Thursday 2 August, 2007

बात एसपी-डीएम की, न्यूज़ चैनलों की

यहां एसपी का मतलब आजतक की शुरुआत करनेवाले सुरेद्र प्रताप सिंह से है और डीएम का मतलब आजतक से स्टार न्यूज़ होते हुए सीएनबीसी आवाज़ तक पहुंचे दिलीप मंडल से है जिनकी राय में, ‘ये कहना तथ्यों से परे है कि कभी पत्रकारिता का कोई स्वर्ण युग था या कि पहले कोई महान पत्रकारिता हुआ करती थी।’ वैसे, मंडल जी पर एसपी का प्रभाव इतना ज्यादा है कि उनकी वेशभूषा, चेहरे-मोहरे और हाव-भाव से एसपी की छाया-सी छलकती है। उनके लिखने से भी यह ज़ाहिर हो जाता है। तभी तो वे कहते हैं, ‘पुराने एसपी से नए जमाने के पत्रकार बहुत कुछ सीख सकते हैं। लेकिन एसपी जितने मॉडर्न थे, उस समय की पत्रकारिता उतनी मॉडर्न नहीं थी।’
मंडल जी की यही बात मेरे गले नहीं उतरती। पेड़ बड़ा मॉडर्न था, जंगल उतना मॉडर्न नहीं था। जंगल से पेड़ अलग, पेड़ से जंगल अलग। हकीकत ये है कि आज हिंदी न्यूज़ चैनलों में जो भी अच्छाई या बुराई है, उसके बीज एसपी सिंह की कार्यशैली में ही छिपे हैं। वैसे भी, आज की हिंदी टेलिविजन पत्रकारिता में एसपी के ही तो चेले-चापड़ हर जगह विराजमान हैं।
सच कहें तो एसपी आज एक कल्ट बन चुके हैं। समाचार चैनलों के संपादक उनके फोटो सजाते हैं। पाल, प्रकाश, प्रसाद, प्रताप जैसे मध्य नामों वाले खुद को एपी, एनपी, केपी, जीपी, सीपी जैसा कुछ कहलाना पसंद करते हैं। एसपी के पत्रकार भाई सत्येंद्र खुद को एसपी ही कहलवाते हैं। बहरहाल-हालांकि का फेंटा लगाने वाले ‘सर्वश्रेष्ठ’ चैनल के ‘सर्वश्रेष्ठ’ राजनीतिक एंकर डेस्क वालों पर रौब जमाते हैं कि एसपी होते तो ऐसी कॉपी उठाकर फेंक देते हैं। हर तरफ एसपी की तारीफों के पुल बांधे जाते हैं। अर्ध-पत्रकार समाज विश्लेषक भी, एसपी होते तो क्या होता, की बात सोचते-गुनते रहते हैं।
मेरा एसपी के साथ कोई सीधा ताल्लुक नहीं रहा है। टाइम्स रिसर्च फाउंडेशन में क्रैश कोर्स के दौरान उन्होंने इंटरव्यू लिया था और क्रैश कोर्स बीच में छोड़ने पर उन्होंने रोका था। लेकिन रविवार से लेकर नवभारत टाइम्स और आजतक में उनके साथ काम करनेवाले कुछ लोगों ने जो मुझे बताया, उसके मुताबिक एसपी का टीम बनाने में कोई यकीन नहीं था। वे जब जिसे चाहा, चढ़ाते थे और उतनी ही निर्ममता से गिरा भी देते थे। टीम न बनने देने की उनकी फितरत उनके चेलों में निरंतर बह रही है।
यही वजह है कि हमारे हिंदी चैनलों के संपादक गुट बनाने में उस्ताद है, जबकि टीम के बनते ही उनको अपनी अक्षुण्ण सत्ता के खंडित होने का डर सताने लगता है। फिर इन संपादकों के इर्दगिर्द बन जाता है बौद्धिक काहिली और शातिर दुनियादारी से ग्रस्त चालाक चेलों का मंडल, जिनको इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि नीचे के लोग क्या सोच रहे हैं, साथी पत्रकार क्या सोच रहे हैं, दर्शक क्या सोच रहे हैं। उनकी जवाबदेही सिर्फ ऊपरवालों की तरफ होती है। नीचे का कोई फीडबैक उनके लिए बेमानी होता है।
ज़ाहिर है एसपी में इस तरह की खामियां नहीं रही होंगी। लेकिन खराब मशीन से निकली फोटोकॉपी में ओरिजनल की बस छाया भर होती है। हम ये भी जानते हैं कि इतिहास की छोटी-सी चूक वर्तमान तक आते-आते भयंकर भूल बन जाती है। एसपी के उत्तराधिकार का डंका बजानेवालों को ये बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए। अनुकृति के चक्कर में पड़ने के बजाय नई ज़मीन तलाशनी चाहिए। और, कुछ लोग ऐसा कर भी रहे हैं क्योंकि धरती कभी वीरों से सूनी नहीं होती। जारी...

1 comment:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

अनिल जी
अनुकृति के चक्कर में पड़ने के बजाय नई ज़मीन तलाशनी चाहिए। और, कुछ लोग ऐसा कर भी रहे हैं क्योंकि धरती कभी वीरों से सूनी नहीं होती.
आपकी यह बात बिल्कुल सही है, लेकिन साथ ही आपकी एक सोच गलत भी है. जंगल के पुराना होते हुए भी पेड नया हो सकता है और दुनिया में जो कुछ भी नयापन दिखाता है वह पुराने जंगल में कुछ नए पेड़ों के उगने और उनके द्वारा अपने और अपने साथियों के लिए अलाहदा वजूद की तलाश के नाते ही होता है. मैं आज भी ख़म ठोक कर कह रहा हूँ कि निराला जितने आधुनिक थे हिंदी की कविता आज तक उतनी आधुनिक नहीं हो सकी है. तो एस पी अगर अपने समय से आगे थे तो इसमें कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए. मैं एसपी का न तो चेला हूँ, न मुरीद और न उनका समकालीन. मैं उनकी पीढी का लेकिन उनके प्रति आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखने वाला व्यक्ति हूँ और उसी हैसियत से यह कह रहा हूँ. और इसीलिए मैं आपकी इस बात से सौ फीसदी सहमत हूँ कि हमें अपने लिए नई जमीन की तलाश करनी चाहिए. किसी से प्रभावित होने तक तो ठीक है, लेकिन आतंकित कभी नहीं होना चाहिए.