लफ्ज़ पाश के, आत्मा हमारी
मेरे कुछ शुभचिंतकों ने कहा है कि मीडिया पर लिखते हुए मैं कुछ ज्यादा ही लिख गया। कइयों ने फोन करके कहा कि थोड़ा छद्म ज़रूरी है, सच में थोड़े झूठ की चासनी लगानी ज़रूरी है। इस पर मुझे पाश की प्रतिबद्धता शीर्षक वाली कविता याद आ गई कि हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते। मैं साफ कर दूं कि मुझे हर छद्म से नफरत है, झूठे साहित्यकारों से नफरत है, नपुंसक बुद्धिजीवियों से नफरत है। अगर मैंने अपने नाम में थोड़ा छद्म रखा है तो बस इसलिए ताकि मैं अपने जैसे औरों की भी अभिव्यक्ति का ज़रिया बन सकूं। तो, आज मैं पाश की इस कविता के माध्यम से अपने लिखने का मकसद घोषित कर रहा हूं। मुलाहिज़ा फरमाइये...
हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
जिस तरह हमारी मांसपेशियों में मछलियां हैं
जिस तरह बैलों की पीठों पर उभरे चाबुकों के निशान हैं
जिस तरह कर्ज के कागज़ों में हमारा सहमा और सिकुड़ा भविष्य है
हम ज़िंदगी, बराबरी या कुछ भी और
इसी तरह सचमुच का चाहते हैं
जिस तरह सूरज, हवा और बादल घरों और खेतों में हमारे अंग-संग रहते हैं
हम उसी तरह हुकूमतों, विश्वासों और खुशियों को अपने साथ-साथ देखना चाहते हैं
...हम सब कुछ सचमुच का देखना चाहते हैं
हम उस तरह का कुछ भी नहीं चाहते
जैसे शराब के मुकदमे में किसी टाऊट की गवाही होती है
जैसे पटवारी का ‘ईमान’ होता है या जैसे किसी आढ़ती की कसम होती है
हम चाहते हैं अपनी हथेली पर कोई इस तरह का सच
जैसे गुड़ की पत्त में ‘कण’ होता है
जैसे हुक्के में ‘निकोटीन’ होती है
जैसे मिलन के समय महबूब के होठों पर मलाई जैसी कोई चीज़ होती है
हम नहीं चाहते पुलिस की लाठियों पर टंगी किताबों को पढ़ना
हम नहीं चाहते फौजी बूटों की टाप पर हुनर का गीत गाना
हम तो वृक्षों पर खनकते संगीत को
अरमान भरे पोरों से छूकर देखना चाहते हैं
आंसूगैस के धुएं में नमक चाटना
या अपनी ही जीभ पर अपने ही लहू का स्वाद चखना
किसी के लिए भी मनोरंजन नहीं हो सकता
लेकिन, हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
और हम सब कुछ सचमुच का देखना चाहते हैं
ज़िंदगी, समाजवाद या कुछ भी और...
हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
जिस तरह हमारी मांसपेशियों में मछलियां हैं
जिस तरह बैलों की पीठों पर उभरे चाबुकों के निशान हैं
जिस तरह कर्ज के कागज़ों में हमारा सहमा और सिकुड़ा भविष्य है
हम ज़िंदगी, बराबरी या कुछ भी और
इसी तरह सचमुच का चाहते हैं
जिस तरह सूरज, हवा और बादल घरों और खेतों में हमारे अंग-संग रहते हैं
हम उसी तरह हुकूमतों, विश्वासों और खुशियों को अपने साथ-साथ देखना चाहते हैं
...हम सब कुछ सचमुच का देखना चाहते हैं
हम उस तरह का कुछ भी नहीं चाहते
जैसे शराब के मुकदमे में किसी टाऊट की गवाही होती है
जैसे पटवारी का ‘ईमान’ होता है या जैसे किसी आढ़ती की कसम होती है
हम चाहते हैं अपनी हथेली पर कोई इस तरह का सच
जैसे गुड़ की पत्त में ‘कण’ होता है
जैसे हुक्के में ‘निकोटीन’ होती है
जैसे मिलन के समय महबूब के होठों पर मलाई जैसी कोई चीज़ होती है
हम नहीं चाहते पुलिस की लाठियों पर टंगी किताबों को पढ़ना
हम नहीं चाहते फौजी बूटों की टाप पर हुनर का गीत गाना
हम तो वृक्षों पर खनकते संगीत को
अरमान भरे पोरों से छूकर देखना चाहते हैं
आंसूगैस के धुएं में नमक चाटना
या अपनी ही जीभ पर अपने ही लहू का स्वाद चखना
किसी के लिए भी मनोरंजन नहीं हो सकता
लेकिन, हम झूठ-मूठ का कुछ भी नहीं चाहते
और हम सब कुछ सचमुच का देखना चाहते हैं
ज़िंदगी, समाजवाद या कुछ भी और...
Comments
इसी तरह सचमुच का चाहते हैं"
मैं आप का अनुमोदन करता हूं -- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
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