Saturday 25 August, 2007

सुब्बण्णा, संगीत और मुक्ति

हमारे शास्त्रीय संगीत और आध्यात्मिक मुक्ति में बड़ा गहरा नाता है। संगीत के स्वर नाड़ी तंत्र में ऐसा अनुनाद पैदा करते हैं कि आपको लगता है अंदर के तनाव और हर दुखती रग पर किसी ने प्यार से मरहम लगा दिया हो। संगीत और मुक्ति के इसी जीवंत रिश्ते को स्थापित करता है ज्ञानपीठ से सम्मानित जानेमाने कन्नड़ कथाकार मास्ति वेंकटेश अय्यंगार का लघु उपन्यास सुब्बण्णा। सुब्बण्णा का छोटा-सा अंतिम अध्याय...

मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं है कि यदि मुक्ति कोई चीज़ है तो वह सुब्बण्णा ने अवश्य प्राप्त की होगी। मैंने एक बार पूछा था, “सुब्बण्णा जी, संगीत में सात स्वरों का प्रयोग क्यों होता है?”
वे बोले थे, “यदि हम सात समझें तो सात हैं वैसे देखें तो सौ, करोड़ों स्वर हो सकते है, नहीं तो एक ही।” जब वे बेला बजाते थे तो उनकी यह बात कुछ समझ में आती थी।
और एक बार मैंने पूछा था, “सुब्बण्णा जी, अद्वैत अच्छा है या द्वैत?” तब उन्होंने कहा था, “मेरी स्थिति से देखें तो अद्वैत ठीक लगता है। पर उनकी स्थिति से देखें तो द्वैत ठीक लगता है।” मैं चुप हो गया। उनकी बातचीत का ढंग ही कुछ वैसा था। मैं जानता था कि आदरसूचक ‘उनके’ शब्द का प्रयोग वे किसके लिए करते थे।
कुछ देर बाद वे बोले, “देखिए मरते समय उन्होंने कहा था, इतने दिनों तक मैंने आपकी छाया में गौरी-पूजा की। अब वही मुझे अपने पास बुला रही हैं। आपको अकेले छोड़ते दुख होता है। अपने पेट के बच्चे ही नहीं रहे तो क्या होगा? कर्म पूरा होते ही आप भी वहां आएंगे। दोनों वहीं रहेंगे। दोनों मिलकर देवी की सेवा में लग जाएंगे। उनका विश्वास और उनके जीवन को देखें तो द्वैत ही ठीक लगता है। मेरे जीवन को देखें तो लगता है कि यह खेल जितना जल्दी समाप्त हो जाए उतना ही अच्छा है। इसके बाद अद्वैत बनकर रह जाएंगे।”
और एक बार मैंने पूछा, “सुब्बण्णा जी, शिव बड़ा है या विष्णु?”
सुब्बण्णा जी ने कुछ भी नहीं कहा। मैंने सोचा कि उन्होंने मेरी बात की ओर ध्यान नहीं दिया। कोई पौन घंटे के बाद उन्होंने बेला लेकर एक घंटे तक आनंदविभोर होकर राग शंकराभरण बजाया। पिछले दिनों ऐसा ही राग भैरवी भी बजाया था। उनका शंकराभरण सुनकर मैं अपनी बात भूल गया था। मैं बोला, “कैसा सुंदर आलाप है? कितना मधुर है?” उन्होंने पूछा, “कल की भैरवी कैसी थी?” मैं बोला, “वह भी इतनी ही अच्छी थी।” वे बोले, “भैरवी अच्छी थी या शंकराभरण?” वह मेरे प्रश्न का उत्तर था।
सुब्बण्णा को गायन के द्वारा ही सब मालूम हो गया था। ऐसा ज्ञान! ऐसी साधना! इस ज्ञान और इस साधना के बाद जो स्थिति होगी वह मुक्ति के अतिरिक्त और क्या हो सकती है?
(इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद भारतीय ज्ञानपीठ ने सुब्बण्णा शीर्षक से छापा है। बहुत ही प्यारा अनुवाद है)

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