
दुनिया में जो डेमोग्राफिक तब्दीलियां आ रही है, उसमें हालत ये हो गई है कि विकसित देशों के पास तकनीक तो है, लेकिन काम करनेवाले लोग नहीं हैं। एक अनुमान के मुताबिक साल 2020 में दुनिया भर में 4.7 करोड़ कामगारों की कमी होगी, जबकि भारत के पास 4.5 से 5 करोड़ कामगार ज्यादा रहेंगे। अगर हमने ज़रूरी कौशल वाले कामगार तैयार कर लिये तो दुनिया की इस ज़रूरत को पूरा कर सकते हैं।
विदेश में ही नहीं, देश में भी रोज़गार के नए अवसर दस्तक दे रहे हैं। अभी भारतीय आईटी उद्योग की जो विकास दर चल रही है, उसके हिसाब से अगले तीन सालों में देश में रोजगार के एक करोड़ नए अवसर पैदा होंगे। और कहा जाता है कि आईटी उद्योग के हर रोजगार से बाकी अर्थव्यवस्था में चार और नौकरियां पैदा होती हैं। यानी, अगले तीन सालों में रोजगार के कुल पांच करोड़ मौके पैदा होने वाले हैं।
इन बातों को देखकर डंके की चोट पर कहा जा सकता है कि दो सदियों से योजनाकारों से लेकर आम लोगों के दिलोदिमाग में घर बना चुके माल्थस के सिद्धांत के अब परखचे उड़ गए हैं। ब्रिटेन में 1766 में जन्मे राजनीतिक अर्थशास्त्री थॉमस रॉबर्ट माल्थस खुद अपने संपन्न मां-बाप की सात औलादों में छठे नंबर पर थे। आबादी की समस्या उनका प्रिय विषय थी। 1798 में प्रकाशित अपने मशहूर सिद्धांत में उन्होंने कहा था कि आबादी की दर ज्यामितीय गति से बढ़ती है, जबकि खाद्यान्न उत्पादन अंकगणितीय दर से बढ़ता है। इसलिए आबादी की रफ्तार रोकी नहीं गई तो एक दिन खाद्यान्न की आपूर्ति इतनी घट जाएगी कि पूरी मानव जाति का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।

माल्थस ने 19वीं सदी में ही ऐसा होने का अंदेशा जताया था। लेकिन रासायनिक उर्वरकों से लेकर कई अन्य वजहों से उत्पादकता में भारी वृद्धि हुई और उनकी ये भविष्यवाणी गलत साबित हो गई। मगर चार्ल्स डारविन जैसे विकासवादियों से लेकर एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो जैसे अर्थशास्त्री माल्थस के सिद्धांत के मुरीद बने रहे। आज भी हमारे नेताओं से लेकर आम लोग तक कहते रहते हैं कि भारत के लिए सबसे बड़ी समस्या आबादी की है। संसाधन कितने भी बढ़ा लिये जाएं, बढ़ती आबादी उन्हें निगल जाएगी। वो ये नहीं देखते कि भारत में गरीबी रेखा से नीचे रह रही करीब 30 करोड़ की आबादी संसाधनों पर कोई बोझ नहीं डालती। एक आदमी के संसाधन में ऐसे दस-बीस लोग गुजारा करते हैं। फिर वो देश के संसाधनों पर बोझ कैसे हो गए?
पहले उपनिवेशों में आबादी का पलायन हुआ तो अब ग्लोबलाइजेशन के दौर में काबिल लोगों के लिए देशों की सीमाएं खत्म हो गई हैं। अगर आज अमेरिका या यूरोप में भारत जैसे विकासशील देशों के छात्रों और प्रोफेशनल्स को वीसा में छूट दी जा रही है, तो ये उनकी कोई कृपा नहीं, मजबूरी है। जिस तरह वायुमंडल में किसी जगह दबाव कम हो जाने पर दूसरी जगह की हवाएं उस दिशा में चक्रवात की तरह बढ़ती हैं, आबादी का वैसा ही चक्रवात अब विकासशील और गरीब देशों से विकसित और अमीर देशों की तरफ चलनेवाला है। और, इसमें नुकसान किसी का नहीं, सबका फायदा है।
9 comments:
आपने हमारे सामने नई बात रखकर सोचने को मजबूर कर दिया. तर्क बहुत खूब हैं- एक आदमी के संसाधन से जब 10 आदमी गुज़ारा करते हों....
अच्छा मज़ाक है! सच्चाई का सामना करने की जगह आप मखौल उड़ा रहे हैं? अपनी आधी आबादी युवाओं की है. लेकिन 26 per cent गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं. गरीबी रेखा का मतलब जानते हैं? खाने-पीने के लिये भी मोहताज़ हैं ये लोग. आप इनमें से पांच करोड़ को उच्च-शिक्षा दिला कर विदेश में नौकरी दिलाने की बात करते हैं. हमारी जनता में बहुत अधिक लोगों के पास तो अक्षर ग्यान भी नहीं. आप खाये पीये पेट वाले लोगों को सब कुछ इतना आसान क्यों दिखता है
रमेश भाई, आप गलत समझ गए। मैंने तो बस यही बात रखी है कि माल्थस का सिद्धांत अब फेल हो गया है। सरकार चाहे तो परिवार नियोजन या कल्याण का रोना छोड़कर आबादी को ही देश का ऐसेट बना सकती है। जाहिर है इससे गरीबी की समस्या दूर नहीं होगी, उसके लिए तो पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था, कृषि अर्थव्यवस्था को बदलना पड़ेगा।
माफ कीजिये भाई साहब... मैं शायद आपके लेख का मर्म नहीं समझ पाया था.. आपके बाकी लेख पढ़के आपकी बात सही परिपेक्ष में समझा हूं...
बहुत अच्छा किया जो बता दिया ,अब हम बेधड़क हो कर आशिर्वाद दे सकेगें।:(
बहुत सुन्दर चिंतन किया है अनिल जी.
जल्दी बताइए जर्मनी जाने का तरीका।
नौकरी तो चलिए मिल गई.. पर हवा का क्या होगा.. पानी? पेड़.. ईधन? ये सब भी क्या उतनी ही मात्रा में बढ़ जायेंगे.. पृथ्वी का आकार भार तो नहीं बढ़ने वाला.. अगर पॄथ्वी एक किलो की है.. और आपने आधा किलो तत्व मनुष्य बनाने में प्रयोग कर लिया तो पेड़ पौधे घोड़े कुत्ते कितने बन पायेंगे..? पृथ्वी का उत्तराधिकारी अकेले मनुष्य तो नहीं?
अभय जी, ग्लोबल वॉर्मिंग से लेकर इन सभी पहलुओं पर मुझे अलग से लिखना है। इंतज़ार कीजिए...
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