
हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
जिस तरह हमारी मांसपेशियों में मछलियां हैं
जिस तरह बैलों की पीठों पर उभरे चाबुकों के निशान हैं
जिस तरह कर्ज के कागज़ों में हमारा सहमा और सिकुड़ा भविष्य है
हम ज़िंदगी, बराबरी या कुछ भी और
इसी तरह सचमुच का चाहते हैं
जिस तरह सूरज, हवा और बादल घरों और खेतों में हमारे अंग-संग रहते हैं
हम उसी तरह हुकूमतों, विश्वासों और खुशियों को अपने साथ-साथ देखना चाहते हैं
...हम सब कुछ सचमुच का देखना चाहते हैं
हम उस तरह का कुछ भी नहीं चाहते
जैसे शराब के मुकदमे में किसी टाऊट की गवाही होती है
जैसे पटवारी का ‘ईमान’ होता है या जैसे किसी आढ़ती की कसम होती है
हम चाहते हैं अपनी हथेली पर कोई इस तरह का सच
जैसे गुड़ की पत्त में ‘कण’ होता है
जैसे हुक्के में ‘निकोटीन’ होती है
जैसे मिलन के समय महबूब के होठों पर मलाई जैसी कोई चीज़ होती है
हम नहीं चाहते पुलिस की लाठियों पर टंगी किताबों को पढ़ना
हम नहीं चाहते फौजी बूटों की टाप पर हुनर का गीत गाना
हम तो वृक्षों पर खनकते संगीत को
अरमान भरे पोरों से छूकर देखना चाहते हैं
आंसूगैस के धुएं में नमक चाटना
या अपनी ही जीभ पर अपने ही लहू का स्वाद चखना
किसी के लिए भी मनोरंजन नहीं हो सकता
लेकिन, हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
और हम सब कुछ सचमुच का देखना चाहते हैं
ज़िंदगी, समाजवाद या कुछ भी और...
4 comments:
"हम ज़िंदगी, बराबरी या कुछ भी और
इसी तरह सचमुच का चाहते हैं"
मैं आप का अनुमोदन करता हूं -- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
सब कुछ सचमुच का -- एकदम सच्चा -- देखने-दिखाने के लिए छद्म और आवरण छोड़ना पड़ता है . पर भाई लोग वह छोड़ना नहीं चाहते . वे चित्त भी अपनी और पट्ट भी अपनी के सिद्धांत पर चलते हुए दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं . तब पाश और उनकी कविता उनके किस काम की .
पाश की याद के लिए धन्यवाद.
बिल्कुल सही, भाई.
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