Thursday 20 September, 2007

ट्रस्ट हैं तो स्विस खातों की क्या जरूरत?

क्या आपको पता है कि देश में धर्म, शिक्षा, कल्याण, खेल-कूद जैसे तमाम कामों के लिए बने सार्वजनिक ट्रस्ट जिस कानून से संचालित होते हैं, वह कानून कब का है? इंडियन ट्रस्ट एक्ट नाम के इस कानून को अंग्रेजों ने 1882 में बनाया था और वही अब भी लागू है। आज़ाद भारत के हमारे कानून-निर्माताओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि इस एक्ट की धारा 20-एफ में ट्रस्टों के निवेश के संदर्भ में आज भी ब्रिटेन के शाही परिवार, उस समय के गवर्नर जनरल और रंगून और कराची जैसे शहरों के स्थानीय निकायों की तरफ से जारी प्रतिभूतियों का उल्लेख किया गया है। लेकिन केंद्र सरकार अब इस कानून में आमूलचूल बदलाव लाने पर विचार कर रही है। औपनिवेशिक दासता की उसकी खुमारी क्यों टूटी, इसकी वजह बड़ी दिलचस्प है।
पिछले कुछ सालों से देश में हाई नेटवर्थ वाले व्यक्तियों (एचएनआई) की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। साल 2003 के अंत तक देश में 61,000 एचएनआई थे। साल 2006 में ही ये संख्या 20.5 फीसदी बढ़कर एक लाख तक जा पहुंची और अभी इसमें 15-20 फीसदी की गति से वृद्धि हो रही है। एचएनआई का मतलब उस व्यक्ति से है जिसके पास 10 लाख डॉलर यानी 4 करोड़ रुपए से ज्यादा की संपत्ति है। देश की एचएनआई आबादी में कंपनियों के मालिकों से लेकर उनकी औलादें और बड़े अधिकारी शामिल हैं। अब तो पत्रकार भी इस श्रेणी में आ गए हैं। बताते हैं कि आजतक से त्रिवेणी ग्रुप के न्यूज चैनल में गए एक पत्रकार बाबूसाहब को 2-3 करोड़ रुपए का सालाना पैकेज दिया गया है।
देश के इन लाख-डेढ़ लाख एचएनआई के साथ समस्या यह है कि वे अपने पैसों को कहां लगाएं जिससे टैक्स बचे, रकम बढ़ती रहे और उनके न रहने पर यह रकम बगैर किसी कानूनी पचड़े में पड़े आसानी से उनके वारिसों तक पहुंच जाए। सारी दुनिया में इस मकसद के लिए आजमाया हुआ तरीका है ट्रस्टों का। तो...60 साल बाद टूट गई आज़ाद भारत की हमारी सरकार की औपनिवेशिक दासता वाली खुमारी।
ट्रस्ट तो हमारे यहां पहले से ही शायद लाखों की तादाद में होंगे। लेकिन धार्मिक और शिक्षा से जुड़े ट्रस्टों के पास अकूत पैसा है। भक्तों के दान पर सिद्धि विनायक से लेकर तिरुमति मंदिर के ट्रस्ट अरबों में खेलते हैं। तकरीबन हर कॉरपोरेट घराने और बड़ी कंपनी ने भी कोई न कोई ट्रस्ट खोल रखा है। यहां तक कि बिल गेट्स और उनकी बीवी का ट्रस्ट भी हमारे यहां काम कर रहा है। 125 साल पुराने ट्रस्ट एक्ट में बदलाव इसलिए किया जा रहा है ताकि पुराने ट्रस्ट अपने पैसे से और ज्यादा पैसा बना सकें और नए करोड़पतियों को पैसा लगाने और छिपाने का मौका मिल सके।
और, इनको एक्सपर्ट सेवा मुहैया कराने के लिए डीएसपी मेरिल लिंच, सिटी ग्रुप, वेल्थ एडवाइजर्स प्रा. लिमिटेड जैसी देशी-विदेशी कंपनियों ने नेटवर्क बिछा दिया है। यही नहीं, इनकी निगाह में साल में 10 लाख से ज्यादा कमानेवाले नौकरीपेशा लोग भी हैं क्योंकि इनकी संख्या अभी से 9 लाख के करीब हो चुकी है। सलाहकार संस्था मैकेंजी का अनुमान है कि 2025 तक भारत में ऑस्ट्रेलिया की अभी की पूरी आबादी से ज्यादा, 2.30 करोड़ लोग करोड़पति होंगे।
देशी-विदेशी कंपनियों की कोशिश है कि इन करोड़पतियों का पैसा ‘मानव-कल्याण’ के लिए ट्रस्टों में लगाया जाए। आप जानते ही हैं कि कंपनियां दो आंख नहीं करतीं, इसलिए ये हमारे नेताओं को भी अपनी सेवाएं मुहैया कराएंगी। इसलिए मुझे लगता है कि इंडियन ट्रस्ट एक्ट में माफिक बदलाव हो गया तो नेताओं, भ्रष्ट अधिकारियों और दलालों को स्विस बैंकों में खाता खोलने की जरूरत नहीं रह जाएगी। चलते-चलते आपको बता हूं कि जिस पुलिस एक्ट से आज भी हमारी-आपकी ज़िंदगी संचालित होती है, उसे अंग्रेजों ने 1861 में भारतीय अवाम को टाइट रखने के लिए बनाया था।
खबर का स्रोत : इकोनॉमिक टाइम्स और मिंट

1 comment:

Anonymous said...

आपने बिलकुल सही कहा है. मन्त्रियो को खुद कमाने से ही फ़ुरसत नही मिलती है वह देश के बारे में क्या सोचेगें.

और जो लोग सोचते है उनके पास पावर नही है.

लेकिन अगर आप इस ट्रस्ट को कैसे बनाये इस बारे में लेख लिखे तो हो सकता है कि आपके यहां आने वालो की संख्या बङ जाये.

संजय शर्मा
www.sanjaysharma71.blogspot.com