महापुरुष नहीं होते हैं शहीद
भगत सिंह ज़िंदा होते तो आज सौ साल के बूढ़े होते। कहीं खटिया पर बैठकर खांस रहे होते। आंखों से दिखना कम हो गया होता। आवाज़ कांपने लग गई होती। शादी-वादी की होती तो दो-चार बच्चे तीमारदारी में लगे होते, नहीं तो कोई पूछनेवाला नहीं होता। जुगाड़ किया होता तो पंजाब और केंद्र सरकार से स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन पा रहे होते। एक आम आदमी होते, जिनका हालचाल लेने कभी-कभार खास लोग उनके पास पहुंच जाते। लेकिन वैसा नहीं होता, जैसा आज हो रहा है कि पुश्तैनी गांव में जश्न मनाया जाता, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सिक्का जारी करते और नवांशहर का नाम बदलकर शहीद भगत सिंह शहर कर दिया जाता।
भगत सिंह के जिंदा रहने पर उनकी हालत की यह कल्पना मैं हवा में नहीं कर रहा। मैंने देखी है पुराने क्रांतिकारियों की हालत। मैंने देखी है गोरखपुर के उस रामबली पांडे की हालत, जिन्होंने सिंगापुर से लेकर बर्मा और भारत तक में अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ी थी। उनकी पत्नी को सिंगापुर में क्रांतिकारी होने के नाते फांसी लगा दी गई। हिंदुस्तान आज़ाद हुआ, तब भी पांडे जी अवाम की बेहतरी के लिए लड़ते रहे। पहले सीपीआई छोड़कर सीपीएम में गए, फिर बुढ़ापे में सीपीआई-एमएल से जुड़ गए, नक्सली बन गए। नक्सली बनकर किसी खोह में नहीं छिपे। हमेशा जनता के बीच रहे। इलाके में हरिशंकर तिवारी से लेकर वीरेंद्र शाही जैसे खूंखार अपराधी नेता भी उन्हें देखकर खड़े हो जाते थे। लेकिन जीवन की आखिरी घड़ियों में उनकी हालत वैसी ही थी, जैसी मैंने ऊपर लिखी है।
असल में क्रांतिकारी शहीद की एक छवि होती है, वह एक प्रतीक होता है, जिससे हम चिपक जाते हैं। जैसे जवान या बूढ़े हो जाने तक हम अपने बचपन के दोस्त को याद रखते हैं, लेकिन हमारे जेहन में उसकी छवि वही सालों पुरानी पहलेवाली होती है। हम उस दोस्त के वर्तमान से रू-ब-रू होने से भय खाते हैं। खुद भगत सिंह को इस तरह की छवि का एहसास था। उन्होंने फांसी चढाए जाने के एक दिन पहले 22 मार्च 1931 को साथियों को संबोधित आखिरी खत में लिखा है...
आज भगत सिंह की सौवीं जन्मशती पर मेरा यही कहना है कि सरकार या सत्ता प्रतिष्ठान के लोगों को उनकी पूजा अर्चना करने दीजिए। हमें तो भगत सिंह को अपने अंदर, अपने आसपास देखना होगा ताकि हम उनके अधूरे काम को अंजाम तक पहुंचाने में अपना योगदान कर सकें। शहीदों को महापुरुष मानना उन्हें इतिहास की कब्र में दफ्न कर देने जैसा है। शहीदों की चिताओं पर हर बरस मेले लगाने का बस यही मतलब हो सकता है कि हम उनसे प्रेरणा लेकर उनकी निरतंरता को देखें, उनके सपनों को अपनी आंखों में सजाएं और इन सपनों को आज के हिसाब से अपडेट करें। फिर उसे ज़मीन पर उतारने के लिए अपनी सामर्थ्य भर योगदान करें।
भगत सिंह के जिंदा रहने पर उनकी हालत की यह कल्पना मैं हवा में नहीं कर रहा। मैंने देखी है पुराने क्रांतिकारियों की हालत। मैंने देखी है गोरखपुर के उस रामबली पांडे की हालत, जिन्होंने सिंगापुर से लेकर बर्मा और भारत तक में अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ी थी। उनकी पत्नी को सिंगापुर में क्रांतिकारी होने के नाते फांसी लगा दी गई। हिंदुस्तान आज़ाद हुआ, तब भी पांडे जी अवाम की बेहतरी के लिए लड़ते रहे। पहले सीपीआई छोड़कर सीपीएम में गए, फिर बुढ़ापे में सीपीआई-एमएल से जुड़ गए, नक्सली बन गए। नक्सली बनकर किसी खोह में नहीं छिपे। हमेशा जनता के बीच रहे। इलाके में हरिशंकर तिवारी से लेकर वीरेंद्र शाही जैसे खूंखार अपराधी नेता भी उन्हें देखकर खड़े हो जाते थे। लेकिन जीवन की आखिरी घड़ियों में उनकी हालत वैसी ही थी, जैसी मैंने ऊपर लिखी है।
असल में क्रांतिकारी शहीद की एक छवि होती है, वह एक प्रतीक होता है, जिससे हम चिपक जाते हैं। जैसे जवान या बूढ़े हो जाने तक हम अपने बचपन के दोस्त को याद रखते हैं, लेकिन हमारे जेहन में उसकी छवि वही सालों पुरानी पहलेवाली होती है। हम उस दोस्त के वर्तमान से रू-ब-रू होने से भय खाते हैं। खुद भगत सिंह को इस तरह की छवि का एहसास था। उन्होंने फांसी चढाए जाने के एक दिन पहले 22 मार्च 1931 को साथियों को संबोधित आखिरी खत में लिखा है...
मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है। इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊंचा मैं हरगिज़ नहीं हो सकता। आज मेरी कमज़ोरियां जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फांसी से बच गया तो वे ज़ाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिह्न मद्धिम पड़ जाएगा या संभवत: मिट ही जाए।हर क्रांतिकारी या शहीद एक आम इंसान होता है। खास काल-परिस्थिति में वो देश-समाज में उभरती नई शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है। और ऐसे क्रांतिकारियों की धारा रुकती नहीं है। हमेशा चलती रहती है। हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम शहीद क्रांतिकारियों को महापुरुष मानकर भगवान जैसा दर्जा दे देते हैं। अपने बीच में उनकी निरंतरता के दर्शन नहीं करते। फोटो या मूर्ति में हनुमान जी हमें बड़े श्रद्धेय लगते हैं लेकिन खुदा-न-खास्ता वही हनुमान जी अगर सड़क पर आ जाएं तो उनके पीछे कुत्ते दौड़ पड़ेंगे और हम भी उन्हें बहुरुपिया समझ कर पत्थर मारेंगे।
आज भगत सिंह की सौवीं जन्मशती पर मेरा यही कहना है कि सरकार या सत्ता प्रतिष्ठान के लोगों को उनकी पूजा अर्चना करने दीजिए। हमें तो भगत सिंह को अपने अंदर, अपने आसपास देखना होगा ताकि हम उनके अधूरे काम को अंजाम तक पहुंचाने में अपना योगदान कर सकें। शहीदों को महापुरुष मानना उन्हें इतिहास की कब्र में दफ्न कर देने जैसा है। शहीदों की चिताओं पर हर बरस मेले लगाने का बस यही मतलब हो सकता है कि हम उनसे प्रेरणा लेकर उनकी निरतंरता को देखें, उनके सपनों को अपनी आंखों में सजाएं और इन सपनों को आज के हिसाब से अपडेट करें। फिर उसे ज़मीन पर उतारने के लिए अपनी सामर्थ्य भर योगदान करें।
Comments
शहीद भगतसिह के योगदानों को भुलाया नहीं जा सकता.
इससे शहादत की अवज्ञा नहीं होती. भगत सिंह भगत सिंह हैं - एक आदर्श.
मन की बात कह दी आपने. रामबली पाण्डेय तो और भी न जाने कितने होंगे जिन्हें आदर्श मानने की फुर्सत किसी को नहीं है.
ओशो रजनीश से उनके अध्यापक ने एक दिन कहा कि वह बुद्ध से बहुत प्रभावित हैं. काश आज बुद्ध होते तो मैं उनसे दीक्षा लेता. रजनीश ने कहा आप झूठ बोलते हैं. आप बुद्ध नहीं बुद्ध के यश से प्रभावित हैं. बुद्ध आ जाएं तो आप शायद अपने कमरे में न घुसने दें.
निसंदेह भगत सिंह की हालत वही होती जो आपने पहले पैरे में लिखी है.