कविता हमारे समय का सबसे बड़ा फ्रॉड है?

कल संजय तिवारी ने विस्फोटक सवाल उठाया कि क्या भाषा पर साहित्य बोझ है, खासकर हिन्दी में? आज अज़दक ने श्रीलाल शुक्ल की टिप्पणी के ज़रिए हिंदी पाठकों के ज्ञान की कलई उतार दी। तो, मैंने सोचा कि क्यों न बरसों से दबी हुई धारणा को उजागर कर दूं। मुझे पता है कि विद्वान साहित्यकारों को इससे मर्मांतक पीड़ा पहुंचे या न पहुंचे, वो मेरे अज्ञान पर ठठा कर ज़रूर हंसेंगे।
लेकिन यह एक आम हिंदुस्तानी की सोच है, इसलिए इस पर गौर करना ज़रूरी है। मेरी राय में कविता हमारे समय का सबसे बड़ा फ्रॉड है। चार-पांच सौ शब्द हैं। ज्यादा से ज्यादा सौ-पचास कोमल अनुभूतियां या भावनाएं हैं। उन्हीं को फेंटते रहिए। जितने परमुटेशन-कॉम्बिनेशन बन सकते हैं, उतनी कविताएं तैयार हो जाएंगी। आखिरी वाक्य मेरा नहीं, बल्कि नक्सल आंदोलन के बड़े नाम विनोद मिश्रा का है। मैं अस्सी के दशक में कही गई उनकी इस बात से आज भी सहमत हूं। मुझे लगता है कि असल में जो जिंदगी में रिस्क नहीं ले सकता, वह कविता नहीं लिख सकता।
धूमिल के शब्दों में कांख भी ढंकी रही और मुट्ठी भी तनी रहे, ऐसा संभव नहीं है। आज के दौर में जिन्होंने ये जोखिम उठाया है, उन्हीं की कविता कविता है, बाकी सब फ्रॉड है। जब जिंदगी ही सुविधाभोगी अवसरवाद पर टिकी हो तो ताज़ा अनुभूतियों का टोंटा होना लाजिमी है। फिर तो परमुटेशन-कॉम्बिनेशन ही चलता है। हां, ये जरूर है कि जब तक बड़े-बड़े नामवरों का वरदहस्त रहेगा, तब तक कविता में फ्रॉड का कोई अंत नहीं है।

Comments

Unknown said…
सही कह रहे हैं...

इसी असमंजस की वजह से मैं जो लिखती हूँ उन्हे कठपुतलियाँ ही कहती हूँ।

वैसे आपकी बात से भी कुछ पहले का लिखा ही याद आया

भ्रम

एक शंख …
लहरों की आवाज़…
थोड़ा नमक….
थोड़ा पानी…..

यूँ ही इतरा रही…
यह सोच…
अंजली में समन्दर है….!
दिवानी !!
Avinash Das said…
आपने कहा सही है और ये सहमति-असहमति से ऊपर के मुद्दे हैं। लेकिन इस फ्रॉड की थोड़ी सामाजिक-सांस्‍कृतिक व्‍याख्‍या होनी चाहिए। आप इसे करें- हम भी कूदेंगे- अपनी थोड़ी समझ से ही सही।
azdak said…
चार लाइना बोलके, कूदके निकल मत लीजिए.. व्‍याख्‍या कीजिए, व्‍याख्‍या.. विनोद मिश्रा की ही सुन लिए थे कि अपनी भी सोचे थे? कितना सोचे थे बताइए!
DesignFlute said…
आप थोड़े में बहुत कुछ कह गए!
Udan Tashtari said…
अनिल भाई

जरा और विस्तार दें न आप अपनी बात को. इत्ते से में तो अभी क्या कहें. :) कहीं पोस्ट से बड़ी टिप्पणी ही न ठहर जाये!!
जनता की बेहद मांग पर इसकी व्याख्या करिये।
काफ़ी हद तक सहमत हूं।
इसीलिए अपनी पद्यात्मक रचना को कविता जैसा कुछ कहना पसंद करता हूं, कविता नही!!
Sanjay Tiwari said…
"मेरी राय में कविता हमारे समय का सबसे बड़ा फ्रॉड है। चार-पांच सौ शब्द हैं। ज्यादा से ज्यादा सौ-पचास कोमल अनुभूतियां या भावनाएं हैं। उन्हीं को फेंटते रहिए।"
यह गुस्सा है या व्यंग्य? शब्द और अनुभूतियों दोनों का हिसाब-किताब धर दिया.
अभिनव said…
मैं आपसे असहमत हूँ। कविता फ्राड नहीं है।
बन्धु

कविता को कोई लिबास पहनाने से पहले उसे समझना और जानना जरूरी है> आप जिन सबसे प्रभावित हैं- विनोदजी, धूलिम या मुक्तिबोध या विजेन्द्र. क्या आपने उन्हें और उनकी कविता को समझा है. यदि हाँ तो कपया हमारा भी मार्गदर्शन करें
सीधी सीधी बात..लोग मानने को तैयार नहीं.. तो कीजिये व्याख्या.. और सब खोल खोल कर बताइये.. लिखिये दो चार और पोस्ट..
"चार-पांच सौ शब्द हैं। ज्यादा से ज्यादा सौ-पचास कोमल अनुभूतियां या भावनाएं हैं।"


मुझे तो लगता है कि इन आंकड़ों से जो परम्युटेशन बनेगा वह भारी-भरकम संख्या होगी। यदि कविता के विरोध का यही आधार है तो ये आधार तो बहुत कमजोर लगता है।
कितना अच्छा है कि कभी-कभी यह फ्रॉड मैं भी कर लेता हूं!
Priyankar said…
आपकी बात में तथ्य है पर पूरा सच नहीं है .

बाज़ार के सर्वग्रासी विस्तार के इस धूसर समय में हो सकता कुछ कविताएं पर्म्यूटेशन-कॉम्बीनेशन की तकनीक से बन रही हों . पर कविता फ़कत पर्म्यूटेशन-कॉम्बीनेशन और शब्दों-भावनाओं को फेंटने-लपेटने का मामला नहीं है . न ही यह कोई दिव्य-अलौकिक किस्म का आसमानी ज्वार है . प्रथमतः और अन्ततः यह अपने समय और समाज के प्रति सच्चे होने का मामला है . यह संवेदनाओं और अनुभूतियों का मामला है और विचार का भी. यह ऐसा स्वप्न है जो तर्क की उपस्थिति में देखा जाता है . हां! यह उपलब्ध भाषिक-सांस्कृतिक उपकरणों के 'आर्टीकुलेशन' के साथ इस्तेमाल का भी मामला है .

दिल्ली से दमिश्क और पूर्णिया से पैरिस तक मनुष्य की अनुभूतियां,भावनाएं और संवेग एक जैसे हैं . व्यक्तिगत सुख-दुख,आशा-निराशा,हर्ष-विषाद तो होते ही हैं,जगत गति भी सबको व्यापती . आपने तो फ़िर भी संख्या सौ-पचास गिना दी,हो सकता है संख्या और भी कम हो . पर इसका कोई 'मैथमैटिकल फ़ार्मूला' कभी बन सकेगा मुझे शक है .

इसलिए कविता के प्रति 'सिनिकल ऐटीट्यूड' एक तरह से जीवन से असंतोष का ही एक रूप है -- बीमार असंतोष का . यह मिल्टन के 'पैराडाइज़ लॉस्ट' के सैटर्न की तरह ईश्वर/आलोचक/सत्ता-प्रतिष्ठान के प्रिय कुछ कवियों की धूर्तता और चालाकी के बरक्स एक प्रकार की 'इंजर्ड मैरिट' का इज़हार भी हो सकता है . पर इस नाते इस समूची विधा पर कोई फ़तवा ज़ारी कर देना एक अहमकाना कदम होगा . कुछ लोग इतने 'सिनिकल' हो जाते हैं कि उनके लिए जीवन में पवित्र-निर्दोष-निष्पाप या ईमानदारी-देशप्रेम जैसे शब्दों का कोई अर्थ नहीं रह जाता . यह 'सिनिसिज़्म' के सम्प्रदाय में निर्वाण जैसी ही कोई स्थिति होती होगी . पर तब वे कविता के लोकतंत्र के सहृदय सामाजिक होने की योग्यता खो देते हैं .

सिनिसिज़्म की कविता से एक दूरी है . अक्सर वह व्यंग्यकारों का औज़ार होता है . शायद यही कारण है कि बहुत कम व्यंग्यकार कविता को ठीक ढंग से सराह पाते हैं . बल्कि ज्यादा 'सिनिसिज़्म' होने पर वे व्यंग्यकार भी निचले दर्ज़े के होते जाते हैं . उनकी अनास्था और उनका द्वेष इस हद तक बढ जाता है कि उन्हें आस्था और भरोसे का कहीं कोई बिंदु दिखाई ही नहीं देता . बस यहीं आकर व्यंग्य सृजनात्मक साहित्य के संसार से अपनी नागरिकता खो देता है .

हां! आपकी इस बात से पूरी सहमति है कि कवि वही हो सकता है जिसने जोखिम उठाया हो या जो जोखिम उठाने को तैयार हो . कवि को आलोचक के बाड़े की बकरी नहीं होना चाहिए .

इस पर और बात होनी चाहिए .

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