क्क्क...कितनी कमीनी कपनियां हैं ये!
मैं उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार की नीतियों का समर्थक नहीं हूं। इसकी तस्दीक आप मेरे पुराने लेखों से कर सकते हैं। न ही मैं कॉरपोरेट सेक्टर का विरोधी हूं क्योंकि दुनिया भर में पूंजीवाद ने लोकतंत्र की स्थापना में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। लेकिन मायावती सरकार की नई प्रस्तावित आरक्षण नीति पर कुछ उद्योग संगठनों ने जैसी प्रतिक्रिया दिखाई है, उससे मुझ जैसे शख्स के मुंह से भी गालियां निकल रही हैं। भारतीय उद्योग संगठनों के इन प्रतिनिधियों का कहना है कि अगर मायावती सरकार ने आरक्षण लागू करने के लिए मजबूर किया तो निजी कंपनियां उत्तर प्रदेश को छोड़कर दूसरे राज्यों में चली जाएंगी।
पहली बात मायावती ने निजी क्षेत्र में आरक्षण की जो पहल की है, वह बाध्यकारी नहीं, बल्कि स्वैच्छिक है। जो भी कंपनियां नई यूनिट के लिए सरकार से सस्ती ज़मीन, ग्रांट या दूसरी किस्म की सहायता लेती हैं, उन्हें इसके एवज में नौकरियों में गरीब तबकों के लिए 30 फीसदी आरक्षण रखना होगा। इसमें से 10 फीसदी आरक्षण अनुसूचित जातियो, 10 फीसदी आरक्षण ओबीसी और पिछड़े धार्मिक अल्पसंख्यकों और बाकी 10 फीसदी आरक्षण आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्णों के लिए है। अगर कोई कंपनी सरकारी छूट नहीं चाहती है तो वह इस आरक्षण को न लागू करने के लिए पूरी तरह आज़ाद है।
फिर इन कंपनियों को किस बात पर एतराज़ है? दोनों हाथों में लड्डू तो नहीं चल सकता। आप पब्लिक की कमाई से चलनेवाली सरकार से छूट भी पाना चाहते हैं और पब्लिक को ही ठेंगा दिखाना चाहते हैं! ऐसा कैसे चल सकता है? देश आजादी की साठवीं सालगिरह बना रहा है तो हमें ये भी याद कर लेना चाहिए कि हमारे निजी उद्योगों का शुरू से ही चरित्र मलाई खाने का रहा है।
आज़ादी से पहले और दूसरे विश्व युद्ध के फौरन बाद 1944-45 में जेआरडी टाटा, जीडी बिड़ला, श्रीराम, कस्तूरभाई लालभाई, एडी श्रॉफ और जॉन मथाई जैसे तमाम उद्योगपतियों ने जो बॉम्बे प्लान पेश किया था, उसका साफ मकसद था कि जिन कामों में रिटर्न रिस्की है, पूंजी ज्यादा लगनी है और मुनाफा देर से आना है, वे सारे काम सरकार करे, जबकि ज्यादा और द्रुत मुनाफे वाले उद्योग निजी क्षेत्र के हवाले ही रहने दिए जाएं। साठ के दशक में रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर एचवीआर अयंगर ने कहा था, ‘हालांकि बहुत से लोग अब भी मानते हैं कि नेहरू हमारी अर्थव्यवस्था को समाजवादी बनाना चाहते थे, लेकिन हकीकत ये है कि बिजनेस समुदाय ने ही सरकार पर दबाव डाला था कि वह बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करे ताकि निजी क्षेत्र के मुनाफे की राह आसान हो सके।’
यही वजह है कि सड़कों के निर्माण से लेकर बिजली और तमाम बुनियादी उद्योग सार्वजिनिक क्षेत्र के मत्थे मढ़ दिए गए। बने-बनाए तंत्र पर निजी कंपनियां मुनाफा कमाती रहीं। आज सार्वजनिक क्षेत्र की जिन बीमार कंपनियों का हवाला दिया जाता है, उनमें से ज्यादातर पहले निजी क्षेत्र की कंपनियां थीं। जब ये कंपनियां घाटे की दलदल में धंस गई तो निजी उद्योगपतियों ने इन्हें दिवालिया घोषित कर दिया। तमाम कर रियायतों का फायदा उठाया और सरकार ने खुशी-खुशी इन्हें सार्वजनिक क्षेत्र के सिर पर डाल दिया।
आज भी ये निजी कंपनियां इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण में उतरने से बचने की हरसंभव कोशिश करती हैं। ये अलग बात है कि विदेशी पूंजी के दबाव और सहयोग के चलते इंफ्रास्ट्रक्चरल उद्योगों में उतरना उनकी मजबूरी हो गई है। लेकिन यहां एक बात गौर करने की है कि इन्हीं कंपनियों में इनफोसिस और विप्रो जैसी आईटी उद्योग की कंपनियां भी हैं जो आरक्षण से साफ इनकार नहीं करतीं, बल्कि एसर्टिव एक्शन की पहल करती हैं, कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिटी (सीएसआर) पर ज़ोर देती हैं।
अगर आप समाज से, सरकार से कुछ लेते हैं तो सामाजिक ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकते। सीएसआर के नाम पर स्पोर्ट्स एकेडमी चलाने या कुछ एनजीओ को स्पांसर करने भर से काम नहीं चलेगा। समाज को लोकतांत्रिक बनाने में भी कॉरपोरेट सेक्टर को भूमिका निभानी पड़ेगी। ऐसा न करना समाज और देश के लिए ही नहीं, कॉरपोरेट सेक्टर के लिए भी आत्मघाती होगा।
पहली बात मायावती ने निजी क्षेत्र में आरक्षण की जो पहल की है, वह बाध्यकारी नहीं, बल्कि स्वैच्छिक है। जो भी कंपनियां नई यूनिट के लिए सरकार से सस्ती ज़मीन, ग्रांट या दूसरी किस्म की सहायता लेती हैं, उन्हें इसके एवज में नौकरियों में गरीब तबकों के लिए 30 फीसदी आरक्षण रखना होगा। इसमें से 10 फीसदी आरक्षण अनुसूचित जातियो, 10 फीसदी आरक्षण ओबीसी और पिछड़े धार्मिक अल्पसंख्यकों और बाकी 10 फीसदी आरक्षण आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्णों के लिए है। अगर कोई कंपनी सरकारी छूट नहीं चाहती है तो वह इस आरक्षण को न लागू करने के लिए पूरी तरह आज़ाद है।
फिर इन कंपनियों को किस बात पर एतराज़ है? दोनों हाथों में लड्डू तो नहीं चल सकता। आप पब्लिक की कमाई से चलनेवाली सरकार से छूट भी पाना चाहते हैं और पब्लिक को ही ठेंगा दिखाना चाहते हैं! ऐसा कैसे चल सकता है? देश आजादी की साठवीं सालगिरह बना रहा है तो हमें ये भी याद कर लेना चाहिए कि हमारे निजी उद्योगों का शुरू से ही चरित्र मलाई खाने का रहा है।
आज़ादी से पहले और दूसरे विश्व युद्ध के फौरन बाद 1944-45 में जेआरडी टाटा, जीडी बिड़ला, श्रीराम, कस्तूरभाई लालभाई, एडी श्रॉफ और जॉन मथाई जैसे तमाम उद्योगपतियों ने जो बॉम्बे प्लान पेश किया था, उसका साफ मकसद था कि जिन कामों में रिटर्न रिस्की है, पूंजी ज्यादा लगनी है और मुनाफा देर से आना है, वे सारे काम सरकार करे, जबकि ज्यादा और द्रुत मुनाफे वाले उद्योग निजी क्षेत्र के हवाले ही रहने दिए जाएं। साठ के दशक में रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर एचवीआर अयंगर ने कहा था, ‘हालांकि बहुत से लोग अब भी मानते हैं कि नेहरू हमारी अर्थव्यवस्था को समाजवादी बनाना चाहते थे, लेकिन हकीकत ये है कि बिजनेस समुदाय ने ही सरकार पर दबाव डाला था कि वह बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करे ताकि निजी क्षेत्र के मुनाफे की राह आसान हो सके।’
यही वजह है कि सड़कों के निर्माण से लेकर बिजली और तमाम बुनियादी उद्योग सार्वजिनिक क्षेत्र के मत्थे मढ़ दिए गए। बने-बनाए तंत्र पर निजी कंपनियां मुनाफा कमाती रहीं। आज सार्वजनिक क्षेत्र की जिन बीमार कंपनियों का हवाला दिया जाता है, उनमें से ज्यादातर पहले निजी क्षेत्र की कंपनियां थीं। जब ये कंपनियां घाटे की दलदल में धंस गई तो निजी उद्योगपतियों ने इन्हें दिवालिया घोषित कर दिया। तमाम कर रियायतों का फायदा उठाया और सरकार ने खुशी-खुशी इन्हें सार्वजनिक क्षेत्र के सिर पर डाल दिया।
आज भी ये निजी कंपनियां इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण में उतरने से बचने की हरसंभव कोशिश करती हैं। ये अलग बात है कि विदेशी पूंजी के दबाव और सहयोग के चलते इंफ्रास्ट्रक्चरल उद्योगों में उतरना उनकी मजबूरी हो गई है। लेकिन यहां एक बात गौर करने की है कि इन्हीं कंपनियों में इनफोसिस और विप्रो जैसी आईटी उद्योग की कंपनियां भी हैं जो आरक्षण से साफ इनकार नहीं करतीं, बल्कि एसर्टिव एक्शन की पहल करती हैं, कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिटी (सीएसआर) पर ज़ोर देती हैं।
अगर आप समाज से, सरकार से कुछ लेते हैं तो सामाजिक ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकते। सीएसआर के नाम पर स्पोर्ट्स एकेडमी चलाने या कुछ एनजीओ को स्पांसर करने भर से काम नहीं चलेगा। समाज को लोकतांत्रिक बनाने में भी कॉरपोरेट सेक्टर को भूमिका निभानी पड़ेगी। ऐसा न करना समाज और देश के लिए ही नहीं, कॉरपोरेट सेक्टर के लिए भी आत्मघाती होगा।
Comments
यह एक अच्छा कदम है. यदि अन्य राज्य सरकारें भी यह नीति अपनाये तो आरक्षण का मसला जल्दी हल हो सकता है.
परन्तु यह नीति तब ही लागू हो ,जब creamy layer की शर्त को पहले मान लिया जाये. साथ ही यह भी कि आरक्षण सिर्फ एक पीढी को ही मिल सकता है. कुल क्रमागत नही. अन्य सभी प्रकार के आरक्षणों को समाप्त कर दिया जाये. तब ही यह job reservation की scheme सफल हो सकती है.