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एक दिन नींद में चलते-चलते मैं जा पहुंचा एक नई बस्ती में। समुंदर की तलहटी में बसी हुई थी वो बस्ती। मजे की बात ये है कि वहां के लोगों ने घरों के दरवाजे अंदर से बंद कर रखे थे और वहीं से चिल्ला-चिल्ला के कह रहे थे – आओ मेरे घर में आओ, कुछ लेकर जाओ, आ जाओ स्वागत है आप सभी का। ज्यादातर लोगों की तो शक्ल ही नहीं दिख रही थी क्योंकि वो ठीक बंद दरवाजों के पीछे खड़े थे। एकाध ही थे जिन्होंने अपनी खिड़कियां आधी-अधूरी खोल रखी थीं। लेकिन उनकी खिड़कियों पर भी बड़ी सख्त ग्रिल और घनी जाली लगी हुई थी। उन्हें भी साफ-साफ दे
खकर पहचान पाना बेहद मुश्किल था।
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इस बस्ती का शोर सुनकर मुझे दिल्ली में जनपथ का बाज़ार याद आ गया, जहां दुकान में खड़े दो-तीन बेचनेवाले मेढ़कों की तरह समवेत स्वर में कहते रहते हैं : भाईसाहब पैंसठ, ले जाओ पैंसठ, भाईसाहब पैंसठ। घूम-फिर कर मैं बस्ती से बाहर निकला तो चुटियाधारी अंधे चौकीदार से पूछा कि ये अजीब-सी बस्ती किन लोगों की है। उसने बताया कि ये हिंदी के ब्लॉगर्स की बस्ती है। मैं चहक उठा। वापस लौट पड़ा उसी बस्ती के भीतर। फिर
मैंने भी जुगाड़ करके वहीं एक कमरे की खोली किराये पर ले ली।
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छह महीने के बाद मैंने पाया कि यहां तो अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग ही चलता है। जिसको जो मिलता है, लिखे जा रहा है। गुजरे वक्त के संस्मरण, ज्ञान के अज्ञानी पुराण। लगता है सभी एक लाइन में खडे होकर पापड़ बेचनेवाले की तरह बैंडमिंटन के रैकेट की शक्ल वाली डुगडुगी बजा रहे हैं। चिल्ला-चिल्ला कर अपनी राम-कहानी सुना रहे हैं। दर्शन बघार रहे हैं। कविताएं सुना रहे हैं। राजनीति से लेकर न्याय व्यवस्था और अर्थव्यवस्था पर लिखे जा रहे हैं। मैंने भी अपनी डफली उठा ली। अपना राग अलापना शुरू कर दिया। वही राम-कहानी। जैसे औरों की, वैसी ही अपनी। प्याज़ की परतें खुलने लगीं।
Comments
--मानव मन भी कैसी अजब अजब हरकत करता है. आज मन आया कि अंश अंश में पढ़ूँ, कभी बीच से तो कभी निष्कर्ष से आरंभ की ओर पढूँ-लगा आप किसी किताब की दुकान या लाईब्रेरी में पहुँच गये हैं, वहाँ भी तो यही सब होता है.
फिर देखता हूँ यह सब आपको भी प्रेरित कर गया और आपने भी एक खोली ले ली. इसी बस्ती की तलाश में इतना गहरे समुन्द्र में उतरे थे क्या आप?
अब यह पता नहीं लग पाया कि आपने भी दरवाजा बंद कर लिया और खिड़की अधखुली रखी या नहीं?
उसी बस्ती में आसपास नज़र दौड़ाईये न!! जब समुन्द्र की तलहटी है तो कुछ रत्न और नगीनें भी जरुर होंगे, बिल्कुल खुले, बिना उस चुटियादारी अंधे पहरेदार के पहरे के, चमकदार, अपनी ओर आकर्षित करते. कोरेल, स्वचछंद विचरते सुन्दर जीव और न जाने क्या क्या होगा.
तस्वीर तो अच्छी आई है!! :)
क्या किजियेगा बस्तियाँ तो होती ही ऐसी हैं.
ओह, शुरुवात ही में तो है कि आप एक दिन नींद में चलते-चलते ...तब तो बात ही अलग हो गई. अब उठ गये हों तो गुड मार्निंग सर जी!!
मौज में लिख लिया है, कुछ कुछ आबजर्व करते. कृप्या अन्यथा न लें. :)
आपकी खोली में पतनशीलता घुसेगी या नहीं? बहुत निराश हो रहा हूं..
समीरजी की टिप्पणी भी जोरदार है।