अर्द्ध-नारीश्वर और सोलमेट की तलाश
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फिर अचानक किसी को देखकर लगता है कि हां, यही है मेरा दूसरा हिस्सा, यही है मेरा सोलमेट और वह उससे मिलने के लिए बेचैन हो उठता है, उसके प्यार में पड़ जाता है। प्लैटो के कहे की असली भावना पर जाएं तो हर किसी का सोलमेट कहीं न कहीं दुनिया में ज़रूर होता है। हो सकता है अपने देश में न हो, किसी पराये मुल्क में हो। हो सकता है वह अपनी भाषा नहीं बोलता हो, कोई और भाषा बोलता हो। लेकिन अगर मान लीजिए कि किसी को उसका सोलमेट मिल जाए तो उसे पहचानेगा कैसे? फिर अगर गलत पहचान हो गई तो! तो क्या आदमी ज़िंदगी भर अपना सोलमेट तलाशने के लिए ट्रायल एंड एरर पद्धति का इस्तेमाल करता रहेगा?
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दिक्कत तब होती है कि जब किसी शख्स को अपने शरीर का दूसरा हिस्सा नहीं मिल पाता, सोलमेट नहीं मिल पाता। फिर तो अंतहीन दुख का सिलसिला चलता रहता है। ये भी होता है कि अचानक एक दिन सोलमेट का भ्रम टूट जाता है। सोलमेट के पाने का ये भ्रम जिस पल टूटता है, उस पल कैसी तकलीफ होती होगी, भुक्तभोगी के अलावा किसी और के लिए इसकी कल्पना तक कर पाना मुश्किल है। दोनों ही इंसान फिर नितांत अकेले हो जाते हैं। ठीक उसी तरह जैसे वो पहले थे। अकेले-अकेले की दुनिया में दोनों फिर भंवर में घूमने लगते हैं। एक बार साथ का स्वाद चख लेने के बाद उनकी बेचैनी पहले से कहीं ज्यादा विकट होती है।
मुझे नहीं पता कि अर्द्ध-नारीश्वर की परिकल्पना कहां से आई होगी, या प्लैटो ने भगवान के हाथों उभयलिंगी इंसान को दो हिस्सों में क्यों बंटवाया, लेकिन मैं इतना ज़रूर मानता हूं कि ये दोनों ही धारणाएं प्यार की तलाश को, सोलमेट की तलाश को एक लॉजिक दे देती हैं। एक बात मैंने और देखी है कि महिलाएं सोलमेट को लेकर ज्यादा संवेदनशील होती हैं, बनिस्बत पुरुषों के। इसकी क्या वजह है, इसको समझने के लिए न तो मेरा कोई मनोवैज्ञानिक अध्ययन है और न ही मुझे कोई ऐसा मिथक याद है जो मेरी मदद कर सके...
वैसे पुरुष के साथ ऐसा नहीं होता होगा, ये भी नहीं कहा जा सकता। जयशंकर प्रसाद की कामायनी के मनु श्रद्धा और इड़ा के बीच झूलते हैं। फिर श्रद्धा और इड़ा में से किसी एक के मुंह से बुलवाया गया है...
तुम हो कौन और मैं क्या हूं, इसमें क्या है धरा, सुनो।
मानस-जलधि रहे चिर चुंबित, मेरे क्षितिज उदार बनो।
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so might be soul-mate?