Wednesday 1 August, 2007

हम बोलते हैं, वो खेलते हैं

हम कितने भोले हैं और वो कितने शातिर हैं। इधर जब से 1993 के मुंबई बम धमाकों के दोषियों को सज़ा सुनाई गई है, तभी से मुझ जैसे तमाम उदार और न्यायप्रिय लोग हल्ला मचा रहे हैं कि बाबरी मस्जिद को ढहाने के बाद दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 में जो दंगे हुए थे, उनके दोषियों को सज़ा क्यों नहीं दी जा रही है, जबकि श्रीकृष्णा आयोग 1998 में ही अपनी पूरी रिपोर्ट सौंप चुका है। आखिर मुंबई के बम धमाके तो दंगों की प्रतिक्रिया में ही हुए थे। इस मुद्दे पर अखबारों में कॉलम लिखे जा रहे हैं, ब्लॉग पर पोस्ट चढ़ाए जा रहे हैं।
जो लोग ये सब लिख रहे हैं, उनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन मजे की बात ये है कि उनके इस हल्ले से कांग्रेस और शिवसेना दोनों ही पार्टियों के नेता मन ही मन मगन हुए जा रहे हैं। कितनी अजीब बात है कि अराजनीतिक लोगों के ईमानदार इज़हार का फायदा राजनीतिक पार्टियों को मिल रहा है। शिवसेना और कांग्रेस दोनों को लगता है कि 1992 के मुंबई दंगे और श्रीकृष्णा आयोग की रिपोर्ट पर अमल को लेकर जितना हो-हल्ला मचेगा, उनका अलग-अलग वोट बैंक उतना ही मजबूत होगा।
शिवसेना ने मराठी के नाम पर राष्ट्रपति पद के लिए जब से प्रतिभा पाटिल का समर्थन किया, तभी से बीजेपी दबी जुबान से आरोप लगा रही है कि महाराष्ट्र की कांग्रेस-एनसीपी सरकार और शिवसेना में एक डील हुई है, जिसके तहत कांग्रेस ने शिवसेना से निकले नारायण राणे को किसी भी सूरत में मुख्यमंत्री न बनाने का वादा किया है।
इस मुद्दे पर शिवसेना-बीजेपी के रिश्तों में दरार पड़ चुकी है। अगर दोनों पार्टियां अलग हुईं तो इससे हिंदू वोट बंटेगा और शिवसेना की व्यापक हिंदुवादी पार्टी की छवि को चोट पहुंचेगी। लेकिन दंगों और श्रीकृष्णा आयोग के हल्ले से शिवसेना को आम लोगों के जेहन में अपनी कट्टर हिंदुवादी छवि को पुनर्जीवित करने का मौका मिल जाएगा। वजह ये है कि श्रीकृष्णा आयोग ने जिन राजनीतिक हस्तियों को दंगे भड़काने का दोषी पाया था, उनमें शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे, पूर्व सांसद मधुकर सरपोतदार और महाराष्ट्र के पूर्व गृह राज्यमंत्री गजानन कीर्तिकर का नाम शामिल है। पुरानी यादों के ताज़ा होने पर ये लोग साबित करने लगेंगे कि वो हिंदू हितों के कितने बड़े पक्षधर हैं।
दूसरी तरह कांग्रेस को भी ये दिखाने का मौका मिल जाएगा कि शिवसेना से उसकी कोई मिलीभगत नहीं है और वो मुस्लिम हितों की सबसे बड़ी रक्षक है। माहौल को भांपकर महाराष्ट्र के कांग्रेसी मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने राज्य के पुलिस महानिदेशक पी एस पसरीचा और मुंबई के पुलिस कमिश्नर धनंजय जाधव को ‘निर्देश’ दिया है कि वो एक उच्चस्तरीय समिति बनाएं जो यह पता लगाए कि श्रीकृष्णा आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के लिए जो दस सदस्यीय कार्यदल बनाया गया था, उसके काम में कहां खामियां रह गई हैं। कार्यदल के काम पर समिति। आप खुद ही समझ सकते हैं कि इसका क्या नतीज़ा निकलने वाला है। शिवसेना भी इस हकीकत को समझती है। इसीलिए वह इसे बेहद रूटीन निर्देश मान रही है। विलासराव देशमुख की मंशा बस इतनी है कि वो यह दिखाएं कि मुस्लिमों का कत्लेआम करने वालों पर कार्यवाही (कार्रवाई नहीं) की जा रही है।
मतलब साफ है। हम राजनीति करें या न करें, राजनीति हमें इस्तेमाल कर ही लेती है। इसलिए किसी और के द्वारा इस्तेमाल होने से अच्छा यही है कि हम अराजनीतिक और निरपेक्ष होने के भ्रम में बाहर निकल आएं और अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता साफ कर लें। सही होने के साथ-साथ हम ये भी सोचें कि हम पॉलिटिकली कितने करेक्ट हैं, राजनीतिक रूप से कितने सही हैं।

4 comments:

azdak said...

आपकी बातें सही हैं, सर.. संजय दत्‍त की सज़ा के ग़म में तो यहां इसकी भी बहुत चर्चा नहीं हो रही कि लगभग उसी तरह के जुर्म के 'अपराधियों' को उम्र कैद मिली, तो ये छै साल पर कैसे छूट रहे हैं! रही बात शिवसेना के आला नेताओं की तो यह कांग्रेस की ही सरकार थी जिसने खुद को मुसलमानों का रहनुमा दिखाते हुए उनके खिलाफ पुलिस केस दायर किये थे, अब चुपाये बैठी है, अंदर-अंदर अब उसका महज राजनीतिक इस्‍तेमाल करेगी.. सवाल ये है ऐसे मसलों पर नागरिक पहलकदमियां क्‍या हों?

अनिल रघुराज said...

सर-वर की बात नहीं है। मैं सिविल सोसायटी की बेचैनी, पहलकदमियो और आंदोलनों से इनकार नहीं करता, न ही उनके महत्व को कम करके आंकता हूं। मैं तो बस इतना कहना चाहता था कि महज एनजीओ से काम नहीं चल सकता और सही बात की स्थापना का ज़रिया एकमात्र राजनीति है। बस...

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

अनिल भाई ! बहुत परेशां होने की जरूरत नहीं है. शिवसेना, कॉंग्रेस या भाजपा या कम्युनिस्ट या कोई भी पार्टी अभी जिस पब्लिक को सिर्फ वोट बैंक के रुप में देख रही है और कैश करने में लगी हैं, यही पब्लिक एक दिन वोट की जगह जूता लेकर खडी होने वाली है. तब उन्हें भागने का रास्ता भी नहीं मिलेगा और वह दिन बहुत दूर भी नहीं है.

राजेश कुमार said...

डर क्यों ?
अनिल जी आपने इस विषय को उठाकर बडा हीं ठोस काम किया है। मुंबई में 1993 के बम धमाकों के आरोपियों को सजा देने काम पूरा हो गया लेकिन जो मुख्य आरोपी हैं टाईगर मेमन और दाउद इब्राहिम उसे तो हमारी पुलिस पकड़ तक नहीं पाई। कहा जाता है कि ये लोग देश से बाहर पाकिस्तान के संरक्षण में है। एक हद तक पुलिस की बात सही भी है लेकिन उनका क्या हुआ जो लोग 1993 बम धमाके से पहले मुंबई के सड़को पर सरेआम हत्यायें कर रहे थे या करवा रहे थे। वे लोग तो देश से बाहर नहीं हैं। सरकार को कृष्णा आयोग की रिपोर्ट जारी करनी चाहिये चाहे किसी राजनीतिक दल को लाभ हो या नहीं। सवाल लाभ और हानी का नहीं है सवाल है न्याय का। न्याय का सवाल नहीं होता तो संजय दत्त को सजा नही होती क्योंकि वह शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे और अन्य लोगों के अपेक्षा अधिक लोकप्रिय है। राजेश कुमार