Friday 21 September, 2007

अनागत का भय, आस्था और वर्जनाएं

लालबाग का राजा। यही कहते हैं मुंबई के लालबाग इलाके में स्थापित होनेवाले गणपति को। गजानन, लंबोदर, मंगलमूर्ति जैसे कई नाम मैंने गणपति के सुने थे। मैंने एक बार रघुराज की जगह अपना लेखकीय नाम मंगलमूर्ति भी रखने को सोचा था। लेकिन आस्थावान लोग मुझे क्षमा करेंगे, जब मैंने दो साल पहले लालबाग का राजा सुना तो मुझे लगा किसी इलाके के दादा की बात हो रही है, मुंबई के किसी गुंडे मवाली की बात हो रही है। संयोग से कल उस इलाके में जाने का मौका मिला तो आस्था का ऐसा ज्वार नज़र आया कि यकीन मानिए, मैं अंदर से हिल गया, आक्रांत-सा हो गया। वैसे, एक बार मुहर्रम के जुलूस में हाय-हसन, हाय-हसन कहकर छाती पीटते लोगों को देखकर भी मैं इसी तरह सिहरा था।
लालबाग में हर तरफ श्रद्धालुओं का हुजूम। सैकड़ों कतार में तो सैकड़ों कतार से बाहर। सभी लालबाग के राजा के दर्शन को बेताब। महिलाएं बच्चों के साथ लाइन में लगी हैं। उनके पति भी आसपास मौजूद हैं। नौजवान लड़के-लड़कियां भी हैं। गली मे, सड़क पर कचरा बिखरा है। पानी बरसने से कीचड़ हो गई है। लेकिन बूढ़े बुजुर्ग ही नहीं, जींस-टीशर्ट पहने जवान लड़कियां और लड़के नंगे पांव सड़क पर चले आ रहे हैं। हाथों में नारियल और प्रसाद का चढ़ावा है। कई तरफ से लाउडस्पीकरों पर फुल वॉल्यूम पर गणपति की वंदना हो रही है। लोग हर गली-नुक्कड़ से उमड़े चले आ रहे हैं।
सड़क के किनारे कहीं लालबाग के राजा की तस्वीरें बिक रही हैं तो कहीं नारियल और चढ़ावे के दूसरे सामान। हर कोई इस आस्था के नकदीकरण की कोशिश में लगा है। कोई आज और अभी के लिए तो कोई भविष्य के लिए। बैंकों तक ने ग्राहक पटाने के लिए बैनर लगा रखे हैं तो स्टार प्लस ने किसी गणेशा फिल्म का विज्ञापन लगा रखा है। हर न्यूज चैनल की आउटस्टेशन ब्रॉडकास्टिंग (ओबी) वैन वहां मौजूद थी। पुलिस का सख्त पहरा था। कोई अघट न हो जाए, इसके लिए सारे इंतजाम थे।
इस आस्थावान भीड़ में मुझे जितने भी लोग नज़र आए, वे सभी औसत परिवारो के थे। न ज्यादा अमीर, न ज्यादा गरीब। लेकिन उनके चेहरों के भाव से मुझे अच्छी तरह भान हो गया कि इनकी आस्था इतनी गाढ़ी है कि तर्कों की मथनी उसे रंचमात्र भी पतली नहीं कर सकती। इन्हें आस्था का ही कोई सूत्र निकालकर आंदोलित किया जा सकता है। बाकी बातें तो इनके दिमाग में जाएंगी, मगर दिल को नहीं छुएंगी। और, दिमाग के साथ दिल न लगे तो किसी भी काम का उन्माद नहीं जगता। और उन्माद के बिना कोई बड़ा काम नहीं किया जा सकता।
मुझे लगता था कि जीवन-स्थितियों के गद्यात्मक होते जाने के साथ ही जो आस्था हमें परंपरा और संस्कार से मिली है, वह कहीं निजी कोने में जाकर दुबक जाएगी और तार्किकता हावी हो जाएगी। लेकिन यथार्थ में तो मैं ठीक इसका उल्टा देख रहा हूं। नौजवान पीढ़ी पर यह आस्था उन्मत्त होकर सवार हो गई है। कौन-से अनागत का भय है जो इन्हें भगवान के आश्रय में लाकर खड़ा कर दे रहा है? ज़िंदगी में क्या वाकई इतनी अनिश्चितता है? क्या आम भारतीय वाकई अंदर से इतना अकेला है कि भगवान में ही उसे अपना सच्चा हमदर्द नज़र आता है?
फिर मुझे डेरा सच्चा के गुरु से लेकर स्वामी नारायण संप्रदाय के संन्यासियों और तांत्रिकों की करतूतें याद आने लगीं कि कैसे लोगों की आस्था का फायदा उठाकर तमाम संत और मठों के स्वामी अपनी वर्जनाएं निकालते हैं। लालबाग के राजा के दर्शन के लिए उमड़ी भीड़ के बीच भी मुझे ऐसी वर्जनाएं घूमती-टहलती नज़र आईं। मुझे सालों पहले इलाहाबाद में छात्रों के कमरों के दृश्य याद आने लगे जहां हनुमान, गणेश या शंकर भगवान की फोटो के बगल में किसी अर्ध-नग्न मॉडल या हीरोइन की फोटो लगी रहती थी। अनागत का भय, आस्था और वर्जनाओं में ये कैसा समन्वय है? आखिर कैसा सह-अस्तित्व है ये?

1 comment:

Anonymous said...

यही जीवन है.