Wednesday 26 September, 2007

मची है उन्माद की लूट

आज मुंबई की सड़कों पर टीम इंडिया के स्वागत पर जैसा उन्माद दिखा और फिर पवार मार्का नेताओं ने जिस तरह इसे भुनाने की कोशिश की, उस पर मेरी पत्नी से रहा नहीं गया और उन्होंने लिख डाली ये पोस्ट। आप भी गौर फरमाइए। शायद आपको इसमें अपनी भी भावनाओं और सवालों की झलक मिल जाए।

क्रिकेट खेल था। धर्म कब से बन गया?
खेल, उत्साह था। उन्माद कब से बन गया।
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खिलाड़िय़ों के लिए खेल उन्माद हो तो समझ में आता है।
एक आदमी के लिए खेल, खेल ही रहता तो अच्छा होता।
खुश होता, जीत की खुशिय़ां मनाता और दूसरे दिन काम पर लग जाता।
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मैं एक आम आदमी हूं।
सड़कों पर उतरकर भेड़ हो गया, भीड़ का हिस्सा हो गय़ा।
भीड़ बनकर मैंने सोचना बंद कर दिय़ा।
कि मेरी गाढ़ी कमाई से कटा टैक्स कहां जा रहा है।
कि मेरी कामवाली बाई के पास एक छाता तक नहीं और मैंने उसे सौ रुपए की मदद तक नहीं की।
यहां, रैपिड एक्शन फोर्स, नेताओं की सफेद वर्दी, करोडों के इंत़जामात, रुके हुए ट्रैफिक से रुका हुआ व्य़ापार...सबकी क़ीमत मैं सहर्ष उठाऊंगा।
खुशिय़ां जो मनानी है।
उन्माद के सिवा अब कोई खुशी भाती नहीं।
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मैं एक य़ुवा लड़की हूं।
कितनी खुश हुई wow! उस मोटे तग़डे नेता के पीछे बैठे य़ुवराज..ओं की कुछ झलक तो मिल जा रही थी।
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वैसे राजा-महाराजे का हमें इतना शौक था तो उन बिचारों को उखाड़ क्य़ों फेंका।
रा...ज तिलक कर हम इतने सारे राजे फिर से ला रहे हैं।
उ..इमां, हमारी समझ में कम आता है ज़रा स्पष्ट कीजिएगा तो।
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वैसे सुनते हैं क्रिकेट नाम का कोई नया धर्म बाज़ार में आ गया है।
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मैं एक रा..जनेता हूं। हा-हा-हा।
मैं एक विज्ञापनकर्ता – प्रायोजक हूं। हा-हा-हा।
करोड़ों लोगो के उन्माद को मैं एक जलसे के एलान भर से खरीद सकता हूं।
बलिहारी खेल क्रिकेट की। लोगों की भावनाओं से खेलने का रामबाणी नुस्खा दिला दिया है। जुलूस निकालवा देंगे।
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लोगों, मैं एक जुलूस हूं। इस भीड़ में शामिल मैं बोदा-बंदरराम हूं, न देखूं, न बोलूं, न सोचूं। सोचने की ज़रूरत क्या है, सभी तो यहीं, जुलूस में हैं।

11 comments:

Sanjeet Tripathi said...

सटीक!!

Shiv said...

क्रिकेट को
'धर्म' मानने का नतीजा
सामने आ रहा है
और, अब तो
नेता भी 'धार्मिक' हो गए है
सो 'धर्म' और राजनीति
को साथ देखकर
जनता को भी
ख़ूब मज़ा आ रहा है
जनता का पैसा
पहले
महाराज के पास जाता था
आज
युवराज के पास जा रहा है

Anonymous said...

इतनी अच्छी पोस्ट लिखने वाली आपकी पत्नी का नाम क्यों नहीं है,प्रविष्टी के साथ? एक अलग पोस्ट में काएदे से बताइए।

Udan Tashtari said...

बेहतरीन है भाई!!!

बधाई.

सागर नाहर said...

बहुत सही

Yunus Khan said...

सही कहा आपने । ये क्रिकेट के दीवानों का नहीं बल्कि क्रिकेट की आग पर रोटियां सेंकने का आयोजन था

बोधिसत्व said...

बहुत शानदार और धारदार। कई सारे व्यंग कवियों को अवकाश पर पठाने के संकेत हैं इसमें। बधाई। लगातार लिखें यह आग्रह है।

VIMAL VERMA said...

रोमाजी सबसे पहले धन्यवाद इतना बढिया आप लिखतीं है पहले वाकई नही पता था... इनके लिये क्रिकेट धर्म भी नही है अगर होता तो यही मुम्बई मे या भारत के अन्य शहरों में जब रणजी के मैच होते है और यही खिलाड़ी भी वहां खेलते है तो पूरा स्टेडियम खाली पड़ा रहता है छोटे से छोटे और बड़े से बड़े शहर की यही स्थति है वहां खेलने वाले तो हैं पर इनकॊ पूजने वाला कोई भी नही है..ये जो भी है इनकी संख्या काफ़ी है, ये वाकई हर मोर्चे पर हारने वाले समाज के अंग है.. और आप ये ज़रूर देखिये जब भी जीत होती है तब तो वाह वाह और हारने पर पागल कुते से भी बद्तर हो जाते है. फिर से अनिलजी अच्छी पोस्त के लिये रोमा और आपको धन्यवाद

Anonymous said...

Sanjeet jj aur Naharji,

many thanks!

Shivkumar ji,
aapki instant kavita bahut achchi lagi!thankyuo.

Yunusji,
ekdam thik!netalog dusaron ki aag par roti senkane ka kaun -sa mauka chukte hai.

Aphlatoon and Udan tashtari bhai,
big time dhanyavaad!

Bodhiji,
hausla-aafjai ka shukriya! aapki baat yaad rakhenge!koshish karte rahenge!

Vimalji,
sahi kaha aapne. sirf team India aur vahan bhi jeet hi dharma hai!aapka dhanyavad sir aankho par1

डा.अरविन्द चतुर्वेदी Dr.Arvind Chaturvedi said...

अद्भुत!!!

अनेकों लोगों की भावनाओं को शब्द दिये हैं आपने,अपनी काव्याभिव्यक्ति द्वारा.
खिलाडी तो खेल रहा है खेल,
लूट कोई और रहा है श्रेय सारा.

भारतीयम

राजेश कुमार said...

आपने सही लिखा है और बहुत बढिया लिखती हैं लेकिन खेल का उन्माद जो मुंबई में हुआ वह सकारात्मक था मानो दीवाली - ईद एक साथ मनाई जा रही हो।