आलोचनाएं सुनीं तो अब सफाई भी सुन लें
मजाक-मजाक में मजमा लग गया। तो, अब थोड़ा सीरियस हो लिया जाए। पहली बात, जो सच्चे सहृदय लोग, गृहणियां, कामकाजी लोग, भावुक नवयुवतियां या नौजवान अपनी कोमल भावनाओं को कविता के रूप में कलमबद्ध करते हैं, उनको अगर मैं फ्रॉड कहूं तो यकीनन मैं कुंभीपाक नरक का अधिकारी हूं। चंदू जैसे तमाम मित्र जो कविता को साधना की तरह साधते हैं, उनकी भावनाओं पर संदेह करना भी ब्रह्म-हत्या के दोष से कम नहीं है। मैं तो उन कवियों की बात कर रहा था जो जनता और जनवाद के नाम पर कविता की दुकान चलाते हैं। ऐसे कई समकालीन कवियों के नाम मेरी जुबान पर हैं। लेकिन शिष्टाचारवश मैं उनके नाम नहीं ले सकता।
वैसे, आपको बता दूं कि मैंने कोई अनोखी बात नहीं कही है। साहित्य से मेरा पहला परिचय गजानन माधव मुक्तिबोध की रचनाओं के माध्यम से हुआ था। उन्होंने साहित्यिक की डायरी में 1954 से लेकर 1962 के बीच लिखे गए कई लेखों में इस तरह की बातें कही हैं। आप भी उनकी बानगी देख लीजिए। मेरी अपनी बात अगली पोस्ट में।
- कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी शीर्षक वाले लेख में मुक्तिबोध ने यशराज नाम के एक चरित्र से कहलवाया है – हिंदी में बहुतेरी कविताएं हैं जो कि बिलकुल फ्रॉड हैं। जिसे तुम नई कविता कहते हो, उसमें भी फ्रॉड की कमी नहीं है।
- आश्चर्य की बात है कि जो कवि कला में एकदम भेरी या ढोल के निनाद-सरीखी ऊर्जस्वल क्रांतिवाणी गुंजाता रहता है, वही कवि ठीक व्यावहारिक जीवन में (और आंतरिक जीवन में भी) सामान्य जनों की जो नैतिक मानवीय इयत्ताएं हैं उससे भी गिरा हुआ बहुत बार पाया जाता है। ...राजनीतिक क्षेत्र के हिसाब से देखें तो यह पाया जाएगा कि ऐसे बहुत कम क्रांतिकारी कवि हैं, जिनके जीवन में राजनीतिक सिद्धांत बरते जाते हों। पूछा जाएगा कि यह तो व्यक्तिगत बात हुई, और साहित्य में इसकी कोई ज़रूरत नहीं। लेकिन असल बात यह है कि काव्य और व्यक्तित्व का संबंध आपको कहीं-न-कहीं जोड़ना होगा। यह नहीं हो सकता कि आप एक ओर सामान्य मानवीयता का त्याग करते चलें और दूसरी ओर काव्य में मानवीय बने रहें।..यह सही है कि प्रश्न उलझा हुआ है, लेकिन यह भी सही है कि यदि साहित्य जीवन का प्रतिबिंब है तो उसमें यह भी जोड़ना पड़ेगा कि कभी-कभी साहित्य जीवन के स्वांग का भी प्रतिबिंब होता है।
- काव्य में प्रकट उनके व्यक्तित्व में मानवीयता का स्पर्श अल्प होता है। उसमें किसी ऐसे भव्य रूप के दर्शन भी नहीं होते जो हमारे सामान्य जनों की भव्य मानवीयता में हमें दिखाई देते हैं। आध्यात्मिक टुटपुंजियापन आज की कविता का महत्वपूर्ण लक्षण है।
- एक सज्जन हैं। बहुत ऊंचे प्रगतिशील कवि। अभी भी बड़े, पूज्य, ज्येष्ठ और श्रेष्ठ माने जाते हैं। उनका काव्य क्रांतिकारी है। लेकिन जिस नगर में वे एक आचार्य हैं, उसकी जनता से पूछिए। जी हां, जनता से, विद्यार्थियों से, यहां तक कि कार्यकर्त्ताओं से भी। उन्होंने एक बार नहीं, कई बार हड़तालें तोड़ने का काम किया है। ...इसके बाद भी वे शोषित जनता के क्रांतिकारी कवि सिर्फ बने ही नहीं रहे, किंतु प्रगतिशील आलोचक प्रवरों ने उन्हें जयमालाएं पहनाईं, उनका शंखनाद किया।
- असल में नई कविता मानसिक तरंगों (प्रतिक्रिया) का चित्रण करती है। ये तरंगे क्षण-स्थाई हैं। उनका महत्व तो तब चिर-स्थाई होगा जब वे पूरे जीवन को प्रभावित करने लायक क्षमता धारण करेंगी।
- मनुष्य की मानसिक मनोवैज्ञानिक स्वार्थ-बुद्धि ऊंचे आदर्शों को आगे करके उनके झंडे के नीचे काम करती है। उनके मंदिर में बैठ अपना शिकार करती है, अपना धंधा करती है।
- ऊंचे से ऊंचा कलाकार भी जब असलियत को, मनुष्य के यथार्थ को, अपनी संकुचित संवेदनाओं, ओछी पीड़ाओं और अहंग्रस्त भावनाओं का आदर्शीकरण करते हुए दुनिया को देखता है, तब लेखक के प्रतिभाशील होने के कारण उसका चित्रण-कार्य प्रभावशाली होते हुए भी, उस प्रभाव का गुण ऐसा न होगा जो मनुष्य के हृदय को पिघलाकर उसकी आत्मा को उन्नत बनाए।
- साहित्य बहुत कुछ हद तक एक धोखा है। खुद को भी धोखा और दुनिया भर को धोखा। हे मेरे प्यारे पाठकों! यदि इस बात को नहीं समझोगे तो अपना ही नुकसान करोगे।
वैसे, आपको बता दूं कि मैंने कोई अनोखी बात नहीं कही है। साहित्य से मेरा पहला परिचय गजानन माधव मुक्तिबोध की रचनाओं के माध्यम से हुआ था। उन्होंने साहित्यिक की डायरी में 1954 से लेकर 1962 के बीच लिखे गए कई लेखों में इस तरह की बातें कही हैं। आप भी उनकी बानगी देख लीजिए। मेरी अपनी बात अगली पोस्ट में।
- कलाकार की व्यक्तिगत ईमानदारी शीर्षक वाले लेख में मुक्तिबोध ने यशराज नाम के एक चरित्र से कहलवाया है – हिंदी में बहुतेरी कविताएं हैं जो कि बिलकुल फ्रॉड हैं। जिसे तुम नई कविता कहते हो, उसमें भी फ्रॉड की कमी नहीं है।
- आश्चर्य की बात है कि जो कवि कला में एकदम भेरी या ढोल के निनाद-सरीखी ऊर्जस्वल क्रांतिवाणी गुंजाता रहता है, वही कवि ठीक व्यावहारिक जीवन में (और आंतरिक जीवन में भी) सामान्य जनों की जो नैतिक मानवीय इयत्ताएं हैं उससे भी गिरा हुआ बहुत बार पाया जाता है। ...राजनीतिक क्षेत्र के हिसाब से देखें तो यह पाया जाएगा कि ऐसे बहुत कम क्रांतिकारी कवि हैं, जिनके जीवन में राजनीतिक सिद्धांत बरते जाते हों। पूछा जाएगा कि यह तो व्यक्तिगत बात हुई, और साहित्य में इसकी कोई ज़रूरत नहीं। लेकिन असल बात यह है कि काव्य और व्यक्तित्व का संबंध आपको कहीं-न-कहीं जोड़ना होगा। यह नहीं हो सकता कि आप एक ओर सामान्य मानवीयता का त्याग करते चलें और दूसरी ओर काव्य में मानवीय बने रहें।..यह सही है कि प्रश्न उलझा हुआ है, लेकिन यह भी सही है कि यदि साहित्य जीवन का प्रतिबिंब है तो उसमें यह भी जोड़ना पड़ेगा कि कभी-कभी साहित्य जीवन के स्वांग का भी प्रतिबिंब होता है।
- काव्य में प्रकट उनके व्यक्तित्व में मानवीयता का स्पर्श अल्प होता है। उसमें किसी ऐसे भव्य रूप के दर्शन भी नहीं होते जो हमारे सामान्य जनों की भव्य मानवीयता में हमें दिखाई देते हैं। आध्यात्मिक टुटपुंजियापन आज की कविता का महत्वपूर्ण लक्षण है।
- एक सज्जन हैं। बहुत ऊंचे प्रगतिशील कवि। अभी भी बड़े, पूज्य, ज्येष्ठ और श्रेष्ठ माने जाते हैं। उनका काव्य क्रांतिकारी है। लेकिन जिस नगर में वे एक आचार्य हैं, उसकी जनता से पूछिए। जी हां, जनता से, विद्यार्थियों से, यहां तक कि कार्यकर्त्ताओं से भी। उन्होंने एक बार नहीं, कई बार हड़तालें तोड़ने का काम किया है। ...इसके बाद भी वे शोषित जनता के क्रांतिकारी कवि सिर्फ बने ही नहीं रहे, किंतु प्रगतिशील आलोचक प्रवरों ने उन्हें जयमालाएं पहनाईं, उनका शंखनाद किया।
- असल में नई कविता मानसिक तरंगों (प्रतिक्रिया) का चित्रण करती है। ये तरंगे क्षण-स्थाई हैं। उनका महत्व तो तब चिर-स्थाई होगा जब वे पूरे जीवन को प्रभावित करने लायक क्षमता धारण करेंगी।
- मनुष्य की मानसिक मनोवैज्ञानिक स्वार्थ-बुद्धि ऊंचे आदर्शों को आगे करके उनके झंडे के नीचे काम करती है। उनके मंदिर में बैठ अपना शिकार करती है, अपना धंधा करती है।
- ऊंचे से ऊंचा कलाकार भी जब असलियत को, मनुष्य के यथार्थ को, अपनी संकुचित संवेदनाओं, ओछी पीड़ाओं और अहंग्रस्त भावनाओं का आदर्शीकरण करते हुए दुनिया को देखता है, तब लेखक के प्रतिभाशील होने के कारण उसका चित्रण-कार्य प्रभावशाली होते हुए भी, उस प्रभाव का गुण ऐसा न होगा जो मनुष्य के हृदय को पिघलाकर उसकी आत्मा को उन्नत बनाए।
- साहित्य बहुत कुछ हद तक एक धोखा है। खुद को भी धोखा और दुनिया भर को धोखा। हे मेरे प्यारे पाठकों! यदि इस बात को नहीं समझोगे तो अपना ही नुकसान करोगे।
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