Friday 17 August, 2007

किन बूड़ा किन पाइयां गहरा गोता खाय?

भारतीय शेयर बाज़ार को कोई भंवर नीचे ही नीचे खींचे लिये जा रही है। इसी 24 जुलाई को शेयरों की कीमत को दर्शानेवाला सेनसेक्स 15,869 के शिखर पर था। लेकिन तीन दिन बाद 27 जुलाई से बाज़ार के गिरने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह थमने का नाम नहीं ले रहा। कल मुंबई स्टॉक एक्सचेंज की तीस कंपनियों पर आधारित ये सूचकांक 14,358 पर बंद हुआ था। आज ट्रेडिंग शुरू हुई तो दोपहर 12.15 बजे के आसपास ये 578 अंक और गिरकर 13,780 तक आ गया। बाजार बाद में संभल कर 14,141 अंक पर बंद हुआ, फिर भी आज की गिरावट 216 अंकों की रही। इस तरह बीस दिनों में हुई करीब 2000 अंकों की गिरावट से शेयर बाज़ार में लगी दस फीसदी से ज्यादा पूंजी स्वाहा हो गई है।
बाज़ार में मचे इस हाहाकार की कोई देसी वजह नहीं है। आज ही आंकड़े आए हैं कि बाज़ार और आम उपभोक्ता को परेशान करनेवाली महंगाई की दर 4.45 फीसदी से घटकर 4.05 फीसदी पर आ गई जो बाज़ार की उम्मीद 4.30 फीसदी से भी कम है। इस आधार पर शेयर बाज़ार को चहकना चाहिए था। लेकिन वह तो डूबा ही जा रहा है। इसकी दो खास वजहें हैं और दोनों ही विदेशी हैं। एक, अमेरिका के होमलोन बाज़ार के एक हिस्से में बढ़ता डिफॉल्ट और दो, अमेरिकी डॉलर के सापेक्ष जापानी येन का महंगा होना।
अमेरिकी होमलोन का सालाना बाज़ार करीब 3000 अरब डॉलर का है। इसका 20 फीसदी हिस्सा यानी 600 अरब डॉलर का कारोबार सब-प्राइम कारोबार का है। यही सब-प्राइम कारोबार आज पूरी दुनिया में शेयर बाज़ारों के गिरने का अहम कारण बन गया है। असल में बहुत सारे अमेरिकी ऐसे हैं, जिन्हें अच्छी और स्थाई कमाई नहीं होती। उन्हें होमलोन देने में काफी रिस्क रहता है। अमेरिकी बैंक और होमलोन कंपनियां ऐसे लोगों को बाजार या प्राइम रेट से ज्यादा रेट पर लोन देती हैं। इसे ही सब-प्राइम लोन कहा जाता है। साल 2003 में अमेरिका के हाउसिंग सेक्टर में बूम के हालात थे। सब-प्राइम लोन लेनेवालों की तादाद तेज़ी से बढ़ गई। लेकिन 2004 से 2006 के दौरान अमेरिका में ब्याज दरें काफी बढ़ गईं। अब सब-प्राइम लोन लेनेवालों के लिए ईएमआई चुकाना मुश्किल हो गया। वो डिफॉल्टर होने लगे। फिर हाउसिंग सेक्टर का बूम ज़मीन पर आ गिरा।
डिफॉल्टरों से वापस लिये गए मकानों की कीमत गिर गई। यही दुष्चक्र आज अमेरिका में बैंकों और वित्तीय सस्थाओं के लिए संकट का कारण बन गया है। इनका पैसा विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) के जरिए भारत जैसे बाज़ारों में लगा हुआ है। एफआईआई बाज़ार में शेयर बेचकर पैसे निकाल रहे हैं और इस दबाव में बाज़ार गिरता जा रहा है। इसके ऊपर से जब डॉलर के सापेक्ष येन एक साल के सबसे महंगे स्तर पर पहुंच गया तो उन एफआईआई को तगड़ा झटका लगा, जिनके पुराने येन भंडार से अब कम डॉलर मिलने लगे।
ज़ाहिर-सी बात है कि अगर एफआईआई भारतीय शेयर बाज़ार में सक्रिय न होते तो सेनसेक्स में इतनी तगड़ी गिरावट नहीं आती। भारतीय निवेशकों की साढ़े तीन लाख करोड़ रुपए से ज्यादा की रकम यूं चुटकी बजाते नहीं उड़ जाती। ये कोई मामूली पूंजी नहीं है क्योंकि पूरे देश का इस साल का बजट कुल 6.80 लाख करोड़ रुपए का है और इसके आधे हिस्से से ज्यादा रकम शेयर बाज़ार के गोता खाने से गायब हुई है।
लेकिन जब भारत ने अपने बाज़ार खोलकर ओखली में सिर दे ही दिया है तो मूसल तो पड़ने ही हैं। हम आपको बता दें कि 2003-04 से ही भारत एफआईआई की नज़रों में चढ़ने लगा। उस साल भारतीय शेयर बाज़ार में उनका निवेश एकाएक 17 गुना बढ़ गया। लेकिन इनकी पूंजी का चरित्र ही चंचला है। इसका मकसद पैसे लगाकर सिर्फ और सिर्फ मुनाफा कमाना है। ये आती है और जाती है। इस समय देश में 1042 एफआईआई काम कर रहे हैं। भारतीय शेयरों में इन्होंने अब तक कुल सवा दो लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का निवेश कर रखा है। जाहिर है, इनकी एक उंगली भारतीय शेयर बाज़ार को जब चाहे तब अपने इशारे पर नचा सकती है। कितनी अजीब बात है। पंद्रह साल पहले हमारे शेयर बाज़ार में एक हर्षद मेहता था। अब एक हज़ार से ज़्यादा हर्षद मेहता (एफआईआई) काम रहे हैं और सरकार उनको बराबर खुला आमंत्रण दिए जा रही है।

2 comments:

Srijan Shilpi said...

यह खतरा तो बना रहेगा। लेकिन अभी असली खतरा तो आया ही नहीं है। अमेरिकी रीयल इस्टेट के बाजार और होम लोन फाइनेंस वाली कंपनियों का जो हश्र आज हो रहा है, आने वाले समय में भारतीय रीयल इस्टेट के बाजार और होम लोन फाइनेंस कंपनियों का भी होना तय है।

पिछले दो-तीन वर्षों में रीयल इस्टेट की कीमतें लोगों की आमदनी में बढ़ोतरी की तुलना में कई गुना बढ़ गई हैं। इनमें बेहिसाब विदेशी पैसा और काला धन लगा हुआ है। इस बबल का एक दिन फटना तय है, फिर बाजार का क्या होगा, इसका अभी अंदाज ही लगाया जा सकता है। आमदनी के अनुपात में अत्यधिक ईएमआई की दरों के कारण भारत में भी लोन रिपेमेंट डिफॉल्टरों की संख्या बढ़ना तय है। इसके चतुर्दिक दुष्परिणाम होने की आशंका है।

आने वाले वर्षों में खाते-पीते घरों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति इतनी सहज हो जाएंगी कि मीडिया के लिए उसमें कोई ख़बर नज़र नहीं आएगा।

Sanjay Tiwari said...

इस लेख में जानकारी बहुत अच्छी और विश्लेषण बहुत सटीक है.
लेकिन अनिल जी समझ में नहीं आता पूंजी आती कहां है? और बाजार गिरता है तो पूंजी जाती कहां है? शेयर बाजार की पूंजी का वास्तविक अर्थव्यवस्था से कितना लेना-देना होता है इसे मैं ठीक से नहीं समझता हूं. मुझे लगता है यह आभासीय अर्थव्यवस्था है. इसका भंडाफोड़ बहुत जरूरी है. नहीं तो सृजनशिल्पी का यह बात सही साबित होते देर नहीं लगेगी कि आत्महत्या की प्रवृत्ति इतनी सहज हो जाएगी कि वह कोई खबर भी नहीं बनेगी.
क्या शेयर बाजार के छद्म खेल पर आप कुछ लिखेंगे.