आसपास ही है मीडिया की गलाजत का निदान
मीडिया के लोग परेशान हैं। पत्रकार पत्रकारिता के पतन से परेशान हैं। चैनल गिरती-उठती टीआरपी से परेशान हैं। चैनल इस बात से भी परेशान है कि जमेजमाए चेहरे उन्हें छोड़कर कहीं दूसरे चैनल में जाने की फिराक में हैं। सालाना एप्रेजल के मौसम में डेस्क वालों से लेकर रिपोर्टरों तक को इंक्रीमेंट दिए जा रहे हैं। फिर भी जिसको भी मौका मिल रहा है, वह दूसरे चैनल में जाने से नहीं चूक रहा। पत्रकार पैसे, प्रमोशन और प्रतिष्ठा की मृग-मरीचिका में हांफ रहे हैं। बहस भी कर रहे हैं कि यह मीडिया का स्वर्ण काल है, प्रश्न काल है या संक्रमण काल। कुछ लोगों ने काजल की इस कोठरी से निकल भागने के किस्से भी सुनाए। माथा पीटा गया कि टेलिविजन न्यूज में सांप-छछूंदर, भूत-प्रेत, ओझा, औघड़, तांत्रिक, तीन देवियां, बोले तारे, सेक्स और सनसनी क्यों बेची जा रही है? सवाल उठाए गए। छाती पीटकर रुदन किया गया। हाय, ऐसा पतन!!!
बहस का प्रवर्तन मोहल्ला पर दिलीप मंडल ने किया और लगता है समापन भी उन्हीं के ज़िम्मे है। वैसे, दिलीप की ईमानदारी की दाद देनी पड़ेगी जो उन्होंने स्वीकार किया : अगर कोई कहता है कि गंदे का धंधा हमलोग कर रहे हैं तो गंदा साफ करने भी हम ही निकलेंगे। लेकिन इससे पहले ज़रूरी है कि वो जो पेंच इस पूरे मामले की जड़ में है, उसकी पड़ताल हो। मेरे पास फिलहाल इसका कोई उत्तर नहीं है।
दिलीप बाबू, उत्तर होते नहीं, निकाले जाते हैं। ज़रा अपने आसपास गौर से देखिए। कहीं कस्तूरी नाभि में ही न बसी हुई हो! ऐसा क्यों है कि सभी न्यूज़ चैनलों में काम करनेवाले ज्यादातर पत्रकार अच्छे हैं, समझदार हैं, पत्रकारिता में कुछ कर गुजरने की तमन्ना लेकर आए हैं। लेकिन उनका सामूहिक प्रोडक्ट भुतहा हो जाता है। क्या आज एसपी होते तो ऐसा नहीं होता? प्रणव रॉय और विनोद दुआ तो हैं न! फिर कल के रजत शर्मा आज सेक्स, रोमांच और अंधविश्वास फैलानेवाले रजत शर्मा कैसे बन गए? क्या ये महज बाज़ार और टीआरपी का दबाव है? दिलीप जी ने सही सवाल उठाया है कि आखिर यही बाज़ार इंग्लिश न्यूज चैनलों को तो पिशाच कथाएं कहने को मजबूर नहीं करता? सवाल कठिन हैं, लेकिन जवाब मुश्किल नहीं हैं।
पहले देख लिया जाए कि दी हुई स्थितियां क्या हैं। एक, न्यूज़ आज एक कमोडिटी बन चुकी है और न्यूज़ चैनल उस सर्विस सेक्टर का हिस्सा हैं, जिसमें विज्ञापन, मार्केटिंग, बैंकिंग, बीमा, कंसलटेंसी और ऑर्गेनाइज्ड रिटेल जैसे तमाम उद्योग आते हैं। दो, प्रिंट में कोई रिपोर्टर-पत्रकार व्यक्तिगत हैसियत से कमाल दिखा सकता है। लेकिन सर्विस सेक्टर के किसी भी दूसरे उद्योग की तरह टेलिविजन न्यूज़ का प्रोडक्शन बिना टीम के नहीं हो सकता। तीन, हिंदी और दूसरी देशी भाषाओं से जुड़े समाज की तमाम लोकतांत्रिक ख्वाहिशें अधूरी पड़ी हैं, उनमें लोकतांत्रिक मूल्यों की गज़ब की चाहत है। चार, हिंदी का पत्रकार इस पेशे में सिर्फ पैसे के लिए नहीं आता है। वह इसलिए आता है क्योंकि उसे लगता है कि उसमें औरों से कुछ अलग है और कुछ करके दिखा सकता है। उसमें आत्मसम्मान की जबरदस्त भूख होती है।
ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट सर्विस सेक्टर के लिए बेहद अहम पहलू होता है। कंपनी के लिए हर प्रोफेशनल ऐसेट होता है। इसलिए उसको लेकर छीना-झपटी मचती है। कंपनियां उसे रोकने और छीनने के लिए क्या-क्या नहीं करतीं। दिक्कत ये है कि हमारे न्यूज़ चैनलों के मालिकानों ने जिन संपादकों को अपना धंधा चलाने का ज़िम्मा सौंप रखा है, वो इस हकीकत को समझने को तैयार नहीं हैं। न्यूज़ के धंधे के उद्योग बन जाने की हकीकत को मालिकान तो कब का पहचान चुके हैं, लेकिन संपादकीय स्तर पर इसे अब भी सामंती अंदाज में ही चलाया जा रहा है, कॉरपोरेट तरीके से नहीं।
रवीश कुमार भले ही कहें कि सामंती संपादकों का युग चला गया है। लेकिन मैंने तो यही देखा है कि हिंदी पत्रकारिता में अच्छे-भले लोग भी संपादक की कुर्सी पाते ही सामंत बन जाते हैं। उनकी अयोग्यता और इससे उपजी असुरक्षा को कवच तभी मिलता है जब वो चीखने-चिल्लाने लगते हैं, अपने लोग तैयार करते हैं, अपना गुट बनाते हैं और बाकियों को दुत्कारते हैं। ये संपादक-गण कुर्सी पाते ही उसका भरपूर ‘भोग’ शुरू कर देते हैं। खुद चीखने-चिल्लाने में दक्ष होते हैं तो खुद करते हैं, नहीं तो कोई ‘कुत्ता’ पाल लेते हैं जो लोगों को सूंघ-सूंघ कर पूछता है कि न्यूज़ का मतलब भी जानते हो।
मंडल बाबू सुन रहे हैं न! जारी...
बहस का प्रवर्तन मोहल्ला पर दिलीप मंडल ने किया और लगता है समापन भी उन्हीं के ज़िम्मे है। वैसे, दिलीप की ईमानदारी की दाद देनी पड़ेगी जो उन्होंने स्वीकार किया : अगर कोई कहता है कि गंदे का धंधा हमलोग कर रहे हैं तो गंदा साफ करने भी हम ही निकलेंगे। लेकिन इससे पहले ज़रूरी है कि वो जो पेंच इस पूरे मामले की जड़ में है, उसकी पड़ताल हो। मेरे पास फिलहाल इसका कोई उत्तर नहीं है।
दिलीप बाबू, उत्तर होते नहीं, निकाले जाते हैं। ज़रा अपने आसपास गौर से देखिए। कहीं कस्तूरी नाभि में ही न बसी हुई हो! ऐसा क्यों है कि सभी न्यूज़ चैनलों में काम करनेवाले ज्यादातर पत्रकार अच्छे हैं, समझदार हैं, पत्रकारिता में कुछ कर गुजरने की तमन्ना लेकर आए हैं। लेकिन उनका सामूहिक प्रोडक्ट भुतहा हो जाता है। क्या आज एसपी होते तो ऐसा नहीं होता? प्रणव रॉय और विनोद दुआ तो हैं न! फिर कल के रजत शर्मा आज सेक्स, रोमांच और अंधविश्वास फैलानेवाले रजत शर्मा कैसे बन गए? क्या ये महज बाज़ार और टीआरपी का दबाव है? दिलीप जी ने सही सवाल उठाया है कि आखिर यही बाज़ार इंग्लिश न्यूज चैनलों को तो पिशाच कथाएं कहने को मजबूर नहीं करता? सवाल कठिन हैं, लेकिन जवाब मुश्किल नहीं हैं।
पहले देख लिया जाए कि दी हुई स्थितियां क्या हैं। एक, न्यूज़ आज एक कमोडिटी बन चुकी है और न्यूज़ चैनल उस सर्विस सेक्टर का हिस्सा हैं, जिसमें विज्ञापन, मार्केटिंग, बैंकिंग, बीमा, कंसलटेंसी और ऑर्गेनाइज्ड रिटेल जैसे तमाम उद्योग आते हैं। दो, प्रिंट में कोई रिपोर्टर-पत्रकार व्यक्तिगत हैसियत से कमाल दिखा सकता है। लेकिन सर्विस सेक्टर के किसी भी दूसरे उद्योग की तरह टेलिविजन न्यूज़ का प्रोडक्शन बिना टीम के नहीं हो सकता। तीन, हिंदी और दूसरी देशी भाषाओं से जुड़े समाज की तमाम लोकतांत्रिक ख्वाहिशें अधूरी पड़ी हैं, उनमें लोकतांत्रिक मूल्यों की गज़ब की चाहत है। चार, हिंदी का पत्रकार इस पेशे में सिर्फ पैसे के लिए नहीं आता है। वह इसलिए आता है क्योंकि उसे लगता है कि उसमें औरों से कुछ अलग है और कुछ करके दिखा सकता है। उसमें आत्मसम्मान की जबरदस्त भूख होती है।
ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट सर्विस सेक्टर के लिए बेहद अहम पहलू होता है। कंपनी के लिए हर प्रोफेशनल ऐसेट होता है। इसलिए उसको लेकर छीना-झपटी मचती है। कंपनियां उसे रोकने और छीनने के लिए क्या-क्या नहीं करतीं। दिक्कत ये है कि हमारे न्यूज़ चैनलों के मालिकानों ने जिन संपादकों को अपना धंधा चलाने का ज़िम्मा सौंप रखा है, वो इस हकीकत को समझने को तैयार नहीं हैं। न्यूज़ के धंधे के उद्योग बन जाने की हकीकत को मालिकान तो कब का पहचान चुके हैं, लेकिन संपादकीय स्तर पर इसे अब भी सामंती अंदाज में ही चलाया जा रहा है, कॉरपोरेट तरीके से नहीं।
रवीश कुमार भले ही कहें कि सामंती संपादकों का युग चला गया है। लेकिन मैंने तो यही देखा है कि हिंदी पत्रकारिता में अच्छे-भले लोग भी संपादक की कुर्सी पाते ही सामंत बन जाते हैं। उनकी अयोग्यता और इससे उपजी असुरक्षा को कवच तभी मिलता है जब वो चीखने-चिल्लाने लगते हैं, अपने लोग तैयार करते हैं, अपना गुट बनाते हैं और बाकियों को दुत्कारते हैं। ये संपादक-गण कुर्सी पाते ही उसका भरपूर ‘भोग’ शुरू कर देते हैं। खुद चीखने-चिल्लाने में दक्ष होते हैं तो खुद करते हैं, नहीं तो कोई ‘कुत्ता’ पाल लेते हैं जो लोगों को सूंघ-सूंघ कर पूछता है कि न्यूज़ का मतलब भी जानते हो।
मंडल बाबू सुन रहे हैं न! जारी...
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