
बांह पसारे बोला था आकाश –
काश, तुम मेरे उर में सिमटी होतीं
सिमट सकी होतीं जीवन में!!
उत्तर दिया धरित्री ने –
आलिंगन में बंध, निरुद्ध होकर
विचरण कैसे कर पाती मैं
आकर्षणमय भव्य तुम्हारे चंद्र-सूर्य-नक्षत्र समन्वित
नील गगन में विचरण कैसे कर पाती मैं?
जवाब सुन धक हुई व्योम की छाती
नूतन अभिप्राय ने मानो कैंची से काटी थी बाती
भभक रहे कंदील दीप की।
कविता तब मोतिया सीप थी
धरती के उस एक अश्रु के लिए
कि जो नभ की कमज़ोरी देख गला था।
लेकिन नभ तो आसमान था
स्वयं उतर वह झरनों, नदियों, झीलों के नीले प्रवाह के रूपों में
धरती के उर पर पिघल चला था।
2 comments:
बहुत मौके से मुक्तिबोध की एकदम सटीक कविता याद आई आपको यह भी एक साधुवाद का विषय है, वरना सबके साथ ऐसा कहाँ होता है. बधाई.
सुन्दर अन्वेषण। कविता इसी लिये गागर में सागर भर देती है और मुक्तिबोध की तो बात ही कुछ और है।
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