ज्ञान आत्म-साक्षात्कार का, कर्म आत्म-तिरस्कार का
कितनी अजीब बात है कि जिस भारतीय संस्कृति में हम आत्मज्ञान को सर्वोपरि मानते हैं, उसी भारत की शिक्षा प्रणाली में छात्रों को बचपन से लेकर बड़े होने तक कभी खुद को पहचानने का, अपना मूल्य आंकने का मौका नहीं दिया जाता। बच्चा अगड़म-बगड़म किताबें पढ़कर पास-फेल होने के तनाव में घुटता और जीता-मरता रहता है। हर साल परीक्षाओं की बाधा-दौड़। पास हो गए तो नंबरों का चक्कर। अच्छे नंबर भी आ गए तो टॉपर लिस्ट में आने का चौतरफा दबाव।
ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन तक पहुंचते-पहुंचते तो बच्चा भूल ही जाता है कि वह असल में क्या है, उसकी असली ताकत क्या हैं। उसके नंबर और उसके ग्रेड ही उसकी पहचान बन जाते हैं। आत्म-साक्षात्कार की जगह बच्चा आत्म-तिरस्कार का शिकार हो जाता है। अपने को पहचानने के बजाय वह खुद को नकारने का आदी हो जाता है।
पढ़े-लिखे मां-बाप ज़रूर अब बच्चे की कमियां-खूबियां देखकर उसके करियर की राह तय करने की कोशिश करने लगे हैं। लेकिन शिक्षा तंत्र की बागडोर संभालने वाले लोग सोच तो बहुत रहे हैं और आज से नहीं, सालोंसाल से सोच रहे हैं, पर अमल की रफ्तार इतनी धीमी है कि कभी कुछ बदलने का भरोसा ही नहीं होता। परीक्षाओं का लफड़ा खत्म हो जाए, पास-फेल होने का चक्कर खत्म हो जाए, नंबरों की होड़ खत्म हो जाए। ऐसे तमाम सुझाव आ चुके हैं और कुछ नए भी आते जा रहे हैं।
ताज़ा सुझाव यह है कि दसवीं और बारहवीं के बोर्ड की परीक्षाओं में बच्चों को ऑन-लाइन टेस्ट देने की सुविधा दी जाए और ऐसा हो कि टेस्ट की तारीख बच्चा खुद अपनी तैयारी और सहूलियत के हिसाब से तय करे। बस यह तारीख अगले सत्र की शुरुआत से पहले होनी चाहिए। कोशिश यही रहेगी कि टेस्ट के नतीजे भी तुरंत-तुरंत दे दिए जाएं। बच्चों पर परीक्षा के तनाव को कम करने का ये सुझाव एनसीईआरटी की तरफ से आया है और शिक्षा मंत्रालय के अधिकारी इस मसले पर सीबीएसई, केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय और विभिन्न राज्यों के शिक्षा बोर्डों के प्रतिनिधियों के साथ दिसंबर से पहले होनेवाली सालाना बैठक में राय-मशविरा करेंगे।
वैसे परीक्षाओं को खत्म करने का सुझाव मैगसेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडे भी कैब (सेंट्रल एडवाइजरी बोर्ड ऑन एजुकेशन) के सदस्य होने के नाते सरकार को दे चुके हैं। उनकी राय में परीक्षाएं एक नौकरशाहाना प्रक्रिया का हिस्सा हैं। छात्र अगर फेल होता है तो जिम्मेदारी उसे पढ़ानेवाले अध्यापक पर डाली जानी चाहिए, न कि छात्र पर। संदीप पांडे ने आईआईटी, कानपुर में पढ़ाने के दौरान इस तरह का दिलचस्प प्रयोग भी किया था।
ये सच है कि शिक्षा का मकसद विद्यार्थी में दुनिया और समाज के ज्ञान के साथ ही अपना मूल्य समझने की सामर्थ्य पैदा करना होना चाहिए ताकि वह औरों के साथ खुद के प्रति भी संवेदनशील हो सके। और इसे परीक्षा में पास-फेल होने से नहीं आंका जा सकता। लेकिन सारा कुछ शून्य में भी नहीं हो सकता। हमें ये भी सोचना पड़ेगा कि जिन विकसित देशों ने उदारता बरतते हुए ग्रेड और परीक्षाओं का चक्कर खत्म कर दिया है, वहां की ‘प्रतिभाओं’ की क्या स्थिति है। जैसे, दो साल पहले जारी की गई ब्रिटिश सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ब्रिटेन में कामकाजी उम्र के एक तिहाई से ज्यादा वयस्क स्कूली शिक्षा पूरी कर चुके विद्यार्थी जितनी भी योग्यता नहीं रखते, आधे वयस्कों को ठीक से गुणा-भाग नहीं आता और हर छह में एक वयस्क की शैक्षणिक काबिलियत उतनी है जितनी 11 साल के बच्चे की होनी चाहिए।
ज़ाहिर है, शिक्षा का मसला बहुत आसान नहीं है। दो अतियां हैं और दोनों के अपने-अपने फायदे और नुकसान हैं। भारत के मौजूदा हालात, परंपरा और नई चुनौतियों के मद्देनज़र ही कुछ किया जा सकता है। लेकिन जो भी किया जाए, जल्दी किया जाए। अनंत समय तक आधे-अधूरे प्रयोग नहीं किए जा सकते।
ग्रेजुएशन, पोस्ट ग्रेजुएशन तक पहुंचते-पहुंचते तो बच्चा भूल ही जाता है कि वह असल में क्या है, उसकी असली ताकत क्या हैं। उसके नंबर और उसके ग्रेड ही उसकी पहचान बन जाते हैं। आत्म-साक्षात्कार की जगह बच्चा आत्म-तिरस्कार का शिकार हो जाता है। अपने को पहचानने के बजाय वह खुद को नकारने का आदी हो जाता है।
पढ़े-लिखे मां-बाप ज़रूर अब बच्चे की कमियां-खूबियां देखकर उसके करियर की राह तय करने की कोशिश करने लगे हैं। लेकिन शिक्षा तंत्र की बागडोर संभालने वाले लोग सोच तो बहुत रहे हैं और आज से नहीं, सालोंसाल से सोच रहे हैं, पर अमल की रफ्तार इतनी धीमी है कि कभी कुछ बदलने का भरोसा ही नहीं होता। परीक्षाओं का लफड़ा खत्म हो जाए, पास-फेल होने का चक्कर खत्म हो जाए, नंबरों की होड़ खत्म हो जाए। ऐसे तमाम सुझाव आ चुके हैं और कुछ नए भी आते जा रहे हैं।
ताज़ा सुझाव यह है कि दसवीं और बारहवीं के बोर्ड की परीक्षाओं में बच्चों को ऑन-लाइन टेस्ट देने की सुविधा दी जाए और ऐसा हो कि टेस्ट की तारीख बच्चा खुद अपनी तैयारी और सहूलियत के हिसाब से तय करे। बस यह तारीख अगले सत्र की शुरुआत से पहले होनी चाहिए। कोशिश यही रहेगी कि टेस्ट के नतीजे भी तुरंत-तुरंत दे दिए जाएं। बच्चों पर परीक्षा के तनाव को कम करने का ये सुझाव एनसीईआरटी की तरफ से आया है और शिक्षा मंत्रालय के अधिकारी इस मसले पर सीबीएसई, केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय और विभिन्न राज्यों के शिक्षा बोर्डों के प्रतिनिधियों के साथ दिसंबर से पहले होनेवाली सालाना बैठक में राय-मशविरा करेंगे।
वैसे परीक्षाओं को खत्म करने का सुझाव मैगसेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडे भी कैब (सेंट्रल एडवाइजरी बोर्ड ऑन एजुकेशन) के सदस्य होने के नाते सरकार को दे चुके हैं। उनकी राय में परीक्षाएं एक नौकरशाहाना प्रक्रिया का हिस्सा हैं। छात्र अगर फेल होता है तो जिम्मेदारी उसे पढ़ानेवाले अध्यापक पर डाली जानी चाहिए, न कि छात्र पर। संदीप पांडे ने आईआईटी, कानपुर में पढ़ाने के दौरान इस तरह का दिलचस्प प्रयोग भी किया था।
ये सच है कि शिक्षा का मकसद विद्यार्थी में दुनिया और समाज के ज्ञान के साथ ही अपना मूल्य समझने की सामर्थ्य पैदा करना होना चाहिए ताकि वह औरों के साथ खुद के प्रति भी संवेदनशील हो सके। और इसे परीक्षा में पास-फेल होने से नहीं आंका जा सकता। लेकिन सारा कुछ शून्य में भी नहीं हो सकता। हमें ये भी सोचना पड़ेगा कि जिन विकसित देशों ने उदारता बरतते हुए ग्रेड और परीक्षाओं का चक्कर खत्म कर दिया है, वहां की ‘प्रतिभाओं’ की क्या स्थिति है। जैसे, दो साल पहले जारी की गई ब्रिटिश सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ब्रिटेन में कामकाजी उम्र के एक तिहाई से ज्यादा वयस्क स्कूली शिक्षा पूरी कर चुके विद्यार्थी जितनी भी योग्यता नहीं रखते, आधे वयस्कों को ठीक से गुणा-भाग नहीं आता और हर छह में एक वयस्क की शैक्षणिक काबिलियत उतनी है जितनी 11 साल के बच्चे की होनी चाहिए।
ज़ाहिर है, शिक्षा का मसला बहुत आसान नहीं है। दो अतियां हैं और दोनों के अपने-अपने फायदे और नुकसान हैं। भारत के मौजूदा हालात, परंपरा और नई चुनौतियों के मद्देनज़र ही कुछ किया जा सकता है। लेकिन जो भी किया जाए, जल्दी किया जाए। अनंत समय तक आधे-अधूरे प्रयोग नहीं किए जा सकते।
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