
अगर आप पुरुष हैं तो बहुत मुमकिन है कि इन पंक्तियों को पढ़कर आपके मन में खास कुछ भी न हो, कोई सिहरन न हो। लेकिन अगर आप लड़की हैं, शादी की उम्र हो गई है या कहें कि शादी की उम्र फिसलती जा रही है तो मनमीत न मिल पाने की यह पीड़ा मन के किस गहरे कोने से कैसी सघनता से उठी होगी, आसानी से पहचान सकती हैं। मैंने भी घूमते-टहलते गलियों में, सड़कों पर, यात्राओं में, बसों में, ट्रेनों में, घरों में, रिश्तेदारियों में कभी-कभार इस पीड़ा को पढ़ा है। सुदर, सलोने चेहरों के पीछे परतों में छिपी तड़प को देखा है, पहचाना है। आंखों के अंदर से झांकती पुतलियों में, आपको आरपार पारदर्शी कांच की तरह भेदती निगाहों में। लगता है उम्रकैद पा चुका कोई निरपराध कैदी काल-कोठरी में भेजे जाने के ठीक पहले किसी अपने की तलाश कर रहा हो। दलदल में डूबने के ठीक आखिरी पल कोई किनारे खड़े शख्स से आंखों ही आंखों विदा मांग रहा हो।
ये पीड़ा सहन नहीं होती। ऐसे मौकों पर लगता है, कृष्ण ने अगर सचमुच हज़ारों गोपियों से प्रेम किया होगा, उनसे रासलीला रचाई होगी, उनके हो गए होंगे तो कृष्ण भोगी नहीं रहे होंगे। ऐसा करनेवाला तो कोई महायोगी ही हो सकता है। कृष्ण तो राधा के ही हुए, लेकिन वो प्रेम के ऐसे प्रतीक बन गए कि हर व्याकुल हृदय उनको अपना मानने लगा। कृष्ण हर किसी के ठाकुर बन गए। क्या एक से अनेक होने जाने की बह्म इच्छा भी ऐसे ही मौकों पर किसी संवदेनशील इंसान के दिल

सपनों के राजकुमार की बाट जोहते 30-30, 35-35 साल की हो गई लड़कियों की तादाद आजकल अपने घरों में बढ़ती जा रही है। पढ़ने-लिखने के बाद समझदारी बढ़ गई है, जीवनसाथी को लेकर अपेक्षाएं बढ़ गई हैं तो कोई रास ही नहीं आता। गांवों में हो सकता है कि अब भी 18 से 20 साल में लड़कियों की शादी कर दी जा रही हो, लेकिन कस्बों और शहरों के ज्यादातर पढ़े-लिखे परिवारों में कोई न कोई सलोनी अपने राजकुमार की तलाश कर रही है।
शायद यही बेचैनी है कि वर के अविवाहित होने की शर्त भी बदल रही है और लड़कियां विवाहित पुरुषों के साथ भी जाने को तैयार हो जा रही हैं। हमारा समय बड़ा कठिन है। संक्रमण का ये दौर अनकही, अन-पहचानी पीड़ाओं का दौर है। इसलिए किसी की पीड़ा को, मांग को, अपेक्षा को, गुस्से से बिफर कर नहीं, प्यार से, सहानुभूति से समझना होगा, परखना होगा। कांच के टूटने की आवाज़ आती है। लेकिन दिल भीतर ही भीतर सुबक-सुबक कर बिखरता है, कोई आवाज़ नहीं करता।
4 comments:
शिवकुमार बटालवी के एक बहुचर्चित गीत का एक बंद है-
तुसी केड़ी रुते आए
मेरे रा..म जी ओ
जदों बागे फुल कुम्हलाए
मेरे रा..म जी ओ
सर अंग्रेजी के दो शब्द हैं ... सिंपेथी और ऐपेथी ... आपका लेख दूसरे की श्रेणी में है ... पीड़ा को उकेरने के साथ साथ आसपास के लिए उसका संभावित समाधान भी वाकई आपकी संवेदनशीलता को दर्शाता है ... आपके ब्लॉग पर पहला पोस्ट जानबूझकर तारीफ के लिए नहीं कर रहा हूं ... बल्कि वाकई आपका ये लेख संग्रहनीय है।
आपने लड़कियों की बात लिखी, पर पुरुषों की भी ऐसी स्थिति दिखती है... पर आपने मुद्दा बहुत गम्भीर उठाया है..जो अन्दर तक असर करता है..
एक विचारणीय मुद्दा.
बहुत सही कहा:
दिल भीतर ही भीतर सुबक-सुबक कर बिखरता है, कोई आवाज़ नहीं करता।
बड़ा कठीन समय चल रहा है.
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