कहा, फिर भी ये साल अच्छा है

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इस साल फरवरी में कई सालों से टलते आ रहे लेखन की शुरुआत हुई। प्रमोद के कहने पर ब्लॉग बना डाला। फिर अप्रैल में किराएदार से मालिक-मकान बन गया। हालांकि किश्तें हर महीने किराएदार होने जैसा ही एहसास दिलाती हैं। ऊपर से जब से फुरसतिया जी ने अपने घर की शानदार फोटुएं पेश की हैं, तब से तो हम और हीनतर महसूस करने लगे थे। लेकिन आज कोई गिला-शिकवा नहीं क्योंकि आज से अपुन तो ब्लॉगर से कहानीकार भी बन गया! आज ही अभिव्यक्ति में मेरी पहली कहानी ‘मियां तुम होते कौन हो’ छपी है। वैसे तो यह कहानी मैं अपने ब्लॉग पर पहले ही लिख चुका हूं, लेकिन इसे लेकर इतने उत्साह में था कि शनिवार के दिन हर घंटे-दो घंटे में अंतराल पर इसकी सारी किश्तें चढ़ा डालीं। ज़ाहिर है आप इसे पढ़ने की बात तो दूर, ठीक से देख भी नहीं पाए होंगे। यह कहानी एक हिंदुस्तानी मुस्लिम नौजवान की है जो अपनी पहचान को लेकर बहुत परेशान है। इसी परेशानी में वह अचानक एक दिन हिंदू बनने का फैसला ले लेता है। वह धर्म बदलने की सारी औपचारिकता पूरी कर लेता है। लेकिन पुराने रिश्ते बार-बार उसे पीछे खींचते हैं। नए रिश्तों का अभाव उसे सालता है। एक अजीब-सी रिक्तता उसके भ...

मैंने उसे 35 साल पहले मारा था

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यह मेरा नहीं, प्रायश्चित में डूबे सुंदर अय्यर का इकबालिया बयान है। वो सुंदर अय्यर जो नाम से ही नहीं, मन और काम से भी उतने ही सुंदर हैं। उनके मन की सुंदरता कैमरे से होते हुए तस्वीरों में उतर जाती है। इन तस्वीरों का उन्होंने एक ब्लॉग बना रखा है। वैसे तो सुंदर जी दक्षिण भारतीय हैं। लेकिन वो नवाबों के शहर लखनऊ में पले-बढ़े हैं। हिंदी पर उनकी अच्छी पकड़ है, लेकिन मुझे नहीं पता कि अंग्रेज़ी में क्यों ब्लॉग लिख रहे हैं। खैर, तो बात उनके 35 साल पुराने ‘गुनाह’ की। इसका मार्मिक चित्रण उन्होंने शनिवार 20 अक्टूबर को अपनी एक पोस्ट में किया है। तब वो 11-12 साल के रहे होंगे। शाम का वक्त था। वो बगीचे में दोस्तों के साथ खेल रहे थे। वहीं पेड़ की टहनी पर एक बुलबुल चहक रही थी। खेल-खेल में उन्होंने एक छोटा-सा पत्थर उस चिड़िया की तरफ फेंका। और वह चिड़िया तड़प कर ज़मीन पर गिर पड़ी। सुंदर जी, घबरा गए। हाय, उनके हाथों ये कैसा पाप हो गया। उन्होंने वहीं बगीचे के एक कोने में बुलबुल को दफ्न कर दिया। लेकिन सुंदर जी आज भी उस दुर्घटना को याद करके सिहर जाते हैं। और, मुझे उनके भीतर बैठा शुद्धोधन का पुत्र राजकुमार सिद्ध...

ठीक नहीं है लिंक देने में भाव खाना

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कई ब्लॉगर हैं जो अपने ब्लॉग पर किसी दूसरे का लिंक देने में भाव खाते हैं। उनके ब्लॉगरोल में गिने-चुने पांच-छह नाम ही होते हैं। ई-मेल से अनुरोध करने पर या तो जवाब नहीं देते या कोई न कोई महान बहाना बना देते हैं। अब रवीश कुमार जैसे बड़े पत्रकार ऐसा करें तो बात समझ में आती है कि उनकी फैन फॉलोइंग बड़ी है, लोग अपने आप चले आएंगे। दिक्कत है कि अपने नए-नए हिंदी ब्लॉगर भी गिनती के दो चार लोगों का ही लिंक अपने ब्लॉग पर देते हैं। लेकिन इसी शनिवार को मिंट अखबार में मैने एक लेख पढ़ा – The 4ps of blog marketing , जिसके मुताबिक ऐसा करने में अपना ही नुकसान है। लिखनेवाले अजय जैन खुद एक ब्लॉगर हैं। उनका कहना है कि हमें अपने ब्लॉग पर दूसरों का लिंक बहुत उदारता से देना चाहिए। बिना यह सोचे कि सामनेवाले ने तो हमारा लिंक दिया नहीं तो हम क्यों दें? हम उससे कम थोड़े ही हैं! लेकिन यह अहंकार ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचने में बाधा है, उनके बीच स्वीकार्य होने की रुकावट है। हमें सोचना चाहिए कि का रहीम प्रभु को घट्यो जो भृगु मारी लात। अजय जैन बताते हैं कि जब भी हम किसी और का लिंक देते हैं तो वह कभी न कभी हमारे ब्ल...

पटरी पर जान, रिज़वान और अपने ज्ञानवंत

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रिज़वान-उर-रहमान को इसलिए मार डाला गया क्योंकि गरीब का बेटा होते हुए उसने अमीर की बेटी से मोहब्बत की, शादी रचाई। लेकिन पुलिस ने इन दोनों को जुदा कर दिया। रिज़वान को इसलिए मरना पड़ा क्योंकि उसने अपनी पत्नी को वापस पाने के लिए कानूनी कार्रवाई करने की योजना बना रखी थी। हिंदू-मुसलमान, गरीब-अमीर, मोहब्बत और जुदाई। बॉलीवुड की किसी रोमांटिक फिल्म की मसालेदार कहानी। लेकिन ये कहानी नहीं, बयान है कोलकाता के 27 साल के उस कंप्यूटर ग्राफिक्स टीचर रिज़वान के बड़े भाई रुकबान का, जिसकी लाश 21 सितंबर को रेल की पटरियों के किनारे पाई गई थी, जिसने ‘अपना लक पहनकर चलो’ वाले लक्स अंडरवियर व बनियान की निर्माता कंपनी के मालिक अशोक टोडी की 23 साल की बेटी प्रियंका टोडी से 18 अगस्त को शादी रचाई थी। पूरा कोलकाता शहर जिसे हत्या मानता है, उसे पश्चिम बंगाल की सीआईडी और कोलकाता पुलिस आत्महत्या का मामला बताती रही। लेकिन हाईकोर्ट के आदेश के बाद इस मामले की जांच सीबीआई कर रही है और उसने शुक्रवार 20 अक्टूबर को अशोक टोडी को रिज़वान की हत्या के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। साथ ही आज अशोक टोडी के भाई प्रदीप टोडी से पूछताछ की।...

अंश के साथ समग्र को देखता है मार्क्सवाद

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मैंने साम्यवाद की कमियां बताई, लेकिन अपनी टिप्पणी में यह भी लिख दिया कि ये इकलौता दर्शन है जो ठहराव के दलदल से निकाल कर गति का रास्ता दिखाता है। मुश्किल इसे अपनाने वालों से है जो इसके विज्ञान को समझने के बजाय इसे बोलकर अपनी दुकान चलाने लगते हैं। तो इस पर संजय बेंगानी का कहना है कि, “अपन भी गतिशील होना चाहता है। समझाया जाए कि कैसे मार्क्सवाद राह दिखाता है।" अनुनाद सिंह ने फरमाइश की कि, “कभी लिखकर हमारा ज्ञानवर्धन करें कि मार्क्सवाद कैसे यह 'एकलौता' दर्शन है जो दलदल से निकालकर गति का रास्ता दिखाता है?” मैं सहज विश्वासी आदमी हूं। मुझे नहीं पता कि इन बंधुओं ने अपनी बात चुटकी लेने के लिए कही है या गंभीरता में। अगर गंभीरता से जानना चाहते हैं तो राहुल सांकृत्यायन की किताब दर्शन-दिग्दर्शन पढ़ सकते हैं जिसमें सारे भारतीय और विश्व दर्शनों पर विस्तार से बात करते हुए वैज्ञानिक/द्वंद्वात्मक भौतिकवाद यानी मार्क्सवाद को आसान तरीके से पेश किया गया है। फिलहाल मार्क्सवाद को जैसा मैंने समझा है, वैसा प्रस्तुत कर रहा हूं। हम अपने आसपास की चीजों को अक्सर विपरीत जोड़े में देखते हैं। दुख-सुख, हान...

जुमलों की झुमरी-तलैया बन गया साम्यवाद

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डोरिस लेसिंग को साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिलने पर मैंने अपनी पोस्ट में उनके जीवन और रचनाओं का संक्षिप्त देते हुए लिखा था कि डोरिस ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य भी रही थी, तो ज्ञानदत्त पांडे जी ने अपनी टिप्पणी में पूछा था कि डोरिस लेसिंग ने साम्यवादी पार्टी क्यों छोड़ी? कहीं पता चलेगा? यह तो अभी तक मुझे नहीं पता चला है। लेकिन इसी 18 अक्टूबर के टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादकीय पेज पर साम्यवाद के बारे में उनका 1992 में लिखा हुआ एक लेख छपा था, जिसका लिंक मैं अपनी कल की पोस्ट के साथ नत्थी करना चाह रहा था। पर, टाइम्स ऑफ इंडिया की साइट पर मुझे यह लेख मिला ही नहीं, तो मैंने सोचा क्यों न इस लेख का अनुवाद ही छाप दिया जाए। आइए देखते हैं कि इस लेख के चुनिंदा अंश जो दर्शाते हैं कि डोरिस क्या सोचती हैं कम्युनिस्टों की सोच के बारे में... हम साम्यवाद की प्रत्यक्ष मौत देख चुके हैं, लेकिन साम्यवाद के अधीन सोचने का जो तरीका पैदा हुआ था या जिसे साम्यवाद से मजबूती मिली, वह अब भी हमारी जिंदगियों को नियंत्रित करता है। पहला बिंदु है भाषा। यह कोई नया विचार नहीं है कि साम्यवाद ने भाषा को भ्रष्ट किया और भाषा क...

125 साल पुरानी मांग है शिक्षा का अधिकार

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वाकई आज मैं यह पढ़कर आश्चर्यचकित रह गया कि देश में शिक्षा के अधिकार की मांग 125 साल पुरानी है। समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने 19 अक्टूबर 1882 को ब्रिटिश सरकार द्वारा शिक्षा पर बनाए गए हंटर कमीशन को एक ज्ञापन दिया था, जिसमें उन्होंने बच्चों के लिए सार्वभौमिक शिक्षा के अधिकार की मांग की थी। देश की आजादी के 60 साल बाद हालत ये है कि साल 2002 में संविधान संशोधन के बाद 6 से 14 साल के बच्चों के लिए शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार तो बना दिया गया, लेकिन इसे अभी तक गजट में नोटिफाई नहीं किया गया है। शुक्रवार को शिक्षण हक्क अभियान के कार्यकर्ताओं ने महात्मा फुले के योगदान को याद करने के लिए मुंबई के आज़ाद मैदान में प्रदर्शन किया। उन्होंने इस बात पर अफसोस जताया कि सरकार ने 2002 के संविधान संशोधन में 6 साल तक के बच्चों को शिक्षा के अधिकार से बाहर छोड़ दिया है। ऊपर से पांच साल भी इसे नोटिफाई न करने से साफ हो जाता है कि महात्मा फुले की तस्वीरों और मूर्तियों पर माला चढ़ाने वाले हमारे नेता उनकी बातों का कितना आदर करते हैं।

‘बाल-विवाह’ कराते हैं संघी और कम्युनिस्ट

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पहले भी लड़की के रजस्वला होने से पहले उसकी शादी कराना वर्जित था। आज भी 18 साल से कम उम्र की लड़की शादी करना अपराध है। लेकिन राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश और दूसरे कई राज्यों के ग्रामीण इलाकों में अब भी ऐसा होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे हिंदुवादी संगठन और सभी कम्युनिस्ट यकीनन इसके खिलाफ हैं। लेकिन दूसरी तरफ वो खुद एक तरह का बाल-विवाह कराते रहे हैं। अधकचरी उम्र के आदर्शवादी लड़कों को वो जिस तरह शुरू में अपना आंशिक और बाद में पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनाते हैं, मेरी नज़र में वह बाल-विवाह के अपराध से किसी तरह कम नहीं है। सोचिए, 16 से 20 साल की उम्र में जब ज्यादातर नौजवानों को देश के नाम और अपनी जातीय-धार्मिक पहचान के अलावा समाज की बुनावट, उसके इतिहास के बारे में ठोस कुछ नहीं पता होता, तब संघी और कम्युनिस्ट दोनों ही इनकी बलिदानी मानसिकता का फायदा उठाकर इन्हें अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। प्राकृतिक रूप से जो आदर्शवादी भावना इनके अंदर इसलिए पैदा हुई होती है ताकि वे जीवन की आगे आनेवाली ऊबड़-खाबड़ सच्चाइयों से टकरा सकें, उन पर विजय हासिल करने का हुनर सीख सकें, उसे संघी और कम्युनिस्ट एक वायवी,...

गेहूं पर तू-तू मैं-मैं और मूर्ख बनते किसान

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बीजेपी ने आयातित गेहूं की क्वालिटी को लेकर कृषि मंत्री शरद पवार पर निशाना साधा तो पलटकर पवार ने बीजेपी की बोलती बंद कर दी। लेकिन दो सांड़ों की लड़ाई में कुछ ऐसे सच सामने आए हैं, जिनसे हमारे-आप जैसे लोगों की आंख खुल जानी चाहिए। पवार की मानें तो इस साल गेहूं आयात करने की नौबत अटल बिहारी की अगुआई वाली एनडीए सरकार और बीजेपी शासित राज्यों की नीतियों के चलते पैदा हुई। वाजपेयी सरकार ने एक तो गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं बढ़ाकर किसानों को हतोत्साहित किया, ऊपर से सरकारी गोदामों का गेहूं सस्ती दरों पर व्यापारियों को निर्यात करने के लिए बेच दिया। इस फैसले से केंद्र सरकार को 16,245 करोड़ रुपए का घाटा हुआ है। बात यहीं तक सीमित नहीं रही। बीजेपी या उसकी साझा सरकारों वाले चार राज्यों – गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश और बिहार ने इस साल पीडीएस के लिए गेहूं की बेहद मामूली खरीद की है। गुजरात में 2006-07 में गेहूं का उत्पादन 30 लाख टन हुआ, जबकि सरकारी खरीद रत्ती भर भी नहीं हुई। राजस्थान में 69.25 लाख टन गेहूं उत्पादन के मुकाबले सरकारी खरीद हुई सिर्फ 3.8 लाख टन की। मध्य प्रदेश में कुल गेहूं उत्पादन 71....

भैंसि कूदि गय पानी मां, घाटा लागि...

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बचपन में सुनी और बोली गई इस कहावत का अर्थ मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं कि भैंसि कूदि गय पानी मां, घाटा लागि जवानी मां। हां, इतना ज़रूर लगता है कि इसमें कुछ गड़बड़ है, कुछ ऐसा है जो बच्चों के मुंह से शोभा नहीं देता। ऐसा इसलिए क्योंकि बाहर से सुनी और रटी-रटाई यह कहावत जब मैंने छुटपन में अम्मा-बाबूजी के सामने बोल दी थी तो अम्मा ने पहले तो अवाक होकर बाबूजी की तरफ देखा और फिर मुझे आंखें तरेर कर डपट दिया था। बाहर अपने से पांच-दस साल बड़े लड़कों से इस कहावत का मतलब पूछा तो वे ऐसे हंस पड़े जैसे मुझसे बड़ा मूर्ख उन्होंने पहले देखा ही न हो। इसी तरह का एक और वाकया है। मैं आठ-नौ साल का रहा हूंगा। घर में मनोरंजन के साधन के नाम पर फिलिप्स का एक रेडियो था जो चाचा की शादी में मिला था। अम्मा-बाबूजी पढ़ाने चले जाते थे तो मैं उस पर गाने सुनता था। सुनता था तो कुछ गाने याद भी हो जाते थे। और याद हो जाते थे तो खुश होने पर मैं उन्हें गाता भी था। एक दिन शाम को घर के आंगन में सबकी मौजूदगी में मैंने टेर दिया – कजरा मोहब्बत वाला, अंखियों में ऐसा डाला, कजरे ने ले ली मेरी जान, हाय रे मैं तेरी कुर्बान। बाबूजी चाय पीन...

बेनज़ीर फोटो, जब रो पड़ीं भुट्टो

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आज दोपहर करीब पौने दो बजे पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो का विमान दुबई से कराची पहुंचा तो वहां हज़ारों समर्थक उनके स्वागत के लिए पहले से उमड़े हुए थे। बेनज़ीर भुट्टो के पांव विमान से नीचे पड़े तो वे रो पड़ीं। इन पलों को आप इस फोटो में साफ देख सकते हैं। लेकिन परवेज़ मुशर्रफ के साथ हुए जिस करार के तहत आठ साल के स्वघोषित निर्वासन से उनकी मुल्क-वापसी हुई है, उसमें नहीं लगता कि वे खास कुछ करने की जहमत उठाएंगी। बस, कुछ खोखली भावुक बातें होंगी, हवाई वादे होंगे ताकि सत्ता का सुख उनकी झोली में फिर से आ जाए। ऐसे में उनके आंसू और रोने की यह अदा महज दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं लगती।

जो अपनी नज़रों में गिरा, समझो मरा

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सांप को मारना हो तो उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ देनी चाहिए। और, अगर किसी इंसान को मिटाना हो तो उसके आत्मसम्मान को खत्म कर देना चाहिए। हमारे दफ्तरों में, कामकाजी संगठनों में अक्सर कमज़ोर किस्म के बॉस इसी नीति पर अमल करते हैं। उन्हें अपने नीचे काम करनेवाले सहकर्मी की प्रतिभा से डर लगता है तो वे बार-बार उसके काम में मीनमेख निकालते हैं। सब के सामने चिल्लाकर कहते हैं, “तुमको आता क्या है? तुमको नौकरी किसने दे दी? तुम तो निपट घसियारे हो। यहां कर क्या रहे हो? कहीं और अपने लेवल की नौकरी क्यों नहीं ढूंढ लेते!” वे अच्छी तरह समझते हैं कि सामनेवाले के मजबूत पहलू और कमज़ोरियां क्या हैं, लेकिन वे जान-बूझकर कमज़ोरियों पर नहीं, उसके स्ट्रांग प्वॉइंट्स पर चोट करते हैं। सहकर्मी अगर अपनी प्रतिभा और काबिलियत को लेकर हठी विक्रमादित्य नहीं हुआ, ज्यादातर लोगों की तरह सहज विश्वासी किस्म का जीव हुआ तो न-न करते हुए भी अपनी आलोचनाओं पर यकीन करना शुरू कर देता है। उसे लगता है कि कहीं तो कुछ होगा जो उसका बॉस उसे इस तरह झिड़कता है। फिर तो वह अपनी हर पहल को संदेह की नज़र से देखने लगता है। सोचता है कहीं कोई गलती न हो जाए। ...

खास की बपौती और नक्कारखाने की तूती

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ये देश कुछ खास लोगों की बपौती है, जिनके एक बार जुबां भर खोल देने से काम हो जाता है। बाकी आम लोगों को अपनी बात सुनवाने के लिए मार्च करना पड़ता है, जुलूस निकालना पड़ता है, धरना-प्रदर्शन करना पड़ता है। जैसे, अमेठी के सांसद राहुल गांधी ने कांग्रेस का महासचिव बनने के बाद कहा कि राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी योजना पूरे देश में लागू कर दी जानी चाहिए तो पलक झपकते ही सरकार ने ऐलान कर दिया कि ऐसा किया जा रहा है। जबकि तीन सालों से करोड़ों भूमिहीन किसानों और आदिवासियों की तरफ से गांधीवादी संगठन, एकता परिषद मांग कर रहा है कि देश में राष्ट्रीय भूमि आयोग और नई भूमि सुधार नीति बनाई जाए, लेकिन सरकार बस सुन रही है और टाल रही है। अब देश के चार राज्यों – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार और उड़ीसा के तकरीबन 25,000 भूमिहीन किसान और आदिवासी एकता परिषद के बैनर तले ग्वालियर से दिल्ली तक करीब साढ़े तीन सौ किलोमीटर की जनादेश यात्रा कर रहे हैं। यात्रा 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के मौके पर ग्वालियर से शुरू हुई और मोरैना, धौलपुर, आगरा और मथुरा होते हुए आगे बढ़ रही है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग से बल्लभगढ़ और फरीदाबाद होते हुए 28...

45 से काउंट-डाउन और 50-55 तक खल्लास

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उम्र बढ़ती है या साफ कहें कि उम्र घटती है तो जीने की इच्छा बढ़ती जाती है। कितनी अजीब बात है कि जब आपके पास जीने को पूरी ज़िंदगी पड़ी होती है तो अक्सर आपके मन में मरने का भाव आता है। और, जब चलाचली की बेला आती है तो आप ज़िंदगी को और कसकर पकड़ लेते हैं। आपने कभी नोटिस किया है कि अपनी जान खुद लेनेवालों में ज्यादातर की उम्र 25 से 35 या अधिक से अधिक 40 के आसपास रहती है। इसके बाद के लोग अपनी मौत मरते हैं बीमारी से या एक्सिडेंट से, खुदकुशी नहीं करते। 65 के ऊपर के तो इक्का-दुक्का लोग ही कहीं कूद-कादकर अपनी जान लेते हैं। वैसे भी ऐसे सीनियर सिटीजन देश की आबादी का महज 4 फीसदी हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस समय देश में औसत जीवनकाल 62 साल का है और दस साल बाद 69 तक पहुंच जाएगा। यानी अभी ज्यादातर लोग 62 से पहले ही टपक लेते हैं। वैसे, जहां तक मैं देख पा रहा हूं, इस समय उम्र को लेकर अपने यहां बड़ा घपला चल रहा है। मां-बाप के जमाने में लोग 35 साल के बाद से बूढ़े होना शुरू हो जाते थे, जबकि इस समय 40 के बाद लोगों पर हीरोगिरी चढ़ रही है। आमिर, शाहरुख, सलमान, शेखर सुमन सभी 40 के पार जा चुके हैं। लेकिन उन्ह...

नमोनम: सौ मूस खाइकै बिलारि भईं भगतिन

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अवधी की इस कहावत का मर्म समझने के लिए कहीं पीछे जाने की ज़रूरत नहीं है। नमो-नमो जपिए और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेद्र मोदी का वह ताज़ा बयान याद कर लीजिए जिसमें उन्होंने कहा था कि वे सांप्रदायिक नहीं हैं। वे सबको साथ लेकर चलने की राजनीति में यकीन रखते हैं। वे अल्पसंख्यकवाद के साथ ही बहुसंख्यकवाद के भी खिलाफ हैं और गुजरात विधानसभा के आनेवाले चुनाव में अपने सु-शासन का रिकॉर्ड चलाएंगे, न कि कट्टर हिंदुत्व का कॉर्ड। उनका दावा है कि जहां देश के तमाम नेता जाति और धर्म की भाषा बोलते हैं, वहां वे इकलौते ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो अपने राज्य के साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों की भाषा बोलते हैं। दो महीने बाद होनेवाले चुनावों के लिए नरेंद्र मोदी गुजरात शाइनिंग का एजेंडा लेकर उतर पड़े हैं। हालांकि इंडिया शाइनिंग की दुर्गति याद करके उन्होंने शाइनिंग शब्द से परहेज किया है। लेकिन उनकी बात का सार वही है। 45 मिनट की पूरी डॉक्यूमेंट्री उन्होंने जारी कर दी है जिसमें गुजरात के चमत्कार के दम पर कल के भारत को हासिल करने का नारा दिया गया है। एक तरफ निशाने पर पश्चिम बंगाल है जहां तीस सालों से वामपंथियों की सरकार है, तो...

अफसोस! न कोई मुस्लिम दोस्त है, न पड़ोसी

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यूं तो दोस्तों को जाति या धर्म में बांटकर मैंने कभी नहीं देखा। लेकिन आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ था कि ईद की सेवइयां कहीं न कहीं से मिल न गई हों। इस बार ऐसा नहीं हुआ तो अचानक ध्यान गया कि मुंबई में न तो मेरा कोई मुस्लिम दोस्त है और न ही कोई पड़ोसी। देश की लगभग 110 करोड़ की आबादी में करीब 15 करोड़ मुसलमान हैं (पाकिस्तान की पूरी आबादी के बराबर) यानी हर दस हिंदुस्तानियों में कम से कम एक मुस्लिम है। फिर ऐसा क्यों है कि करीब दो सौ परिवारों की हमारी हाउसिंग सोसायटी में एक भी मुस्लिम नहीं है? हां, ये सच है कि बंटवारे की राजनीति और दंगों ने हमारे शहरों में धार्मिक आधार पर मोहल्लों और बस्तियों का धुव्रीकरण कर दिया है। इसने हम से विविधता का वो चटख रंग छीन लिया है, बचपन से ही हम जिसके आदी हो चुके थे। मैं राम जन्मभूमि और अवध के उस इलाके से आता हूं जहां हमारे चाचा, ताऊ और पिताजी आजी सलाम, बड़की माई सलाम और बुआ सलाम कहा करते थे। ताजिया के मौके पर आजी हम बच्चों को धुनिया (जुलाहों की) बस्ती में भेजती थी, मन्नत मांगती थी। बकरीद पर मुसलमानों के घर से हमारे यहां भी खस्सी का गोश्त आता था। अम्मा-बाबूजी बाद में ...