आधा तीतर, आधा बटेर तो कभी मुर्गा छाप पटाखे
इस समय देश की आधी-सी ज्यादा आबादी की उम्र 25 साल से कम है। इसी नौजवान पीढ़ी के एक प्रतिनिधि हैं मेरे सहकर्मी आदर्श कुमार। आज़ादी की साठवीं सालगिरह वो थोड़ा भावुक हुए तो काफी हद तक यथार्थपरक भी रहे। उन्होंने अपने संदेश में हमारी राजनीति की परत-परत दर खोलकर देखी है। संदेश बड़ा था, इसलिए उसे संपादित करके पेश कर रहा हूं।
जिंदगी के 25 पतझड़-सावन-बसंत-बहार बीत चुके हैं, या यूं कहें कि मैंने अपनी उम्र की रजत जयंती मना ली है। ये पच्चीसवां पंद्रह अगस्त है, जो मेरी जिंदगी में आया है। इस पंद्रह अगस्त का कभी मुझे बेसब्री से इंतजार रहता था।
बात सन् 1987 की है, पांच साल का मासूम था। पहली अगस्त से ही मेरे स्कूल में पंद्रह अगस्त की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। तब मैं भी देशभक्ति गीतों के रियाज और क्रांतिकारी नारे लगाने में मशगूल हो जाता, एकिक नियम जाए तेल बेचने। मैं अपने स्कूल में सबसे ज्यादा जोर से इंकलाब-जिंदाबाद के नारे लगाता था। वक्त बीतता गया। इसकी गूंज रूह में समाती चली गई। पारिवारिक माहौल राजनीतिक था, धीरे-धीरे देश की दिशा-दशा समझने लगा था।
उन दिनों राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, उनके बारे में एक चुटकुला उन दिनों बेहद लोकप्रिय हुआ था। राजीव गांधी किसी सब्जी की दुकान पर गए। दुकान पर हरी और लाल दोनों तरह की मिर्च के ढे़र थे। राजीव गांधी ने दोनों तरह की मिर्च की कीमत पूछी। जब उन्हें मालूम हुआ कि लाल मिर्च ज्यादा महंगी है तो उन्होंने कहा कि लोग फिर लाल मिर्च ही क्यों नहीं उगाते, ताकि उन्हें ज्यादा कीमत हासिल हो। मामला परवरिश का था।
हमारे देश की परवरिश भी इन 60 सालों में जिनके जिम्मे थी, वो कितना भला कर पाए, इसका जवाब अगर ढूंढना हो तो गांवों में घूम आइए। बिना सवाल पूछे आपको खुद-ब-खुद जवाब मिल जाएगा। साथ ही आप लौटेंगे एक और सवाल के साथ कि हमें क्या मिला?
जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे करिश्माई छवि वाले प्रधानमंत्रियों ने इस देश के लिए अपने माथे पर कितने बल लिये, इसे कंचनी कसौटी पर कसने के लिए किताबों और पत्र-पत्रिकाओं के संदर्भों की बजाय हकीकत की जमीन तलाशने की ज्यादा जरूरत है।
1929 में लाहौर में रावी नदी के तट पर हुए कांग्रेस अधिवेशन में जब गांधी जी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया था, उसी समय से गांधी जी नेहरू की नेतृत्व क्षमता में विश्वास करने लगे थे। हालांकि नेहरू जी 1919 से ही चर्चा में आ गए थे, जब वो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव पद पर नियुक्त हुए थे। कालांतर में प्रेस की आजादी के पक्षधर नेहरु ने डिस्कवरी ऑफ इंडिया और ग्लिम्पसेज ऑफ द वर्ल्ड हिस्ट्री जैसी किताबें लिखकर अपनी कलम का भी लोहा मनवा लिया। इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने राजनीतिक आदर्शवाद की नींव रखी, हमारे स्वाभिमान को आवाज दी, लेकिन उतना ही कड़वा सच ये भी है कि वो जमीनी विकास की बजाए विचारों की भूल-भूलैया में भटकते रहे।
बाद में चलकर उनकी सुपुत्री इंदिरा गांधी ने ही उनके स्थापित किए हुए राजनीतिक मूल्यों की तिलांजलि दे दी। वैज्ञानिकता और व्यावहारिकता की कसौटी पर नेहरू के उन सिद्धांतों को इंदिरा जी ने परखा और अपनी सूझ-बूझ का इस्तेमाल करते हुए कुछ हद तक स्थितियों को बदलने की कोशिश की। गरीबी कितनी दूर हुई, ये अलग बात है लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि गांवों के लोगों के लिए वो एक महान और मजबूत नेता थीं। लोक-लुभावन राजनीति की शुरुआत का श्रेय उन्हें ही जाता है।
राजीव गांधी की आलोचना के लिए बहुत वाकये पेश किए जा सकते हैं, लेकिन तकनीकी रूप से उन्होंने भारत को बेहद समृद्ध किया। विज्ञान और तकनीक में उनकी दिलचस्पी ने हमारे राष्ट्र को तरक्की के लिए एक ठोस बुनियाद दी।
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब 1987 में राजीव गांधी और उनके परिवार वालों पर बोफोर्स मामले में आरोप लगाना शुरू किया, तब वो अचानक चर्चा में आए और जब अगस्त, 1990 में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए उन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशों पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी, तब वो पिछड़े वर्गों के लिए मसीहा बनकर उभरे। उनके इस योगदान के लिए पिछड़ी और अनुसूचित जातियां-जनजातियां हमेशा याद रखेंगी। उन दिनों उनकी लोकप्रियता मुर्गा छाप पटाखे की तरह बम बम थी।
फिर ठीक तीन महीने बाद आडवाणी जी ने भी हाथों में कमंडल लिया और चल पड़े राम रथ लेकर। लालू यादव ने जब बिहार में उनके रथ का चक्का पंक्चर किया तो आडवाणी ने वी पी सिंह से समर्थन खींच लिया, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। मंडल का जादू चल निकला, उसका फायदा वी पी सिंह को भले ही ना हुआ हो लेकिन क्षेत्रीय नेताओं ने मंडल के नाम पर खूब मलाई काटी।
अटल बिहारी वाजपेयी मुझे हमेशा एक दिग्भ्रमित नेता लगे...गीत नया गाता हूं...गीत नहीं गाता हूं....उन पर टीका-टिप्पणी करना मैं वक्त की बर्बादी समझता हूं। सिर्फ एक बात के लिए थोड़ी दाद देना चाहूंगा कि 1977 में जब वो जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री के पद पर सुशोभित थे, उसी दरम्यान संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उन्होंने अपनी मातृभाषा हिंदी में भाषण दिया था। हिंदी के माथे पर चंद लम्हों के लिए बिंदी की चमक बिखेर दी।
मनमोहन सिंह को मैं करिश्माई छवि का प्रधानमंत्री नहीं मानता। उन्हें नॉन प्राइम मिनिस्टर कहने वालों की भी कमी नहीं है। मुझे उनकी काबिलियत और उनकी योजनाओं पर कतई संदेह नहीं हैं लेकिन उनके कार्यों का विश्लेषण अभी करना जल्दबाजी होगी। भारत में आर्थिक सुधारों की नींव डालनेवाले के तौर पर उन्हें याद किया जा सकता है।
कांग्रेस ने आजाद भारत में सबसे अधिक करीब साढ़े चार दशकों तक राज किया। आजादी के छह दशक बीत चुके हैं, जो लोग उनके हर कदम पर हमदम थे, उन्हें भी अब ये बात समझ आ गई है कि कांग्रेस पार्टी ने उनके बाल उल्टे छुरे से मुंड़ लिये हैं।
मार्क्स को जिन लोगों ने पढा है, उन्हें बताने की कोई जरूरत नहीं कि बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसे वामपंथियों का उनसे क्या नाता है? सबसे ज्यादा पढे-लिखे नेताओं का दंभ भरनेवाली वामपंथी पार्टियां किस तरह राजनीतिक शक्तियों का दुरुपयोग करती है, ये अब हंसुआ-हथौ़ड़े चलानेवाले भी समझने लगे हैं।
आधा तीतर, आधा बटेर यानी खिचड़ीफरोश राजनीति ने भारतीय शासन व्यवस्था का कबाड़ा कर दिया है। हर पार्टी में अपनी डफली, अपना राग का चलन है। नेता अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं के लिए पार्टी की बखिया उघेड़ने में एक पल की भी देर नहीं लगाते।
बड़े दिनों बाद जब पापा से कुछ बहस हुई तो उन्होंने सवाल दागा कि तुमने अपनी निजी जिंदगी में इतने दिनों में क्या किया? जवाब देना पड़ा- मैंने धीमे आवाज में अपनी पांच खास उपलब्धियां गिना दीं- दिल्ली विश्वविद्यालय से गोल्ड मेडल, हिंदी अकादमी का लेखन के लिए अवार्ड, शीला दीक्षित द्वारा दिया गया बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड, देहमुक्ति की अवधारणा और हिंदी फिल्में - विषय पर शोधकार्य और बारहवीं कक्षा में विज्ञान विषय के साथ जिला में प्रथम और बिहार में तृतीय स्थान।
मेरा पेशा मेरे लिए बहुत कुछ है, उनके लिए बस मेरे जीवनयापन का जरिया। इसे वो उपलब्धि नहीं मानते। हां, मीडिया द्वारा समय-समय पर उठाए गए कुछ कदमों की तारीफ वो दिल खोलकर करते हैं, खैर..!
उनका जवाब था कि तुम्हारी इन उपलब्धियों से मुझे तो गर्व हो सकता है, समाज शायद उस हद तक गौरवान्वित ना महसूस करे। देश के लिए दलीलें देना आसान है, कुछ करना बेहद मुश्किल..देश के लिए तुमने क्या किया या फिर कभी कुछ कर पाओगे, इसका भरोसा तुम्हें है?
सवाल स्वाभाविक ही था लेकिन सच पूछिए तो मैं हिल गया। उन्होंने पूरी जिंदगी समाज के लोगों के बारे में सोचने-विचारने और समय-समय पर उनकी यथासंभव मदद करने में गुजार दी। खुद के लिए कभी सोचा ही नहीं। क्या मैं कभी देश के लिए या फिर अपने समाज के लिए ही सही, एक तिनके का भी योगदान कर पाऊंगा? जवाब जो भी हो लेकिन इस सवाल ने मुझे चीरकर रख दिया है। मैं अरसे बाद जुबान से ना सही लेखनी के जरिये ही आप सभी लोगों के साथ एक बार आवाज लगाना चाहता हूं – इंकलाब, जिंदाबाद...
मुझे इस पल गजानन माघव ‘मुक्तिबोध’ की ये पंक्तियां याद आ रही है -
जिंदगी के 25 पतझड़-सावन-बसंत-बहार बीत चुके हैं, या यूं कहें कि मैंने अपनी उम्र की रजत जयंती मना ली है। ये पच्चीसवां पंद्रह अगस्त है, जो मेरी जिंदगी में आया है। इस पंद्रह अगस्त का कभी मुझे बेसब्री से इंतजार रहता था।
बात सन् 1987 की है, पांच साल का मासूम था। पहली अगस्त से ही मेरे स्कूल में पंद्रह अगस्त की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। तब मैं भी देशभक्ति गीतों के रियाज और क्रांतिकारी नारे लगाने में मशगूल हो जाता, एकिक नियम जाए तेल बेचने। मैं अपने स्कूल में सबसे ज्यादा जोर से इंकलाब-जिंदाबाद के नारे लगाता था। वक्त बीतता गया। इसकी गूंज रूह में समाती चली गई। पारिवारिक माहौल राजनीतिक था, धीरे-धीरे देश की दिशा-दशा समझने लगा था।
उन दिनों राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, उनके बारे में एक चुटकुला उन दिनों बेहद लोकप्रिय हुआ था। राजीव गांधी किसी सब्जी की दुकान पर गए। दुकान पर हरी और लाल दोनों तरह की मिर्च के ढे़र थे। राजीव गांधी ने दोनों तरह की मिर्च की कीमत पूछी। जब उन्हें मालूम हुआ कि लाल मिर्च ज्यादा महंगी है तो उन्होंने कहा कि लोग फिर लाल मिर्च ही क्यों नहीं उगाते, ताकि उन्हें ज्यादा कीमत हासिल हो। मामला परवरिश का था।
हमारे देश की परवरिश भी इन 60 सालों में जिनके जिम्मे थी, वो कितना भला कर पाए, इसका जवाब अगर ढूंढना हो तो गांवों में घूम आइए। बिना सवाल पूछे आपको खुद-ब-खुद जवाब मिल जाएगा। साथ ही आप लौटेंगे एक और सवाल के साथ कि हमें क्या मिला?
जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे करिश्माई छवि वाले प्रधानमंत्रियों ने इस देश के लिए अपने माथे पर कितने बल लिये, इसे कंचनी कसौटी पर कसने के लिए किताबों और पत्र-पत्रिकाओं के संदर्भों की बजाय हकीकत की जमीन तलाशने की ज्यादा जरूरत है।
1929 में लाहौर में रावी नदी के तट पर हुए कांग्रेस अधिवेशन में जब गांधी जी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया था, उसी समय से गांधी जी नेहरू की नेतृत्व क्षमता में विश्वास करने लगे थे। हालांकि नेहरू जी 1919 से ही चर्चा में आ गए थे, जब वो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव पद पर नियुक्त हुए थे। कालांतर में प्रेस की आजादी के पक्षधर नेहरु ने डिस्कवरी ऑफ इंडिया और ग्लिम्पसेज ऑफ द वर्ल्ड हिस्ट्री जैसी किताबें लिखकर अपनी कलम का भी लोहा मनवा लिया। इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने राजनीतिक आदर्शवाद की नींव रखी, हमारे स्वाभिमान को आवाज दी, लेकिन उतना ही कड़वा सच ये भी है कि वो जमीनी विकास की बजाए विचारों की भूल-भूलैया में भटकते रहे।
बाद में चलकर उनकी सुपुत्री इंदिरा गांधी ने ही उनके स्थापित किए हुए राजनीतिक मूल्यों की तिलांजलि दे दी। वैज्ञानिकता और व्यावहारिकता की कसौटी पर नेहरू के उन सिद्धांतों को इंदिरा जी ने परखा और अपनी सूझ-बूझ का इस्तेमाल करते हुए कुछ हद तक स्थितियों को बदलने की कोशिश की। गरीबी कितनी दूर हुई, ये अलग बात है लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि गांवों के लोगों के लिए वो एक महान और मजबूत नेता थीं। लोक-लुभावन राजनीति की शुरुआत का श्रेय उन्हें ही जाता है।
राजीव गांधी की आलोचना के लिए बहुत वाकये पेश किए जा सकते हैं, लेकिन तकनीकी रूप से उन्होंने भारत को बेहद समृद्ध किया। विज्ञान और तकनीक में उनकी दिलचस्पी ने हमारे राष्ट्र को तरक्की के लिए एक ठोस बुनियाद दी।
विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब 1987 में राजीव गांधी और उनके परिवार वालों पर बोफोर्स मामले में आरोप लगाना शुरू किया, तब वो अचानक चर्चा में आए और जब अगस्त, 1990 में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए उन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशों पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी, तब वो पिछड़े वर्गों के लिए मसीहा बनकर उभरे। उनके इस योगदान के लिए पिछड़ी और अनुसूचित जातियां-जनजातियां हमेशा याद रखेंगी। उन दिनों उनकी लोकप्रियता मुर्गा छाप पटाखे की तरह बम बम थी।
फिर ठीक तीन महीने बाद आडवाणी जी ने भी हाथों में कमंडल लिया और चल पड़े राम रथ लेकर। लालू यादव ने जब बिहार में उनके रथ का चक्का पंक्चर किया तो आडवाणी ने वी पी सिंह से समर्थन खींच लिया, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। मंडल का जादू चल निकला, उसका फायदा वी पी सिंह को भले ही ना हुआ हो लेकिन क्षेत्रीय नेताओं ने मंडल के नाम पर खूब मलाई काटी।
अटल बिहारी वाजपेयी मुझे हमेशा एक दिग्भ्रमित नेता लगे...गीत नया गाता हूं...गीत नहीं गाता हूं....उन पर टीका-टिप्पणी करना मैं वक्त की बर्बादी समझता हूं। सिर्फ एक बात के लिए थोड़ी दाद देना चाहूंगा कि 1977 में जब वो जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री के पद पर सुशोभित थे, उसी दरम्यान संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उन्होंने अपनी मातृभाषा हिंदी में भाषण दिया था। हिंदी के माथे पर चंद लम्हों के लिए बिंदी की चमक बिखेर दी।
मनमोहन सिंह को मैं करिश्माई छवि का प्रधानमंत्री नहीं मानता। उन्हें नॉन प्राइम मिनिस्टर कहने वालों की भी कमी नहीं है। मुझे उनकी काबिलियत और उनकी योजनाओं पर कतई संदेह नहीं हैं लेकिन उनके कार्यों का विश्लेषण अभी करना जल्दबाजी होगी। भारत में आर्थिक सुधारों की नींव डालनेवाले के तौर पर उन्हें याद किया जा सकता है।
कांग्रेस ने आजाद भारत में सबसे अधिक करीब साढ़े चार दशकों तक राज किया। आजादी के छह दशक बीत चुके हैं, जो लोग उनके हर कदम पर हमदम थे, उन्हें भी अब ये बात समझ आ गई है कि कांग्रेस पार्टी ने उनके बाल उल्टे छुरे से मुंड़ लिये हैं।
मार्क्स को जिन लोगों ने पढा है, उन्हें बताने की कोई जरूरत नहीं कि बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसे वामपंथियों का उनसे क्या नाता है? सबसे ज्यादा पढे-लिखे नेताओं का दंभ भरनेवाली वामपंथी पार्टियां किस तरह राजनीतिक शक्तियों का दुरुपयोग करती है, ये अब हंसुआ-हथौ़ड़े चलानेवाले भी समझने लगे हैं।
आधा तीतर, आधा बटेर यानी खिचड़ीफरोश राजनीति ने भारतीय शासन व्यवस्था का कबाड़ा कर दिया है। हर पार्टी में अपनी डफली, अपना राग का चलन है। नेता अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं के लिए पार्टी की बखिया उघेड़ने में एक पल की भी देर नहीं लगाते।
बड़े दिनों बाद जब पापा से कुछ बहस हुई तो उन्होंने सवाल दागा कि तुमने अपनी निजी जिंदगी में इतने दिनों में क्या किया? जवाब देना पड़ा- मैंने धीमे आवाज में अपनी पांच खास उपलब्धियां गिना दीं- दिल्ली विश्वविद्यालय से गोल्ड मेडल, हिंदी अकादमी का लेखन के लिए अवार्ड, शीला दीक्षित द्वारा दिया गया बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड, देहमुक्ति की अवधारणा और हिंदी फिल्में - विषय पर शोधकार्य और बारहवीं कक्षा में विज्ञान विषय के साथ जिला में प्रथम और बिहार में तृतीय स्थान।
मेरा पेशा मेरे लिए बहुत कुछ है, उनके लिए बस मेरे जीवनयापन का जरिया। इसे वो उपलब्धि नहीं मानते। हां, मीडिया द्वारा समय-समय पर उठाए गए कुछ कदमों की तारीफ वो दिल खोलकर करते हैं, खैर..!
उनका जवाब था कि तुम्हारी इन उपलब्धियों से मुझे तो गर्व हो सकता है, समाज शायद उस हद तक गौरवान्वित ना महसूस करे। देश के लिए दलीलें देना आसान है, कुछ करना बेहद मुश्किल..देश के लिए तुमने क्या किया या फिर कभी कुछ कर पाओगे, इसका भरोसा तुम्हें है?
सवाल स्वाभाविक ही था लेकिन सच पूछिए तो मैं हिल गया। उन्होंने पूरी जिंदगी समाज के लोगों के बारे में सोचने-विचारने और समय-समय पर उनकी यथासंभव मदद करने में गुजार दी। खुद के लिए कभी सोचा ही नहीं। क्या मैं कभी देश के लिए या फिर अपने समाज के लिए ही सही, एक तिनके का भी योगदान कर पाऊंगा? जवाब जो भी हो लेकिन इस सवाल ने मुझे चीरकर रख दिया है। मैं अरसे बाद जुबान से ना सही लेखनी के जरिये ही आप सभी लोगों के साथ एक बार आवाज लगाना चाहता हूं – इंकलाब, जिंदाबाद...
मुझे इस पल गजानन माघव ‘मुक्तिबोध’ की ये पंक्तियां याद आ रही है -
तस्वीरें बनाने की इच्छा अभी बाकी हैं
जिंदगी भूरी ही नहीं, वह खाकी है
जमाने ने नगर के कंधे पर हाथ रख कह दिया साफ-साफ
पैरों के नखों से, या डंडे की नोंक से
धरती की धूल में भी रेखा खींचकर तस्वीर बनती है
बशर्ते कि जिंदगी को चित्र-सी बनाने का चाव हो
श्रद्धा हो, भाव हो..!
जिंदगी भूरी ही नहीं, वह खाकी है
जमाने ने नगर के कंधे पर हाथ रख कह दिया साफ-साफ
पैरों के नखों से, या डंडे की नोंक से
धरती की धूल में भी रेखा खींचकर तस्वीर बनती है
बशर्ते कि जिंदगी को चित्र-सी बनाने का चाव हो
श्रद्धा हो, भाव हो..!
Comments
हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमाया कर गए।
बीए किया, एमए किया, अफसर हुए और मर गए।।
चलते फिरते ... उठते बैठते ... कई बार ऐसे सवाल दिल में उठते हैं और शायद इन्हीं भावनाएं की बदौलत “ हम कुछ और कर सकते थे “ की परिधि से निकलकर ये सवाल एक ऐसे पेशे में सिमट गए हैं जो तमाम दिक्कतों ... परेशानियों के बावजूद बेहद आत्मीय है ...
आदर्श, देश की राजनीति का सफरनामा हर इंसान के नजरिए से अलग हो सकता है ये मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि हममें से कोई दक्षिणपंथी हैं ... तो कोई वामपंथी ... हालांकि बेहद तार्किक होकर सोचने वाले हर इंसान इस बात को शिद्दत से मानेगा कि भले ही हम रॉकेट से उड़ें ... या कंम्पयूटर से अपने दैन्दिनी तय करें विकास के लिए ये पैरामीटर मायने नहीं रखते .... आज भी हमारे आदिवासी जंगलों से रिजर्व फॉरेस्ट , उद्योग धंधे , शहरी अमीरों के ( सेकेन्ड होम) के लिए भगाए जाते हैं ... और जब वो रोजी के लिए शहर का मुंह ताकते हैं … तो हम अपनी जिंदगी को सस्ता बनाने के लिए उनका इस्तेमाल तो कर लेते हैं ... लेकिन हमारे बड़े शहरों के पास इतना छोटा सा दिल नहीं होता कि उन्हें सिर छुपाने के लिए जगह दे दें ...
खैर मैं शायद आपके सवाल को कोई और मोड़ दे दूं ...
इसलिए अंत मैं सिर्फ इतना लिखना चाहता हूं कि जिस पेशे से हम सब इतना प्यार करते हैं कहीं बाजारवाद उस पर इतना हावी न हो जाए कि भूख ... बेरोजगारी ... बुनियादी सुविधाओं से ध्यान हटाकर लोगों को मंडल – कमंडल, मंदिर – मस्जिद और इंडिया शाइनिंग के भूल भूलैय्ये में छोड़ने का जो षडयंत्र हमारे नेता रचते हैं ... उसमें कहीं हम भी भागीदार न बन जाएं
क्योंकि लोग क्या देखना चाहते हैं ये एक सवाल तो है ... लेकिन ये सवाल इस बुनियाद पर भी खड़ा हो सकता है कि हम क्या दिखा रहे हैं ...
आपका
अनुराग द्वारी