कहते हैं शब्दों को नहीं, भावना को समझो!
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इस लॉबी के घनघोर प्रचार का ही नतीजा है कि इस बार राष्ट्रहित की बात करनेवाले लेफ्ट को ही ज्यादातर लोग राष्ट्रविरोधी और चीन के इशारों पर खेलनेवाला मानने लगे हैं। इस हद तक हल्ला मचाया गया कि बीजेपी और संघ से जुडे रहे बुद्धिजीवी सुधीर कुलकर्णी को लेफ्ट के बचाव में उतरना पड़ा।
लेफ्ट से लेकर पूर्व केंद्रीय मंत्री और पत्रकार अरुण शौरी ने 123 समझौते और उससे जुड़े हाइड एक्ट के ‘टेक्स्ट’ के आधार पर ही कहा था कि इसमें भारतीय संप्रभुता पर हमला किया गया है, लेकिन अमेरिकी लॉबी के कुछ बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि टेक्स्ट को नहीं, ‘कॉन्टेक्स्ट’ को समझने की जरूरत है। किसी अंतरराष्ट्रीय संधि के बारे में इससे ज्यादा लचर तर्क कोई और हो नहीं सकता, क्योंकि कानून में ज़रा-सी गुंजाइश छोड़ दी जाए तो व्याख्याकार ठीक उसकी उल्टी बात को सच साबित कर सकते हैं।
वैसे कांग्रेस को ये बात कतई हजम नहीं हो रही है कि कोई उस पर देश की संप्रभुता के साथ समझौता करने का आरोप लगाए। विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने मोर्चा संभालते हुए कहा है कि मनमोहन सिंह जैसा प्रधानमंत्री कभी देश की संप्रभुता और अवाम के हितों के साथ समझौता नहीं कर सकता। वाकई मनमोहन सिंह दुनिया से न्यारे हैं। वे उस जॉर्ज डब्ल्यू बुश को भारत का सबसे दोस्ताना अमेरिकी राष्ट्रपति ठहरा चुके हैं, जो दुनिया में ही नहीं, अमेरिका तक में सबसे ज्यादा नफरत किया जानेवाला राष्ट्रपति है।
परमाणु संधि, अप्रसार संधि, सीटीबीटी, नाभिकीय परीक्षण...ये सब बड़े जटिल मसले हैं। लेकिन सीधी और साफ-सी बात ये है कि आज भारत को अमेरिका की नहीं, बल्कि अमेरिका को भारत की जरूरत है। इसलिए हम अमेरिका से ज्यादा से ज्यादा मोलतोल कर सकते हैं। वैसे, सरकार कह भी रही है कि उससे अमेरिका से जितना ज्यादा संभव हो सकता है, उतना हासिल किया है। लेकिन
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इसका आगाज़ ही खराब हुआ था जब इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी की बैठक में भारत ने अमेरिकी दबाव में आकर ईरान के खिलाफ वोट दिया था। फिर ये भी कहा जा रहा है कि जहां चीन के साथ हुई परमाणु संधि में साफ कहा गया है कि संधि को खत्म करने के लिए अमेरिका के राष्ट्रीय कानूनों का सहारा नहीं लिया जाएगा, वहीं भारत-अमेरिकी संधि में इस पर चुप्पी साध रखी गई है। जहां 123 समझौता अमेरिकी संसद से पारित कानून का हिस्सा है, वहीं हमारी सरकार संसद में इस पर किसी भी सूरत में वोटिंग कराने को तैयार नहीं है। जब हमारी संप्रभुता से जुड़े इतने अहम मसले पर संसद वोट नहीं दे सकती तो क्या यह लोकतंत्र की इस सर्वोच्च संस्था की प्रासंगिकता पर ही सवालिया निशान नहीं है?
हमें एक बात और समझ लेनी चाहिए कि भले ही कहा जा रहा हो कि अमेरिका एशिया में चीन पर नकेल लगाने के लिए भारत का इस्तेमाल करना चाहता है। लेकिन अमेरिका अपनी कुछ घरेलू मजबूरियों के चलते चीन के खिलाफ बहुत दूर तक नहीं जा सकता। उसके आर्थिक हित चीन के साथ बड़ी मजबूती से जुड़े हुए हैं। अमेरिका के करीब 900 अरब डॉलर के बांड चीन के पास हैं। खुद अमेरिका के वित्त मंत्री और राष्ट्रपति बुश के करीबी दोस्त हेनरी पॉलसन आज की अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में चीन को सबसे अहम किरदारों में शुमार करते हैं। चीन ने इस साल अप्रैल में जब 5.8 अरब डॉलर के अमेरिकी ट्रेजरी बांड बेच दिए तो हेनरी पॉसलन के माथे पर बल पड़ गए थे। अमेरिका में वॉलमार्ट के जरिए बिकनेवाले 70 फीसदी सामान मेड-इन चाइना हैं। अमेरिका का तकरीबन आधा आयात चीन में अमेरिकी कंपनियों के उत्पादन केंद्रों से आता है। न तो अमेरिका और न ही चीन इन आपसी रिश्तों को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं।
ऐसे में एशिया ही नहीं, फारस की खाड़ी तक में शांति और स्थायित्व बनाए रखने के लिए शक्तिशाली भारत की ज़रूरत है। दो अरब से ज्यादा बाशिंदों वाले इस भूभाग में एक मजबूत लोकतांत्रिक केंद्र चाहिए ताकि धार्मिक कट्टरता से लेकर चीन तक को बेलगाम होने से रोका जा सके। ये काम अमेरिका की मदद से नहीं किया जा सकता क्योंकि अमेरिका का अतीत दागदार है। उसने इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और ईरान में धार्मिक कट्टरता को ही बढ़ावा दिया है।...समाप्त
Comments
१) चूँकि चीन के पास गोट दबी है.. इसीलिए उसके नकेल डालना ज़रूरी है..
२) कूटनीति के मामलों में आप नैतिकता से काम नहीं ले सकते.. 'अमरीका बुरा है इसलिए हम उसके साथ हाथ नहीं मिलाएंगे'..ये कोई बात न होगी.. अच्छा कौन है.. चीन क्या दोस्त है हमारा.. या ईरान.. ? कूटनीति के मामले को कूटनीतिक दृष्टि से ही परखना होगा..
फिर भी ये न समझा जाय कि मैं इस समझौते की वकालत कर रहा हूँ.. मगर इस के विरोध का अभी तक सही तर्क भी नहीं खोज पाया हूँ..
अभय
ASHOK CHAUDHARY,www.bagi-bhadesh.blogspot.com