जब सब कुछ भयावना हो जाता है

ज़िंदगी में बड़ी छोटी-छोटी चीज़ें होती हैं जो उसको मतलब देती हैं। जब तक वो रहती हैं, उनकी अहमियत नहीं समझ में आतीं। लेकिन उनके गायब होते ही सब कुछ सूना हो जाता है। सब कुछ रहता है, बस वो नहीं रहता तो सब कुछ भयावना हो जाता है। हमारे निर्गुण गीतों में यही भाव प्रबल रहता है। प्राण या पिया का अभाव सब कुछ सूना कर जाता है। लेकिन यहां-वहां, हर जगह कुछ न कुछ होता है, कोई न कोई होता है, जिसका अभाव आपको बहुत सालता है। पेश है ऐसा ही निर्गुण, जिसे मैंने काफी पहले सुना था। लिखा किसने है, ये मुझे पक्का नहीं मालूम। एक विवाहित स्त्री अपने मन का हाल सुना रही है...

बाबा मोरे बगिया लगउलें, अमवा महुअवा घन रे बांस
बगिया भयावन लागे इक कोयलरिया बिन हो राम...

बाबा मोरे पोखरा खनउलें, बनउलें चारिउ ओरि हो घाट
पोखरा भयावन लागे इक चिरइनिया* बिन हो राम...

नइहरे में हमरे एक लाख भइया, दुइ लाख भतीजवा बाने हो राम
त नइहर भयावन लागे इक महतरिया बिन हो राम

ससुरे में हमरे एक लाख देवर, दुइ लाख भसुरवा बाने हो राम
त ससुरा भयावन लागे इक ही पुरुषवा^ बिन हो राम...

* कुमुदिनी का फूल ^ पति

Comments

अनिल, इस विधा का सहज काव्य -- भारतीय मनों से बहता हुआ -- लुप्त होता जा रहा है. आपकी जानकारी में जितने हों उनको यदि इस चिट्ठे पर छाप दो तो अच्छा रहेगा -- शास्त्री जे सी फिलिप


हिन्दीजगत की उन्नति के लिये यह जरूरी है कि हम
हिन्दीभाषी लेखक एक दूसरे के प्रतियोगी बनने के
बदले एक दूसरे को प्रोत्साहित करने वाले पूरक बनें
Udan Tashtari said…
नइहरे में हमरे एक लाख भइया, दुइ लाख भतीजवा बाने हो राम
त नइहर भयावन लागे इक महतरिया बिन हो राम

---कितना सच है. भावभीना गीत. न जाने क्यूँ हम छूट जाने के बाद ही पूरी कद्र जान पाते हैं. आभार इस प्रस्तुति के लिये आपका.

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