Sunday 30 September, 2007

मौत की लंबी खुमारी

सुबह से ही आकाश की हालत खराब है। नींद पर नींद आए जा रही है। उठ रहा है, सो रहा है। रात दस बजे का सोया सुबह नौ बजे उठा। लेकिन ग्यारह घंटे की पूरी नींद के बावजूद उठने के पंद्रह मिनट बाद फिर सो गया। इसके बाद उठा करीब सवा ग्यारह बजे। लेकिन मुंह-हाथ धोने और नहाने के बाद भी उसे नींद के झोंके आते रहे। बस चाय पी और सो गया। दो बजे उठकर खाना खाया और फिर सो गया। आकाश को समझ में नहीं आ रहा था कि यह हफ्ते भर लगातार बारह-बारह, चौदह-चौदह घंटे काम करने का नतीजा है या मौत की उस लंबी खुमारी का जो एक अरसे से उस पर सवार थी।
मौत की खुमारी बड़ी खतरनाक होती है, आपको संज्ञा-शून्य कर देती है। इसमें डूबे हुए शख्स को मौत की नींद कब धर दबोचेगी, उसे पता ही नहीं चलता। आखिर खुमारी और नींद में फासला ही कितना होता है। कब आप झीने से परदे के उस पार पहुंच गए, पता ही नहीं चलता। आकाश की ये खुमारी कब से शुरू हुई, खुमारी के चलते उसे कुछ भी याद नहीं। याददाश्त भी बहुत मद्धिम पड़ गई है। लेकिन लगता है कि इसकी शुरुआत साल 1982 की गरमियों में उस दिन से हफ्ता-दस दिन पहले हुई थी, जब उसने कुछ लाइनें एक कागज पर लिखी थीं। वह कागज तो पत्ते की तरह डाल से टूटकर छिटक चुका है और समय की हवा उसे उड़ा ले गयी है। लेकिन आकाश के जेहन में एक धुंधली-सी याद जरूर बची है कि उसने क्या लिखा था। शायद कुछ ऐसा कि...
कल मैंने सुन ली सधे कदमों से
चुपके से पास आई मौत की आहट
रुई के फाहों से थपकियां दे रही थी वो
संगीत के मद्धिम सुरों के बीच प्यारा-सा गीत गुनगुना रही थी वो
एक अमिट अहसास देकर चली गई वो
मुझे पूरी तसल्ली से बता गई वो कि...
एक दिन कोहरे से घिरी झील की लंबी शांत सतह से
परावर्तित होकर उठेगा वीणा का स्वर
इस स्वर को कानों से नहीं, प्राणों से पीना
और फिर सब कुछ विलीन हो जाएगा...
उस दिन, ठीक उसी दिन मेरे प्रिय, तुम्हारी मौत हो चुकी होगी।
ये कुछ लाइनें ही नहीं, मौत की इतनी खूबसूरत चाहत थी कि आकाश ने मौत से डरना छोड़ दिया। ज़िंदगी महज एक बायोलॉजिकल फैक्ट बन गई और मौत किसी प्रेतिनी की तरह खुमारी बनकर उस पर सवार हो गई। उम्र का बढ़ना ही रुक गया। जिंदगी के बीच का दस साल का टुकड़ा तो ऐसे गायब हो गया जैसे कभी था ही नहीं। फिर पांच-पांच साल एक साल की तरह गुजरते रहे। अजीब हाल था उसका। खुद के बोले गए शब्द लगता था कोई और बोल रहा है और उनकी प्रतिध्वनि उसके कानों में गूंज रही है। रिश्तों-नातों सभी के असर से वह इम्यून हो चुका था। किसी से प्यार नहीं करता वो, किसी की केयर नहीं करता था वो। बस जो सिर पर आ पड़े, उसी का निर्वाह करता था वो।
आकाश जिंदगी को इसी तरह खानापूरी की तरह जीता जा रहा था कि एक दिन दूर देश से आई राजकुमारी से उसे छू लिया और उसकी सारी तंद्रा टूट गई। मन पर छाया सारा झाड़-झंखाड़ हट गया। मकड़ी के जाले साफ हो गए। खुमारी टूट गई। वह जाग गया। लेकिन सात साल बाद फिर वैसी ही खुमारी, वैसी ही नींद के लौट आने का राज़ क्या है?

5 comments:

Udan Tashtari said...

वाह, अद्भुत!!! अहसासों की बहती नदिया के साथ बहने का अजब अहसास...बरबस ही कभी किन्हीं विखण्डित क्षणों में कागल पर खींची अपनी चंद पंक्तियाँ आती हैं:

मौत!!!


कल रात
नींद में
धीमे से आकर
थामा जो उसने
मेरा हाथ......
और हुआ
एक अद्भुत अहसास
पहली बार नींद से जागने का...

मैं फिर कभी नहीं जागा!!!

विकास परिहार said...

रघुराज जी मौत की खुमारी चाहे लम्बी हो या क्षणिक होती बहुत मस्त है। और आपकी रचनाओं की भी!!!!!!!

Gyan Dutt Pandey said...

आपको नींद आ रही है और हमें ईर्ष्या!

अनिल रघुराज said...

समीर भाई,
मैं तो अचंभित हूं कैसे एक ही वेवलेंथ पर बहुत सारे लोग किसी न किसी वक्त मौजूद रहते हैं। आपकी कविता अद्भुत है।
विकास जी,
बहुत सारे लोग इस खुमारी का शिकार हैं, जिन्हें निकालने की ज़रूरत है।
और, ज्ञान जी, आप भी क्या फुलझड़ी छोड़ते रहते हैं। आपकी टिप्पणी पढ़ने के बाद मेरे और मेरी पत्नी दोनों के हंसते-हंसते पेट में बल पड़ गए।

बोधिसत्व said...

आपलोग मेरे पेट पर पैर रख कर क्यों खड़े होना चाहते हैं।
पर कहन है अच्छा ।