जिज्ञासा चकरघिन्नी बना देती है इंसान को

वह भद्र और शिष्ट नहीं हो सकता। भद्रता और शिष्टता के लिए अपनी ही निजता से प्रसन्नता चाहिए, परिस्थिति से अच्छा-खासा सामंजस्य चाहिए। लेकिन जिज्ञासावाला आदमी उस जंगली बच्चे के समान होता है जिसे वस्तु या निज से इतनी अधिक प्रसन्नता अच्छी नहीं लगती। वह आदमी घड़ी के पुर्जे तोड़ना चाहेगा और उन्हें फिर जोड़ना और लगाना चाहेगा। उसकी एक विध्वंसक प्रवृत्ति होती है। उसकी निर्मायक वृत्ति होती है; किंतु निर्मिति दिखे या न दिखे, लोगों को उसकी विध्वसंक प्रवृत्ति पहले दिख जाती है।
जिज्ञासावाला व्यक्ति एक बर्बर और असभ्य मनुष्य होता है। वह आदिम असभ्य मानव की भांति हर एक जड़ी और वनस्पति को चखकर देखना चाहता है। जहरीली वस्तु चखने का खतरा मोल ले लेता है। इस प्रकार वह वनस्पति में खाद्य और अखाद्य का भेद कर उनका वैज्ञानिक विभाजन करता है। और, इसी के पीछे पड़ा रहता है। वह अपना ही दुश्मन होता है। वह अजीब, विचित्र, गंभीर और हास्यास्पद परिस्थिति में फंस जाता है।
इसके बावजूद लोग उसे चाहते हैं। उसकी असफलताएं भयंकर होती हैं। वे प्राणघातक हो सकती हैं। उसका विरोध, प्रतिरोध और बोध अजीब होता है। ऐसे आदमी बहुत थोड़े होते हैं।
नोट - ये मेरी नहीं, किसी बड़े लेखक की लाइनें हैं। जिस तरह लोकगीत के रचनाकार का नाम जानने की ज़रूरत नहीं होती, उसी तरह मैंने भी लेखक का नाम बताने की ज़रूरत नहीं समझी। वैसे हो सकता है आपको लेखक का नाम पता हो। नहीं तो एक जिज्ञासा तो बनी ही रहेगी।
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