खबर पर कुछ फुटकर विचार

लिखने के दौरान एसपी की बात महज क्षेपक की तरह आई थी। इस पर दिलीप मंडल की राय एकदम ठीक है कि, ‘एसपी ने कंटेंट से लेकर न्यूजरूम तक में बहुलवाद लाने के लिए कोशिश की। पुरानी जड़ता को तोड़ने की एक दमदार कोशिश थी, उनका समय। लेकिन वो एक खास स्थिति थी, जिसमें इस दिशा में कुछ कदम बढ़ाए जा सके। ना इतने से कम ना इतने से ज्यादा।’
लेख की पहली ही कड़ी पर संजय तिवारी जी ने सवाल उठाया था कि खबर क्या है? वह जिसे टीवी दिखाता है या फिर वह जिसे टीवी नहीं दिखाता है। सचमुच ये बड़ा सवाल है। जुबां पे सच - दिल में इंडिया, खबर वही जो सच दिखाए, आपको रखे आगे, हकीकत जैसी खबर वैसी...जैसे स्लोगन महज स्लोगन भर हैं। जिस चैनल के लिए जो सुविधाजनक होता है, वह वैसी ही खबरें दिखाता है।
मुझे याद है कि लालू का ‘धांसू’ इंटरव्यू करने के बाद लौटे दिबांग ने कहा था, ‘हमारे चैनल पर लालू के खिलाफ कोई खबर नहीं चलेगी।’ कोई नई फिल्म रिलीज होती है तो उसके हीरो-हीरोइन स्टूडियो में आकर जम जाते हैं। काजोल या आमिर का जन्मदिन हो, या बिग बी के परिवार की कोई बात...टीवी चैनल इस अंदाज में दिखाते हैं जैसे यही लोग आज के राष्ट्रनायक हैं। अभिषेक और ऐश्वर्या की शादी के स्लॉट तीन हफ्ते पहले ही बिक जाते हैं, विज्ञापनदाता तय हो जाते हैं, विज्ञापन की दरें तय हो जाती हैं। आखिर न्यूज चैनल है कोई खैरात-खाना तो है नहीं। खबर वही है जिससे शॉर्ट टर्म और लांग टर्म में कमाई हो सके। इसलिए असली नारा यही है कि खबर वही जो कमाई कराए।
तेजी से बदलते इस दौर में हमारी ज़िंदगी पर असर डालनेवाली हर नई सूचना खबर है। फिर चाहे वो कोई नई सरकारी पॉलिसी हो या बाज़ार में आया नया प्रोडक्ट। अगर खबर आती है कि अब बिजली के तारों पर आपके घर इंटरनेट पहुंच जाएगा तो ये यकीनन बड़ी खबर है। लेकिन गंभीर खबर के नाम पर हमें गोवा विधानसभा में कांग्रेस का शक्ति-पीरक्षण दिखाया जाता है, जबकि उसी समय नोएडा में इंजीनियरिंग का एक छात्र अध्यापकों के परेशान करने के बाद खुदकुशी कर चुका होता है। मेरा मानना है कि इंजीनियरिंग के छात्र की खुदकुशी की पड़ताल करना एक बेहद सकारात्मक विकास है। ये बहुत अच्छी बात है कि टीवी की खबरों का दायरा आज राजधानियों से निकलकर छोटे शहरों-कस्बों और घरों तक पहुंच चुका है।
आज मटुकनाथ के प्रेम से लेकर बहुओं द्वारा व्यभिचारी ससुर की पिटाई जैसी खबरें हमारे जीवन में लोकतांत्रिक मू्ल्यों पर बहस को जन्म देने का बहाना बन रही हैं। प्रिंस का गड्ढे से निकाला जाना टीवी के लाइव कवरेज की वजह से पूरे देश को एकजुट कर देता है, इंदौर में आईआईएम के डूबे हुए छात्रों की कहानी प्रशासन को जवाबदेह बनाने का ज़रिया बन जाती है। बदलाव का रास्ता किसी के दिमाग के संकरी नसों से नहीं निकलता। सच्चाई की ऊबड़-खाबड़ गलियों से ही बदलाव की राह निकलती है।
Comments
--बिल्कुल सही कहा आपने.