Wednesday 22 August, 2007

...आपत्तियां हैं मगर दमदार

मैंने तो यूं ही वह बात लिख दी थी जो मैंने हाल ही में प्रमोद और उससे दो-तीन महीने पहले बोधिसत्व से कही थी। पहले भी कई सालों से ये बात मैं दोस्तों के बीच कहता रहा था। लेकिन मुझे वाकई नहीं पता था कि इसे पोस्ट पर चढ़ाकर मैं आग में हाथ डाल रहा हूं। चलिए, आग में हाथ डाल दिया तो मरहम भी खुद ही लगाएंगे। मेरी सफाई बाद में, पहले वो आपत्तियां जो कमेंट में पड़े-पड़े छुपी-सी रहती हैं। इसलिए उन्हें खुलकर पढ़िए और गुनिए।

प्रियंकर ने कहा है :
आपकी बात में तथ्य है पर पूरा सच नहीं है। बाज़ार के सर्वग्रासी विस्तार के इस धूसर समय में हो सकता कुछ कविताएं पर्म्यूटेशन-कॉम्बीनेशन की तकनीक से बन रही हों, पर कविता फ़कत पर्म्यूटेशन-कॉम्बीनेशन और शब्दों-भावनाओं को फेंटने-लपेटने का मामला नहीं है। न ही यह कोई दिव्य-अलौकिक किस्म का आसमानी ज्वार है। प्रथमतः और अन्ततः यह अपने समय और समाज के प्रति सच्चे होने का मामला है। यह संवेदनाओं और अनुभूतियों का मामला है और विचार का भी। यह ऐसा स्वप्न है जो तर्क की उपस्थिति में देखा जाता है। हां! यह उपलब्ध भाषिक-सांस्कृतिक उपकरणों के 'आर्टीकुलेशन' के साथ इस्तेमाल का भी मामला है। दिल्ली से दमिश्क और पूर्णिया से पेरिस तक मनुष्य की अनुभूतियां, भावनाएं और संवेग एक जैसे हैं।
व्यक्तिगत सुख-दुख, आशा-निराशा, हर्ष-विषाद तो होते ही हैं, जगत-गति भी सबको व्यापती है। आपने तो फ़िर भी संख्या सौ-पचास गिना दी। हो सकता है संख्या और भी कम हो। पर इसका कोई 'मैथमैटिकल फ़ार्मूला' कभी बन सकेगा मुझे शक है। इसलिए कविता के प्रति 'सिनिकल ऐटीट्यूड' एक तरह से जीवन से असंतोष का ही एक रूप है, बीमार असंतोष का। यह मिल्टन के 'पैराडाइज़ लॉस्ट' के सैटर्न की तरह ईश्वर/आलोचक/सत्ता-प्रतिष्ठान के प्रिय कुछ कवियों की धूर्तता और चालाकी के बरक्स एक प्रकार की 'इंजर्ड मैरिट' का इज़हार भी हो सकता है। पर इस नाते इस समूची विधा पर कोई फ़तवा ज़ारी कर देना एक अहमकाना कदम होगा।
कुछ लोग इतने 'सिनिकल' हो जाते हैं कि उनके लिए जीवन में पवित्र-निर्दोष-निष्पाप या ईमानदारी-देशप्रेम जैसे शब्दों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। यह 'सिनिसिज़्म' के सम्प्रदाय में निर्वाण जैसी ही कोई स्थिति होती होगी। पर तब वे कविता के लोकतंत्र के सहृदय सामाजिक होने की योग्यता खो देते हैं। सिनिसिज़्म की कविता से एक दूरी है। अक्सर वह व्यंग्यकारों का औज़ार होता है। शायद यही कारण है कि बहुत कम व्यंग्यकार कविता को ठीक ढंग से सराह पाते हैं, बल्कि ज्यादा 'सिनिसिज़्म' होने पर वे व्यंग्यकार भी निचले दर्ज़े के होते जाते हैं। उनकी अनास्था और उनका द्वेष इस हद तक बढ जाता है कि उन्हें आस्था और भरोसे का कहीं कोई बिंदु दिखाई ही नहीं देता। बस यहीं आकर व्यंग्य सृजनात्मक साहित्य के संसार से अपनी नागरिकता खो देता है। हां! आपकी इस बात से पूरी सहमति है कि कवि वही हो सकता है जिसने जोखिम उठाया हो या जो जोखिम उठाने को तैयार हो। कवि को आलोचक के बाड़े की बकरी नहीं होना चाहिए।

राकेश खंडेलवाल ने कहा है :
कविता को कोई लिबास पहनाने से पहले उसे समझना और जानना जरूरी है। आप जिन सबसे प्रभावित हैं - विनोदजी, धूमिल या मुक्तिबोध या विजेन्द्र, क्या आपने उन्हें और उनकी कविता को समझा है? यदि हाँ तो कपया हमारा भी मार्गदर्शन करें।

अनुनाद सिंह ने कहा है :
"चार-पांच सौ शब्द हैं। ज्यादा से ज्यादा सौ-पचास कोमल अनुभूतियां या भावनाएं हैं।"मुझे तो लगता है कि इन आंकड़ों से जो परम्युटेशन बनेगा, वह भारी-भरकम संख्या होगी। यदि कविता के विरोध का यही आधार है तो ये आधार तो बहुत कमजोर लगता है।

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