Thursday 9 August, 2007

जब मिट जाता है चीन और भारत का फर्क

चीन में माओ के अनुयायियों ने यह खुला पत्र चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमिटी और सरकार को भेजा है। ज़रा इसके चुनिंदा अंशों पर गौर फरमाइये। आपको लगेगा, जैसे ये बातें चीन के बारे में नहीं, भारत के बारे में कही जा रही हों। इसे पढ़ने के बाद आपको जॉर्ज ऑरवेल की मशहूर किताब एनीमल फार्म का आखिरी सीन ज़रूर याद आ जाएगा, जिसमें शराब पीते हुए सूअरों और इंसानों के चेहरों में कोई फर्क नहीं रह गया था।
आम लोग जायदाद के ज्यादातर अधिकारों से वंचित हैं और वो निजी मालिकों की अमानत बन गए हैं। प्राइवेट सेक्टर, वर्कशॉप, खदानों और दुकानों में जो मजदूर काम करते हैं, उनमें से बहुतों को तो वेतन तक नहीं मिलता। इन जगहों पर बाल मजदूरों तक से काम लिया जाता है। हम हर साल पोर्नोग्राफी और अवैध प्रकाशनों को खत्म करते हैं, लेकिन ये भी हकीकत है कि लाखों महिलाएं अब भी वेश्यावृत्ति की दलदल में फंसी हुई हैं। क्या सचमुच हमारे पास इन समस्याओं का कोई हल नहीं है? क्या सब कुछ ऐसे ही चलने दिया जा सकता है?
हमारे यहां अब भी बहुत सारे बड़े और मध्यम आकार के सरकारी उद्योग है, जिनका प्रबंधन अच्छी तरह से हो सकता है। इस बात की कोई वजह नहीं है कि हम इन्हें विदशी कंपनियों के हाथों नीलाम कर दें ताकि वो हमारे घरेलू बाज़ार को अपनी गिरफ्त में ले लें और हमारी राष्ट्रीय संपदा का दोहन करने लगें। मीडिया में अभी हाल ही में इस तरह की खबरें आई हैं कि देश के सैनिक उद्यमों को विदेशी पूंजी के लिए खोला जा रहा है। इसका क्या मतलब है? कहीं एक दिन ऐसा न आ जाए कि ये विदेशी कंपनियां हमारी खुफिया जानकारियां हासिल करके हमारे पूरे प्रतिरक्षा तंत्र को कमज़ोर कर दें।
हमारे बहुत से प्रादेशिक, स्थानीय और गांवों के नेता ऐसे हैं जिनको राष्ट्रीय संपदा की कोई खास परवाह नहीं है और वो इसे औने-पौने दाम पर बेचे जाने के खिलाफ कुछ भी नहीं करेंगे। आप ही बताइये कि निजी क्षेत्र, संयुक्त उद्यमों और पूरी तरह विदेशी स्वामित्व वाले उद्यमों की तुलना में हमारे सरकारी उद्यमों का कितना योगदान देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में है? क्या हमारे बुनियादी आर्थिक संस्थान वक्त की मांग पर खरा उतर पाएंगे?
आज हालत ये है कि मजदूर और किसान मालिक होने की हैसियत गवां चुके हैं। मजदूरों की या तो आंशिक तौर पर छंटनी की जा चुकी है या उन्हें मामूली मुआवज़ा देकर बेरोज़गार बना दिया गया है। ग्रामीण इलाकों में फार्मरों और धनी किसानों का शोषण 1950 के दशक की तरह फिर से शुरू हो गया है। आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया में भ्रष्टाचार ऊपर से चलकर नीचे तक पहुंचता जा रहा है। पार्टी के कार्यकर्ता भ्रष्ट हो रहे हैं, मातृभूमि और अवाम के साथ गद्दारी की जा रही है। जब भी इस तरह के मुद्दे उठाए जाते हैं तो उन्हें मामूली बताकर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। कोई भी बड़ा नेता अपनी करतूतों के लिए जवाबदेह नहीं ठहराया जाता, दंड देने की बात तो दूर रही। गिनेचुने मामले हैं जिनमें दोषी अधिकारियों को सज़ा दी गई है।
समस्याएं और चिंताएं अनगिनत हैं। शेयर बाज़ार का बुलबुले की तरह फूलना और फूटना, महंगाई, मजदूरों के पुर्नवास के बिना फैक्ट्रियों को बंद कर देना और रीयल एस्टेट में सट्टेबाज़ी इनमें से चंद समस्याएं हैं, जिन पर फौरन ध्यान देने की ज़रूरत है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमने ऐसी राह पकड़ ली है जो हमें अपनी मंज़िल के बजाय कहीं और पहुंचा देगी?

2 comments:

azdak said...

कहां अन्‍त है इन ख़ुराफातों का, भइया? कहां है.. कहां, कहां?

अनिल रघुराज said...

असल में मेरे लिखने का मतलब ये है कि हर जगह बेहतरी के लिए हर वक्त संघर्ष चलता रहता है। भारत की अपनी स्थिति है, चीन की अपनी। चीन की वाह-वाह या आलोचना दोनों ही गलत हैं। दूर के ढोल सुहाने लगते हैं, ये मुहावरा हमें याद रखना चाहिए।